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रामचरितमानस मोतीः भरत-निषाद मिलन आर संवाद – भरतजी एवं नगरवासी लोकनिक प्रेम

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

भरत-निषाद मिलन आर संवाद – भरतजी एवं नगरवासी लोकनिक प्रेम

१. दण्डवत करैत देखि भरतजी निषादराज केँ उठाकय छाती सँ लगा लेलनि। हृदय मे प्रेम अँटि नहि रहल छन्हि, मानू स्वयं लक्ष्मणजी सँ भेंट भ’ गेल होइन्ह। भरतजी गुह केँ अत्यन्त प्रेम सँ गला लगा रहल छथि। प्रेम केर रीति देखि सब कियो सिहरि रहल छथि।

२. मंगल केर मूल ‘धन्य-धन्य’ केर ध्वनि कय देवता सेहो एहि प्रेम केर सराहना करैत फूल बरसा रहल छथि। ओ सब कहैत छथि –

“जे लोक आ वेद दुनू मे सब तरहें नीचाँ मानल जाइत अछि, जेकर छाया पर्यन्त छुबय सँ स्नान करय पड़ैछ, ताहि निषाद केँ हृदय सँ सटाकय श्री रामचन्द्रजीक छोट भाइ भरतजी आनन्द आ प्रेम सँ शरीर मे पुलकावली भरिकय भेंट कय रहल छथि।”

“जे लोक राम-राम कहि हाफियो लैत अछि, यानि आलस्यहु सँ जेकरा मुंह सँ राम-नाम केर उच्चारण होइत छैक, त पापक समूह ओकर सोझाँ नहि अबैछ। फेर एहि गुह केँ त स्वयं श्री रामचन्द्रजी हृदय सँ लगा लेलनि आर कुल समेत एकरा जगत्पावन (जग केँ पवित्र करयवला) बना देलनि।”

“कर्मनाशा नदीक जल गंगाजी मे पड़ि जाइत छैक, तखन कहू, ओकरा के माथ पर धारण नहि करत?”

“जगत जनैत अछि जे उलटा नाम ‘मरा-मरा’ जपैत-जपैत वाल्मीकिजी ब्रह्म समान भ’ गेलाह।”

“मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात सेहो राम-नाम कहितहि परम पवित्र आर त्रिभुवन मे विख्यात भ’ जाइत अछि। एहि मे कोनो आश्चर्य नहि छैक, युग-युगान्तर सँ यैह रीति चलि आबि रहल अछि।”

“श्री रघुनाथजी केकरा बड़ाइ नहि देलनि?”

एहि तरहें देवता राम नाम केर महिमा कहि रहला अछि आर से सुनि-सुनि अयोध्याक लोक सब सुख पाबि रहल छथि।

३. राम सखा निषादराज सँ प्रेम सहित भेटि भरतजी कुशल, मंगल और क्षेम पुछलन्हि। भरतजीक शील आ प्रेम देखि निषाद ताहि समय विदेह बनि गेलाह, प्रेममुग्ध होइत देहक सुइध बिसरि गेलाह। हुनकर मोन मे संकोच, प्रेम और आनन्द एतबा बढ़ि गेलनि जे ओ ठाढ़े-ठाढ़ टकटकी लगौने भरतजी केँ देखैत रहि गेलाह। फेर धीरज धय भरतजीक चरणक वन्दना कयकेँ प्रेम सँ हाथ जोड़ि विनती करय लगलाह –

“हे प्रभो! कुशल केर मूल अहाँक चरणकमल केर दर्शन कय हम तीनू काल मे अपन कुशल जानि लेलहुँ। आब अहाँक परम अनुग्रह सँ करोड़ों कुल सहित हमर कल्याण भ’ गेल।”

“हमर करतूत आर कुल केँ बुझिकय आ प्रभु श्री रामचन्द्रजीक महिमा केँ मोन मे विचारिकय – यानि कतय हम नीच जाति आ नीच कर्म करयवला जीव, आर कतय अनन्तकोटि ब्रह्माण्डक स्वामी भगवान् श्री रामचन्द्रजी! मुदा ओ हमरा जेहेन नीच पर सेहो अपन अहैतुकी कृपा वश अपना लेलनि, ई बुझि जे रघुवीर श्री रामजीक चरणक भजन नहि करैत अछि, ओ जगत मे विधाता द्वारा ठका गेल अछि, हम कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति छी आर लोक-वेद दुनू सँ सब प्रकार सँ बाहर छी – लेकिन जहाँ श्री रामचन्द्रजी हमरा अपनौलनि, तखनहि सँ हम विश्व केर भूषण भ’ गेल छी।”

