स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी केँ अनबाक लेल चित्रकूट जेबाक तैयारी
१. वशिष्ठजी कहलखिन – हे तात! हृदय मे धीरज धरू आर जाहि कार्यक अवसर अछि, से करू। गुरुजीक वचन सुनि भरतजी उठलाह आ ओ अन्त्येष्टिक तैयारी करय लेल कहलनि।
२. वेद मे बतायल गेल विधि मुताबिक राजाक देह केर स्नान करायल गेलनि आ परम विचित्र विमान बनायल गेल। भरतजी सब माता लोकनिक चरण पकड़ि सती होइ सँ रोकि लेलनि। ओ रानियो लोकनि श्री राम केर दर्शनक अभिलाषा सँ रहि गेलथि। चंदन और अगर के तथा आरो विभिन्न प्रकारक कपूर, गुग्गुल, केसर आदि सुगन्धित द्रव्य सब आनल गेल। सरयूजीक तट पर सुन्दर चिता बनायल गेल जे स्वर्ग केर सीढ़ी जेकाँ लागि रहल छल। एहि तरहें दाह क्रिया कयल गेलनि आ सब कियो विधिपूर्वक स्नान कय केँ तिलांजलि देलनि।
२. फेर वेद, स्मृति आ पुराण सभक मत निश्चय कय ताहि अनुसारे भरतजी पिताक दशगात्र विधान (दस दिनक कृत्य) कयलनि। मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी जतय जे आज्ञा देलनि, ओतय भरतजी सब किछु ओहिना करैत रहलथि। शुद्ध भेला उपरान्त विधिपूर्वक सब दान कयलनि। गाय तथा घोड़ा, हाथी आदि अनेकों प्रकारक सवारी सब, सिंहासन, गहना, कपड़ा, अन्न, पृथ्वी, धन आर मकान भरतजी देलनि, भूदेव ब्राह्मण दान पाबिकय परिपूर्णकाम भ’ गेलाह, यानि हुनकर सब मनोकामना सब नीक जेकाँ पूरा भ’ गेलनि।
३. पिताजीक लेल भरतजी जे सब कयलथि से लाखों मुंह सँ वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। तखन शुभ दिन देखिकय मुनि वशिष्ठजी अयलाह आर ओ मंत्री लोकनि एवं समस्त महाजन लोकनि केँ बजौलनि। सब कियो राजसभा मे आबिकय बैसि रहलाह। तखन मुनि भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दुनू भाइ केँ बजबौलनि। भरतजी केँ वशिष्ठजी अपना लग बैसा लेलाह आ नीति व धर्म सँ भरल वचन कहलाह।
४. पहिने त कैकेइ जे कुटिल करनी कयने रहथि, श्रेष्ठ मुनि ओ सबटा कथा कहलथि। फेर राजाक धर्मव्रत आ सत्य केर सराहना कयलथि, जे शरीर त्यागिकय प्रेम केँ निबाहलनि। श्री रामचन्द्रजीक गुण, शील आर स्वभाव केर वर्णन करैत-करैत मुनिराजक नेत्र मे जल भरि गेलनि आ ओ शरीर सँ पुलकित भ’ गेलाह। फेर लक्ष्मणजी और सीताजीक प्रेमक बड़ाई करिते ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह मे मग्न भ’ गेलथि।
५. मुनिनाथ बिलखिकय बजलाह –
“हे भरत! सुनू, भावी (होनहार) बड़ा भारी बलवान होइछ। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ई सब विधाताक हाथ छन्हि। एना विचारि कय केकरा दोष देल जाय? आर व्यर्थ केकरो पर क्रोध कियैक कयल जाय?”
