रामचरितमानस मोतीः निषाद केर शंका आर सावधानी

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

निषाद केर शंका आर सावधानी

१. राति भरि सई नदीक तीर पर निवास कय सबेरे ओतय सँ (भरत-शत्रुघ्न संग वनगमन कयनिहार समस्त अयोध्यावासी) चलि देलाह आर सब कियो श्रृंगवेरपुर लग आबि गेलाह। निषादराज सब समाचार सुनलनि त ओ दुःखी भ’ हृदय मे विचार करय लगलाह –

कि कारण अछि जे भरत वन जा रहला अछि? मोन मे किछु कपट भाव अवश्य छन्हि। जँ मोन मे कुटिलता नहि होइतन्हि त संग मे सेना कियैक लेने छथि, सोचेत छथि जे छोट भाइ लक्ष्मण सहित श्री राम केँ मारिकय सुख सँ निष्कण्टक राज्य करब।

भरत हृदय मे राजनीति केँ स्थान नहि देलनि, ओ राजनीति के विचार नहि कयलनि। तखन पहिने त कलंके टा लगलनि, आब त जीवनहुँ सँ हाथ धोयय पड़तन्हि। सम्पूर्ण देवता आर दैत्य वीर जुटि जाइथ, तैयो श्री रामजी केँ रण मे जीतयवला कियो नहि अछि।

भरत जे एना कय रहल छथि एहि मे आश्चर्यक कोन बात? विष के लत्ती मे कहियो अमृतफल थोड़े फरत!

२. एना विचारिकय गुह (निषादराज) अपन जातिक लोक सँ कहलनि जे सब कियो सावधान भ’ जाउ। नाव सब कब्जा मे राखू आ सबटा केँ डुबा दियौक, सब घाट केँ रोकि दियौक। सब कियो सुसज्जित भ’ कय घाट सब केँ रोकि दियौक आर सब कियो मरबाक वास्ते तैयार भ’ जाउ। अर्थात् भरत सँ युद्ध मे लड़िकय मरबाक लेल तैयार भ’ जाउ।

हम भरत सँ सामने मैदान मे लोहा लेब, मुठभेड़ करब और जिबैत जहान हुनका गंगा पार नहि उतरय देबनि। युद्ध मे मरण, फेर गंगाजीक तट, श्री रामजीक काज आर क्षणभंगुर शरीर जे चाहय जखन नाश भ’ जाय, भरत श्री रामजीक भाइ आर राजा के हाथ सँ मरत हमरा सन नीच सेवक – बड़ा भाग्य सँ एहेन मृत्यु भेटैत छैक।

हम स्वामीक काज लेल रण मे लड़ाई करब आर चौदहो लोक केँ अपन यश सँ उज्ज्वल कय देब। श्री रघुनाथजीक निमित्त प्राण त्यागि देब।

हमर त दुनू हाथ मे आनन्दक लड्डू अछि, जँ जीति गेलहुँ त राम सेवक केर यश प्राप्त करब आ मारल गेलहुँ त श्री रामजी के नित्य सेवा प्राप्त करब।

साधु सभक समाज मे जेकर गिनती नहि आर श्री रामजी केर भक्त लोकनि मे जेकर स्थान नहि, ओ जगत मे पृथ्वीक भार भ’ कय व्यर्थहि जिबैत अछि। ओ माताक यौवन रूपी वृक्ष केर काटयवला कुरहरि मात्र थिक।

३. एहि तरहें श्री रामजीक लेल प्राण समर्पण करबाक निश्चय कयकेँ निषादराज विषाद सँ रहित भ’ गेलाह आर सभक उत्साह बढाकय श्री रामचन्द्रजीक स्मरण करैत ओ तुरन्ते तरकस, धनुष आर कवच माँगलनि। सब सँ कहलनि –

हे भाइ लोकनि! जल्दी करू आर सबटा सामान सजाउ। हमर आज्ञा सुनिकय कियो गोटे मोन मे डर नहि आनब।

४. सब हर्ष सँ भरल स्वर मे बाजि उठल – “हे नाथ! बहुत बढियाँ!!” आर आपस मे एक-दोसरक जोश बढ़ाबय लागल। निषादराज केँ जोहार कय-कयकेँ सब निषाद चलि देलक।