४. निषादराज केर प्रीति देखि आ सुन्दर विनय सुनि भरतजीक छोट भाइ शत्रुघ्नजी हुनका सँ भेटलथि। फेर निषाद अपन नाम लय-लयकय सुन्दर वाणी सँ सब रानी लोकनि केँ आदरपूर्वक वन्दना कयलनि। रानी लोकनि हुनका लक्ष्मणजी समान बुझैत आशीर्वाद दैत छथि जे अहाँ सौ लाख वर्ष धरि सुखपूर्वक जिबू।

५. नगर केर स्त्री-पुरुष निषाद केँ देखि एना सुखी भेलथि मानू लक्ष्मणजी केँ देखि रहल होइथ। सब कियो कहैत छथि जे जीवनक लाभ त यैह पेलनि, जिनका कल्याण स्वरूप श्री रामचन्द्रजी अपन बाँहि मे बान्हिकय गला लगौलनि।

६. निषाद अपन भाग्यक बड़ाइ सुनि मोन मे परम आनन्दित होइत सबकेँ अपना संग लयकय चलि पड़लाह। ओ अपन सब सेवक केँ इशारा सँ कहि देलनि, ओहो सब स्वामीक रुइख पाबिकय चलि पड़लाह आर घर मे, गाछ सभक नीचाँ मे, पोखरि पर आ बगीचा तथा जंगल मे ठहरबाक सुन्दर स्थान बना देल गेल।

७. भरतजी जखन श्रृंगवेरपुर देखलथि त हुनक समस्त अंग प्रेमक कारण शिथिल भ’ गेलनि। ओ निषादक कन्हापर हाथ राखिकय चलैत एना शोभा दय रहला अछि मानू विनय आ प्रेम शरीर धारण कएने हो।

८. एहि तरहें भरतजी सब सेनाक संग मे लेने जगत केँ पवित्र करयवाली गंगाजीक दर्शन कयलनि। श्री रामघाट जतय श्री रामजी स्नान संध्या कएने रहथि, तेकरा प्रणाम कयलनि। हुनकर मोन एतबा आनन्दमग्न भ’ गेलनि मानू ओ स्वयं श्री रामजी सँ मिलि गेल होइथ।

९. नगर केर नर-नारी प्रणाम कय रहल छथि आर गंगाजीक ब्रह्म रूप जल केँ देखि-देखिकय आनन्दित भ’ रहल छथि। गंगाजी मे स्नान कय हाथ जोड़िकय सब यैह वर मँगैत छथि जे श्री रामचन्द्रजीक चरण मे हमर प्रेम कम नहि हो।

१०. भरतजी कहलखिन – हे गंगे! अपनेक रज सबकेँ सुख दयवला आ सेवक सभक लेल त कामधेनुए थिक। हम हाथ जोड़िकय ई वरदान मँगैत छी जे श्री सीता-रामजी केर चरण मे हमर स्वाभाविक प्रेम हो। एहि तरहें भरतजी स्नान कय गुरुजीक आज्ञा पाबि आ ई जानिकय जे माता लोकनि सेहो स्नान कय चुकली, डेरा राखि देलाह। लोक सब जतय-ततय डेरा राखि लेलनि। भरतजी सभक हाल‍-खबरि लेलनि, सब कियो आराम सँ टिकलथि या नहि से भरतजी स्वयं सब किछु निरिक्षण कयलथि। 

११. देव पूजन कय आज्ञा पाबि दुनू भाइ श्री रामचन्द्रजीक माता कौसल्याजी लग गेलथि। चरण दबबैत कोमल वचन कहि-कहि भरतजी सब माता लोकनिक सत्कार कयलनि। फेर भाइ शत्रुघ्न केँ माता सभक सेवा मे सौंपिकय अपने निषाद केँ बजौलनि।

१२. सखा निषाद राज केर हाथ सँ हाथ मिलेने भरतजी चललाह। प्रेम कम नहि अछि, अधिक प्रेमक कारण हुनकर शरीर शिथिल पड़ि रहल अछि। भरतजी सखा सँ अपन नेत्र आ मोनक जलन ठंढा करबाक लेल पुछैत छथि जे हमरा ओ स्थान देखाउ जतय सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मण राति केँ सुतल रहथि। एना कहिते हुनकर नेत्र सँ प्रेमाश्रुक जलधारा बहय लागल।

१३. भरतजीक वचन सुनिकय निषाद केँ भारी विषाद भेलनि। ओ तुरन्त हुनका ओतय लय गेलाह जतय पवित्र अशोकक गाछक नीचाँ श्री रामजी विश्राम कयने छलाह। भरतजी ओतय अत्यन्त प्रेम सँ आदरपूर्वक दण्डवत प्रणाम कयलनि। कुशक सुन्दर पटिया देखि ओकर प्रदक्षिणा कयकेँ प्रणाम कयलनि। श्री रामचन्द्रजीक चरण चिह्न केर रज आँखि मे लगौलनि। ओहि घड़ीक प्रेमक अधिकता कहैत नहि बनैत अछि।