“हे तात! मन मे विचार करू। राजा दशरथ सोच करय योग्य नहि छथि।”
“सोच ओहि ब्राह्मण केँ करबाक चाही जे वेद नहि जनैत अछि आर जे अपन धर्म छोड़िकय विषय भोग टा मे लीन रहैत अछि।”
“ओहि राजा केँ सोच करबाक चाही जे नीति नहि जनैत अछि आर जेकरा प्रजा प्राण समान प्रिय नहि छैक।”
“सोच ओहि वैश्य केँ करबाक चाही जे धनवान रहितो कंजूस होइत अछि आर जे अतिथि सत्कार तथा शिवजीक भक्ति करय मे कुशल नहि अछि।”
“सोच ओहि शूद्र केँ करबाक चाही जे ब्राह्मणक अपमान करयवला आ बहुते बाजयवला, मान-बड़ाई चाहयवला, आर ज्ञानक घमन्ड रखयवला अछि।”
“पुनः ओहि स्त्री केँ सोच करबाक चाही जे पति केँ छलयवाली, कुटिल, कलहप्रिय आ स्वेच्छाचारिणी अछि।”
“ओहि ब्रह्मचारी केँ सोच करबाक चाही जे अपन ब्रह्मचर्य व्रत केँ छोड़ि दैत अछि और गुरुक आज्ञा अनुसार नहि चलैत अछि।”
“ओहि गृहस्थ केँ सोच करबाक चाही जे मोहवश कर्म मार्ग केर त्याग कय दैत अछि।”
“ओहि संन्यासी केँ सोच करबाक चाही जे दुनियाक प्रपंच मे फँसल अछि आ ज्ञान-वैराग्य सँ हीन अछि।”
“वानप्रस्थ वैह सोच करय योग्य अछि जेकरा तपस्या छोड़िकय भोग नीक लगैत छैक।”
“सोच ओकर करबाक चाही जे चुगलखोर अछि, बिना कारणे क्रोध करयवला अछि तथा माता, पिता, गुरु एवं भाइ-बंधु लोकनि सँ विरोध राखयवला अछि।”
“सब प्रकार सँ ओकर सोच करबाक चाही जे दोसरक अनिष्ट करैत अछि, अपनहि शरीर केर पोषण करैत अछि आ बड़ा भारी निर्दयी अछि।”
“आर, ओ त सब तरहें सोच करय योग्य अछि जे छल छोड़िकय हरि के भक्त नहि होइत अछि।”
“कोसलराज दशरथजी सोच करय योग्य नहि छथि, जिनकर प्रभाव चौदहो लोक मे प्रकट अछि।”
“हे भरत! अहाँक पिता जेहेन राजा त न भेला, न छथि आर नहिये आगू कियो हेता। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल सब दशरथजीक गुण केर कथा सब कहल करैत छथि।”
“हे तात! कहू, हुनकर बड़ाई कियो कोन तरहें करत जिनका श्री राम, लक्ष्मण, अहाँ आ शत्रुघ्न जेहेन पवित्र पुत्र छन्हि? राजा सब प्रकार सँ बड़भागी रहथि। हुनका लेल विषाद करब व्यर्थ अछि। ई सुनि आ बुझि सोच त्यागि दिअ आर राजाक आज्ञा माथ पर राखिकय ताहि अनुसार आगू के काज करू।”
“राजा राजपद अहाँ केँ देलनि अछि। पिताक वचन केँ अहाँ केँ सत्य करबाक चाही, जे वचन लेल मात्र श्री रामचन्द्रजी केँ त्यागि देलनि आर रामविरह केर अग्नि मे अपन शरीर केर आहुति दय देलनि।”
“राजा केँ वचन प्रिय छलन्हि, प्राण प्रिय नहि छलन्हि, ताहि लेल हे तात! पिताक वचन केँ प्रमाण (सत्य) करू! राजाक आज्ञा माथ पर धारण करैत पालन करू, एहि मे अहाँक सब तरहें भलाइ अछि।”
“परशुरामजी पिताक आज्ञाक सम्मान देबाक लेल अपन माता तक केँ मारि देलनि, समस्त लोक एहि बातक साक्षी अछि। राजा ययातिक पुत्र पिता केँ अपन जवानी दय देलनि। पिताक आज्ञा पालन कयला सँ हुनका पाप आ अपयश नहि भेलनि।”