५. सब बड़ा शूरवीर अछि आर संग्राम मे लड़ब ओकरा सब केँ बड नीक लगैत छन्हि। श्री रामचन्द्रजीक चरणकमल केर जूताक स्मरण कय ओ सब छोट-छोट तरकस बान्हिकय धनुहि (छोट-छोट धनुष) पर प्रत्यंचा चढ़ा लेलक। कवच पहिरकय माथ पर लोहाक टोप रखैत अछि आर फरसा, भाला आ बरछी केँ सीधा कय रहल अछि, सुधारि रहल अछि। कियो तलवार केर वार रोकय मे अत्यन्त कुशल अछि। ओ सब एहेन उमंग मे भरल अछि मानू धरती छोड़िकय आकाश मे कुदि रहल हुए।

६. अपन-अपन साज-समाज बनाकय ओ सब निषादराज गुह केर जोहार कयलक। निषादराज सेहो सुन्दर योद्धा सब केँ देखिकय सब केँ सुयोग्य जानलनि आर नाम लय-लयकय सभक सम्मान कयलनि। कहलखिन –

हे भाइ लोकनि! धोखा नहि अनिहें, मोन मे मरय सँ घबड़ाहट नहि अनिहें, आइ हमर बड पैघ काज अछि।

७. ई सुनिकय सब योद्धा बड़ा जोश सँ एक्के संग बाजि उठल –

हे वीर! अधीर जुनि होउ। हे नाथ! श्री रामचन्द्रजीक प्रताप सँ आर अहाँक बल सँ हम सब भरत केर सेना केँ बिना वीर और बिना घोड़े के कय देब, सब केँ मारि देब। जिबैत जी पाछू पैर नहि राखब। पृथ्वी केँ रुण्ड-मुण्डमयी कय देब।

८. निषादराज वीर सभक बढ़ियाँ दल देखिकय कहलनि – जुझारू (लड़ाइ के) ढोल बजा। एतेक कहिते बाम दिश कियो छींकि देलक। शकुन विचारयवला बाजल जे खेत सुन्दर अछि, जीत अवश्य होयत। एक दोसर वृद्ध लोक शकुन विचारिकय कहलक – भरत सँ भेंट लिअ, हुनका सँ लड़ाइ नहि होयत। भरत श्री रामचन्द्रजी केँ मनाबय जा रहल छथि। शकुन एना कहि रहल अछि जे विरोध नहि होयत।

९. ई सुनिकय निषादराज गुह बजलाह – बूढ़ा ठीक कहि रहल छथि। जल्दी मे बिना विचारने कोनो काज कय मूर्ख लोक पछताइत अछि। भरतजीक शील स्वभाव बिना बुझने आर बिना जनने युद्ध करय मे हित बड पैघ हानि होयत। अतएव हे वीर लोकनि! अहाँ सब एकत्रित भ’ कय सब घाट रोकि लिअ, हम जा कय भरतजी सँ भेटिकय हुनकर भेद लैत छी। हुनकर भाव मित्र केर छन्हि या शत्रु के या उदासीन छथि, ई जानि तखन आबिकय ओहि अनुसार प्रबन्ध करब। हुनकर सुन्दर स्वभाव सँ हम हुनकर सिनेह केँ जानि लेब। वैर आ प्रेम नुकेला सँ नहि नुकाइत छैक।

१०. एना कहिकय ओ भेंट के सामान सजाबय लगलाह। ओ कन्द, मूल, फल, पक्षी और हिरन मँगबौलनि। कहार सब पुरान आर मोट पहिना नाम के मछरी केर भार भरि-भरिकय आनि लेलक। भेंटक सामान सजाकय भेटबका लेल चललाह निषादराज त मंगलदायक शुभ-शकुन होबय लागल। निषादराज मुनिराज वशिष्ठजी केँ देखिकय अपन नाम बतौलनि आर दूरहि सँ दण्डवत प्रणाम कयलनि। मुनीश्वर वशिष्ठजी हुनका रामक प्रिय जानिकय आशीर्वाद देलथिन आर भरतजी केँ बुझाकय कहलखिन जे ई श्री रामजीक मित्र छथि। ई श्री राम केर मित्र थिकाह, एतबा सुनिते भरतजी रथ त्यागि देलनि। ओ रथ सँ उतरिकय प्रेम मे उमकैत चलि पड़लाह। निषादराज गुह अपन गाँव, जाति आर नाम सुनाकय पृथ्वी पर माथा टेकिकय हुनकर वन्दना (जोहार) कयलनि।

हरिः हरः!!