१४. भरतजी दुइ-चारि स्वर्णबिन्दु (सोनाक कण या तार आदि जे सीताजीक गहना-कपड़ा सँ खसि पड़ल छल) देखलनि त ओकरा सीताजीक समान मानि अपन माथ पर उठा लेलनि। हुनकर नेत्र मे प्रेमाश्रुक जल भरल अछि, हृदय मे ग्लानि भरल अछि। ओ सखा सँ सुन्दर वाणी मे ई वचन बजलाह –

“ई स्वर्णक कण या तार सेहो सीताजीक विरह सँ एना श्रीहत (शोभाहीन) एवं कान्तिहीन भ’ रहल अछि जेना राम वियोग मे अयोध्याक नर-नारी शोकक कारण क्षीण भ’ रहल अछि।”

“जाहि सीताजीक पिता राजा जनक छथि, एहि जगत मे भोग आ योग दुनू जिनकर मुठ्ठी मे छन्हि, ताहि जनकजी केँ हम केकर उपमा दी?”

“सूर्यकुल के सूर्य राजा दशरथजी जिनकर ससुर छथि, जिनका सँ अमरावतीक स्वामी इन्द्र सेहो सिहाइत छलाह, ईर्ष्यापूर्वक हुनका जेहेन ऐश्वर्य ओ प्रताप पाबय चाहथि आर प्रभु श्री रघुनाथजी जिनकर प्राणनाथ छथि, जे एतबा पैघ छथि जे आर कियो पैघ होइत अछि से श्री रामचन्द्रेजीक देल बड़ाइ सँ होइत अछि। ओहि श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्री मे शिरोमणि सीताजीक कुशक शय्या देखिकय हमर हृदय हहरिकय फाटि कियैक नहि जाइत अछि, हे शंकर! ई वज्रहु सँ अधिक कठोर अछि!”

“हमर छोट भाइ लक्ष्मण बहुते सुन्दर आर दुलार करय योग्य अछि। एहेन भाइ नहि त केकरो भेल, नहि अछि आ नहिये होइवला अछि। जे लक्ष्मण अवधक लोकक प्रिय, माता-पिताक दुलारा आ श्री सीता-रामजीक प्राण प्यारा अछि, जेकर कोमल मूर्ति और सुकुमार स्वभाव छैक, जेकर शरीर मे कहियो गरम हवा तक नहि लगलैक, ओ वन मे सब तरहें विपत्ति सहि रहल अछि। हाय! ई हमर छाती करोड़ों वज्रहु केर निरदार कय देलक जे ई सब देखि फाटल नहि।”

“श्री रामचंद्रजी जन्म (अवतार) लयकय जगत्‌ केँ प्रकाशित (परम सुशोभित) कय देलनि। ओ रूप, शील, सुख आर समस्त गुणक समुद्र छथि। पुरवासी, कुटुम्बी, गुरु, पिता-माता सब केँ श्री रामजीक स्वभाव सुख दयवला अछि। शत्रु सेहो श्री रामजीक बड़ाई करैत अछि। बोल-वचन, भेटबाक तरीका आ विनय सँ ओ सभक मोन केँ हरि लैत छथि। करोड़ों सरस्वती और अरबों शेषजी तक प्रभु श्री रामचंद्रजीक गुण समूहक गिनती नहि कय सकैत छथि। जे सुख स्वरूप रघुवंश शिरोमणि श्री रामचंद्रजी मंगल और आनंद के भंडार छथि ओ पृथ्वी पर कुश बिछाकय सुतैत छथि, विधाताक गति बहुतहि बलवान अछि।”

“श्री रामचंद्रजी कानहु सँ कहियो दुःखक नाम नहि सुनलनि। महाराज स्वयं जीवन वृक्ष जेकाँ हुनक रेख-देख कयल करैत छलाह। सब माता लोकनि सेहो राति-दिन हुनका एना सम्हारि रखैत छलीह जेना पलक नेत्र केँ आ साँप अपन मणि केर करैत अछि। वैह श्री रामचंद्रजी आब जंगल मे पैदल घुमि रहल छथि आर कन्द-मूल ओ फल-फूल केर भोजन करैत छथि।”