“जे अनुचित आर उचित के विचार छोड़िकय पिताक वचन केँ पालन करैत अछि, ओ सुख आर सुयश के पात्र भ’ कय अंत मे इन्द्रपुरी (स्वर्ग) मे निवास करैत अछि।”
“राजाक वचन अवश्य सत्य करू। शोक त्यागि दिअ आर प्रजा केर पालन करू। एना कयला सँ स्वर्ग मे राजा केँ संतोष हेतनि आर अहाँ केँ पुण्य व सुन्दर यश भेटत, दोष नहि लागत।”
“ई वेद मे प्रसिद्ध अछि आर स्मृति-पुराणादि समस्त शास्त्र सभक द्वारा सम्मत अछि जे पिता जिनका देथि वैह राजतिलक पबैत छथि, ताहि लेल अहाँ राज्य करू, ग्लानि केर त्याग कय दिअ। हमर वचन केँ हित बुझि मानि लिअ। एहि बात केँ सुनिकय श्री रामचन्द्रजी और जानकीजी सुख पेता आर कियो पंडित एकरा अनुचित नहि कहत। कौसल्याजी आदि अहाँक सब माय सेहो प्रजाक सुख सँ सुखी हेती। जे अहाँ आ श्री रामचन्द्रजीक श्रेष्ठ संबंध केँ जानि लेत, ओ सब तरहें अहाँ सँ भलाइ हेबाक बात बुझत। श्री रामचन्द्रजीक वापस एलाक बाद राज्य हुनका सौंपि देबनि आ सुन्दर स्नेह सँ हुनकर सेवा करब।”
६. मंत्री लोकनि हाथ जोड़िकय कहि रहल छथि – गुरुजीक आज्ञाक अवश्ये टा पालन करू। श्री रघुनाथजीक वापस एलाक बाद जेना उचित हो, ताहि समय तहिना करब।
७. कौसल्याजी सेहो धीरज धयकय कहि रहली अछि – हे पुत्र! गुरुजीक आज्ञा पथ्य रूप थिक। ओकर आदर करबाक चाही आ हित बुझि ओकर पालन करबाक चाही। काल केर गति केँ जानिकय विषाद के त्याग कय देबाक चाही। श्री रघुनाथजी वन मे छथि, महाराज स्वर्ग के राज्य करय चलि गेलाह आर हे तात! अहाँ एना शोक सँ कमजोर भ’ रहल छी। हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मंत्री और सब माता लोकनिक, सभक वास्ते एकटा अहीं टा सहारा छी। विधाता केँ प्रतिकूल और काल केँ कठोर देखिकय धीरज धरू, माता अहाँपर बलिहारी जाइत अछि। गुरुक आज्ञा केँ माथ चढ़ा ताहि अनुसार कार्य करू आर प्रजाक पालन कय कुटुम्ब लोकनिक दुःख सेहो हरू।”
८. भरतजी गुरुक वचन आर मंत्री लोकनिक अभिनंदन (अनुमोदन) केँ सुनलनि जे हुनक हृदय लेल मानू चन्दन समान शीतल छल। फेर ओ शील, स्नेह आ सरलताक रस मे सानल माता कौसल्याक कोम वाणी सुनलनि।
छंद :
सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरतु ब्याकुल भए।
लोचन सरोरुह स्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥
सरलताक रस मे सानल माताक वाणी सुनि भरतजी व्याकुल भ’ गेलाह। हुनक नेत्र कमल नोर बहाकय हृदयक विरहरूपी नवीन अंकुर केँ सींचय लागल। आँखिक नोर हुनक वियोग-दुःख केँ आरो बढाकय हुनका बेसी व्याकुल कय देलक। हुनकर ओ दशा देखि ताहि समय सब गोटे अपन शरीरक सुधि बिसरि गेलाह। तुलसीदासजी कहैत छथि – स्वाभाविक प्रेम केर सीमा श्री भरतजीक सब गोटे आदरपूर्वक सराहना करय लगलाह।
