स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
अयोध्यावासी सहित श्री भरत-शत्रुघ्न आदिक वनगमन
१. ओ सम्पत्ति, घर, सुख, मित्र, माता, पिता, भाइ जरि जाय जे श्री रामजीक चरणक सम्मुख होइ मे हँसिते सहयोग नहि करय। घरे-घर लोक अनेको प्रकारक सवारी सब सजा रहल अछि। हृदय मे बड़ा भारी हर्ष छैक जे भोरे चलबाक अछि।
२. भरतजी घर जाय विचार कयलनि जे नगर घोड़ा, हाथी, महल-खजाना आदि सबटा सम्पत्ति श्री रघुनाथजीक थिकन्हि। जँ ओकर रक्षाक व्यवस्था कएने बिना ओ सब ओहिना छोड़िकय चलि देब त परिणाम मे हमर भलाई नहि होयत, कियैक त स्वामीक द्रोह सब पाप मे शिरोमणि (श्रेष्ठ) होइछ। सेवक वैह अछि जे स्वामीक हित करय, चाहे कियो करोड़ों दोष कियैक नहि दियए।
३. भरतजी एना विचारिकय एहेन विश्वासपात्र सेवक सब केँ बजौलनि जे कहियो सपनहुँ मे अपन धर्म सँ नहि डिगैत छलय। भरतजी ओकरा सब केँ सब किछु बुझाकय फेर उत्तम धर्म बतेलनि आर जे जाहि योग्य छलय तेकरा ताहि काज मे नियुक्त कय देलनि। सब व्यवस्था कयकेँ, रक्षक सब केँ राखिकय भरतजी राम माता कौसल्याजी लग गेलथि।
४. स्नेहक सुजान यानि प्रेम के तत्व केँ जननिहार भरतजी सब माता लोकनि केँ आर्त (दुःखी) जानि हुनका सभक लेल माफा (पालकी) तैयार करय तथा सुखासन यान (सुखपाल) सजेबाक लेल कहलनि।
५. नगरक नर-नारी चकवा-चकवी समान हृदय मे अत्यन्त आर्त होइत भोर हुए से चाह रखैत छथि। भरि राति जागिते भोर भ’ गेल। तखन भरतजी चतुर मंत्री लोकनि केँ बजौलनि। हुनका सब सँ कहलखिन – राजतिलक के सबटा सामान लय चलू। वनहि मे मुनि वशिष्ठजी श्री रामचन्द्रजी केँ राज्य देता, जल्दी चलू। ई सुनिकय मंत्री लोकनि वन्दना कयलनि आर तुरन्त घोड़ा, रथ आ हाथी सजबा देलनि।
६. सबसँ पहिने मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती आर अग्निहोत्र केर सब सामग्री सहित रथ पर सवार भ’ कय चललाह। फेर ब्राह्मण लोकनिक समूह, जे सब तपस्या और तेज के भंडार रहथि, अनेकों सवारी सब पर चढ़िकय चललाह। नगर के सब लोक रथ सब सजा-सजाकय चित्रकूट लेल चलि पड़लाह।
७. जेकर वर्णन नहि भ’ सकैत अछि तेहेन सुन्दर पालकी सब पर चढ़ि-चढ़िकय रानी लोकनि चललीह। विश्वासपात्र सेवक सभक हाथ नगर सौंपिकय आर सबकेँ आदरपूर्वक आगू पठाकय तखन श्री सीता-रामजीक चरण केँ स्मरण कयकेँ भरत-शत्रुघ्न दुनू भाइ चललाह।
८. श्री रामचन्द्रजीक दर्शन के वश मे भेल दर्शनक अनन्य लालसा सँ सब नर-नारी एना चललथि मानू पियासल हाथी-हथिनी जल देखि बड़ा तेजी सँ बावला भेल जा रहल हो। श्री सीताजी-रामजी सब सुख केँ छोड़िकय वन मे छथि, मोन मे एना विचार कयकेँ छोट भाइ शत्रुघ्नजी सहित भरतजी पैदले चलल जा रहल छथि। हुनकर स्नेह देखि लोक सब प्रेम मे मग्न भ’ गेलथि आर सब कियो घोड़ा, हाथी, रथ केँ छोड़िकय उतरिकय हुनकहि संग पैदले चलय लगलथि। तखन श्री रामचन्द्रजीक माता कौसल्याजी भरत लग जायकय आर अपन पालकी हुनका समीप ठाढ़ कयकेँ कोमल वाणी सँ कहली – हे बेटा! माता बलैया लैत अछि, अहाँ रथ पर चढ़ि जाउ। नहि त पूरा परिवार दुःखी भ’ जायत। अहाँक पैदल चलला सँ सब कियो पैदल चलत। शोक के कारण सब ओहिना कमजोर पड़ि गेल अछि, ई रास्ता पैदल चलय योग्य नहि अछि। माताक आज्ञा सिर चढ़ा हुनकर चरण मे सिर नमबैत दुनू भाइ रथ पर चढ़िकय चलय लगलाह।
९. पहिल दिन तमसा नदीक तट पर निवास कय दोसर मुकाम गोमतीक तीर पर कयलनि। कियो दूधे टा पिबैत, कियो फलाहार करैत आर किछु लोक राति केँ एक बेर मात्र भोजन करैत छथि। भूषण आर भोग-विलास केँ छोड़िकय सब कियो श्री रामचन्द्रजी लेल नियम और व्रत करैत छथि।
हरिः हरः!!