“अमंगल केर मूल कैकेइ केँ धिक्कार अछि जे अपन प्राणप्रियतम पति सँ पर्यन्त प्रतिकूल भ’ गेलीह। हम पापक समुद्र आर अभागल केँ धिक्कार अछि, धिक्कार अछि, जेकर कारण ई सबटा उत्पात भेल। विधाता हमरा कुल केर कलंक बनाकय पैदा कयलनि आ कुमाता हमरा स्वामी द्रोही बना देलनि।”

१५. ई सुनि निषादराज प्रेमपूर्वक बुझबय लगलाह – हे नाथ! अहाँ व्यर्थक विषाद कियैक करैत छी? श्री रामचंद्रजी अहाँ केँ प्रिय छथि आ अहाँ श्री रामचंद्रजी केँ प्रिय छियन्हि। ई निचोड़ थिक। दोष त प्रतिकूल विधाताक थिकनि।

छंद –
बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहे किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥

प्रतिकूल विधाताक करनी बड कठोर अछि, जे माता कैकेइ केँ बावली बना देलक, हुनकर मति फेरि देलक। ओहि राति केँ प्रभु श्री रामचंद्रजी बेर-बेर आदरपूर्वक अहाँक बहुते प्रशंसा करैत छलथि। तुलसीदासजी कहैत छथि जे निषादराज कहैत छथि जे श्री रामचंद्रजी केँ अहाँक समान अतिशय प्रिय आर कियो नहि छन्हि, हम शपथ खाकय ई बात कहैत छी। परिणाम निश्चिते मंगलमयी होयत, ई जानिकय अहाँ अपन हृदय मे धैर्य धारण करू।

श्री रामचंद्रजी अंतर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपा केर धाम थिकाह, एना विचारिकय आर मोन मे दृढ़ता आनिकय चलू आ विश्राम करू।

१६. सखाक वचन सुनि, हृदय मे धीरज धय श्री रामचंद्रजीक स्मरण करिते भरतजी डेरा लेल विदाह भेलाह। नगरक सारा स्त्री-पुरुष श्री रामजीक ठहरयवला स्थानक समाचार पाबि बड़ा आतुर भ’ कय ओहि स्थान केँ देखय चललाह। ओ सब ओहि स्थानक परिक्रमा कयकेँ प्रणाम करैत छथि आर कैकेइ केँ बहुतो तरहें दोष दैत छथि। नेत्र मे जल भरि-भरि लैत छथि आ प्रतिकूल विधाता केँ दोष दैत छथि। कियो भरतजीक स्नेहक सराहना करैत छथि आर कियो कहैत छथि जे राजा अपन प्रेम खूब निबाहलनि। सब अपन निन्दा कयला उपरान्त निषादक प्रशंसा करैत छथि। ताहि समय के लोकक विमोह आ विषाद केँ के कहि सकैत अछि? एहि तरहें सब कियो राति भरि जगिते रहलाह।

१७. भोर होइत खेवा लागि गेल। सुन्दर नाव पर गुरुजी केँ चढाकय फेर दोसर नाव पर सब माता लोकनि केँ चढ़ौलनि। चारि घड़ी मे सब गंगाजीक पार उतरि गेलथि। तखन भरतजी उतरिकय सब केँ सम्हारलन्हि। प्रातःकाल केर क्रिया आदि सम्पन्न कय माता लोकनिक चरणक वन्दना कय आर गुरुजी केँ सिर नमाकय भरतजी निषादगण सब केँ रास्ता देखेबाक लेल आगू कय लेलनि आ तखन सेना सब केँ आगू कय देलनि। निषादराज केँ आगाँ कय पाछू सँ सब माता लोकनिक पालकी चलल। छोट भाइ शत्रुघ्नजी केँ बजाकय हुनका सभक संग कय देलनि। फेर ब्राह्मण लोकनिक संग गुरुजी गमन कयलनि।

१८. तदनन्तर अपने (भरतजी) गंगाजी केँ प्रणाम कयलनि आर लक्ष्मण सहित श्री सीता-रामजीक स्मरण कयलनि। भरतजी पैदले चललाह। हुनका संग बिना सवार के घोड़ा बागडोर सँ बँधल चलल जा रहल अछि। उत्तम सेवक बेर-बेर कहैत छथि जे हे नाथ! अहाँ घोड़ा पर सवार भ’ जाउ। भरतजी जवाब दैत छथि जे श्री रामचंद्रजी त पैदले गेलथि आ हमरा लेल रथ, हाथी आ घोड़ा बनायल गेल अछि। हमरा लेल त यैह उचित अछि जे हम माथक बले चलिकय जाय। सेवक केर धर्म सब सँ कठिन होइत छैक। भरतजीक दशा देखिकय आ कोमल वाणी सुनिकय सब सेवकगण ग्लानिक मारे गलल जा रहल छथि।

हरिः हरः!!

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