९. धैर्य केर धुरी केँ धारण करनिहार भरतजी धीरज धयकय, कमलक समान हाथ केँ जोड़िकय, वचन केँ मानू अमृत मे बोरिकय सब केँ उचित उत्तर दियए लगलाह –
गुरुजी हमरा सुन्दर उपदेश देलनि। फेर प्रजा, मंत्री आदि सभक यैह सम्मत अछि। माता सेहो उचित बात बुझाकय आज्ञा देली अछि आर हमहुँ अवश्ये सभक बात माथ पर राखिकय ओहिना करय चाहैत छी। कियैक तँ गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) केर वाणी सुनि प्रसन्न मोन सँ ओकरा नीक बुझिकय करबाके टा चाही। एहि बात मे बेसी उचित-अनुचित के विचार करय लागब त धर्मक हानि होइत छैक आ माथ पर पापक भार चढ़ैत छैक। अपने सब तँ हमरा वैह सरल शिक्षा दय रहल छी जेकर आचरण कयला सँ हमर भलाई होयत। यद्यपि हम एहि बात केँ नीक सँ बुझैत छी, तैयो हमर हृदय केँ संतोष नहि होइत अछि।
आब अपने लोकनि हमर विनती सुनि लिअ आर हमर योग्यताक अनुसार हमरा शिक्षा दिअ। हम उत्तर दय रहल छी, एहि अपराध लेल हमरा क्षमा करी। साधु पुरुष दुःखी मनुष्य केर दोष-गुण केँ नहि गनैत छथि।
पिताजी स्वर्ग मे छथि, श्री सीतारामजी वन मे छथि आर हमरा अपने लोकनि राज्य करय लेल कहि रहल छी। एहिमे अपने सब हमर कल्याण बुझैत छी या अपन कोनो पैघ काज सिद्ध हेबाक आशा रखैत छी? हमर कल्याण त सीतापति श्री रामजीक चाकरी मे अछि, से हमर मायक कुटिलता हमरा सँ छीनि लेलक। हम अपना मोन मे अनुमान कय केँ देखि लेलहुँ जे दोसर कोनो उपाय सँ हमर कल्याण नहि अछि।
ई शोकक समुदाय राज्य लक्ष्मण, श्री रामचंद्रजी और सीताजीक चरण केँ देखने बिना कोन गिनती मे अछि? एकर कि मूल्य आ कि महत्व छैक? जेना कपड़ा बिना गहना बोझब व्यर्थ छैक। वैराग्यक बिना ब्रह्मविचार व्यर्थ छैक। रोगी शरीर लेल नाना प्रकारक भोग व्यर्थ छैक। श्री हरिक भक्ति बिना जप और योग व्यर्थ छैक। जीव के बिना सुन्दर देह व्यर्थ छैक, तहिना श्री रघुनाथजीक बिना हमर सब किछु व्यर्थ अछि।
हमरा आज्ञा दिअ, हम श्री रामजी लग जाय! एकमात्र एहि टा मे हमर हित अछि। आर हमरा राजा बनाकय अपने सब अपन भला चाहैत छी, सेहो अहाँ सब स्नेहक जड़ता (मोह) के वश हेबाक कारण कहि रहल छी।
कैकेइ के पुत्र, कुटिलबुद्धि, रामविमुख आर निर्लज्ज हमरा सन अधम केर राज्य अपने लोकनि मोहवश भ’ कय सुख चाहैत छी। हम सत्य कहैत छी, अपने सब सुनिकय विश्वास करू, धर्मशील मात्र केँ राजा हेबाक चाही। अपने सब हमरा जिद्द कय केँ जेनाही राज्य देब, तखनहि पृथ्वी पाताल मे धँसि जायत।
हमरा समान पापक घर के होयत, जेकरा कारण सीताजी आर श्री रामजी केँ वनवास भेलनि? राजा श्री रामजी केँ वन देलनि आर हुनका बिछुड़िते स्वयं स्वर्ग केँ गमन कयलनि। आर हम दुष्ट, जे अनर्थक कारण छी, होश-हवास मे बैसल सब बात सुनि रहल छी। श्री रघुनाथजी सँ रहित घर केँ देखिकय आ जगत् केर उपहास सहिकय पर्यन्त ई प्राण बनल अछि। एकर यैह कारण अछि जे ई प्राण श्री राम रूपी पवित्र विषय रस मे आसक्त नहि अछि। ई लालची भूमि आर भोगहि टा के भूखल अछि। हम अपन हृदयक कठोरता कतय धरि कहू? जे वज्रहु केँ तिरस्कार कय केँ बड़ाई प्राप्त कयलक अछि।
कारण सँ कार्य कठिने होइत छैक, एहि मे हमर दोष नहि। हड्डी सँ वज्र आर पत्थर सँ लोहा भयानक आर कठोर होइत छैक। कैकेयी सँ उत्पन्न देह मे प्रेम करयवला ई पामर प्राण बिल्कुले अभागल अछि। जखन प्रिय केर वियोग मे हमर प्राण प्रिय लागि रहल अछि तखन आगू हम आरो बहुतो किछु देखब आ सुनब।
लक्ष्मण, श्री रामजी और सीताजी केँ त वन देलनि, स्वर्ग पठाकय पतिक कल्याण कयलनि, स्वयं विधवापन और अपयश लेलनि, प्रजा केँ शोक आर संताप देलनि, आर हमरा सुख, सुन्दर यश और उत्तम राज्य देलनि! कैकेइ सभक काज बना देलनि! एहि सँ नीक हमरा लेल आर कि होयत? ताहि पर अपने सब हमरा राजतिलक देबाक बात कहैत छी!
कैकेइ केर पेट सँ जगत् मे जन्म लय कय ई हमरा कनिको अनुचित नहि अछि। हमर त सब बात विधाते बना देलनि अछि। फेर ओहि मे प्रजा आ पंच अपने लोकनि कियैक सहायता कय रहल छी?
जेकरा कुग्रह लागल अछि अथवा जे पिशाचग्रस्त अछि, फेर जे वायुरोग सँ पीड़ित हुए आर ओकरे बिच्छू सेहो काटि लेतैक, ओकरे मदिरा पिआयल जाय, त कहू ई केहेन इलाज थिक!
कैकेइ केर बेटा लेल संसार मे जे किछ योग्य छल, चतुर विधाता वैह सब हमरा देलनि। मुदा ‘दशरथजीक पुत्र’ आर ‘रामक छोट भाइ’ हेबाक बड़ाई हमरा विधाता व्यर्थहि देलनि। अपने सब कियो हमरा टीका लगाबय लेल कहि रहल छी! राजाक आज्ञा सभक लेल नीक अछि। हम केना-केना आ केकरा-केकरा कोन-कोन तरहें उत्तर दी? जिनकर जेहेन रुचि हो, अपने सब सुखपूर्वक वैह कहू।
हमर कुमाता कैकेइ समेत हमरा छोड़िकय, कहू आर के कहत जे ई नीक काज कयल गेल? जड़-चेतन जगत् मे हमरा सिवाय आर के अछि जेकरा श्री सीता-रामजी प्राणक समान प्यारा नहि होइथ? जे परम हानि अछि, ताहि मे सब गोटे केँ बड़का लाभ देखा रहल अछि। हमर खराब दिन अछि से केकरो दोष नहि। अपने सब जे किछु कहैत छी से सबटा उचिते अछि, कियैक त अपने लोकनि संशय, शील आ प्रेमक वश मे छी।
श्री रामचंद्रजीक माता बहुते सरल हृदय के छथि आर हमरा पर हुनकर विशेष प्रेम छन्हि, ताहि लेल हमर दीनता देखिकय ओ स्वाभाविक स्नेहवश एना कहि रहली अछि।
गुरुजी ज्ञान के समुद्र छथि, ई बात पूरे संसार केँ पता छैक, जेकरा लेल विश्व हथेली पर राखल बेर के समान अछि अछि, ओहो हमरा लेल राजतिलक के साज सजा रहला अछि। सत्य छैक, विधाताक विपरीत भेला पर सब कियो विपरीत भ’ जाइत छथि।
श्री रामचंद्रजी और सीताजी केँ छोड़िकय जगत् मे कियो ई नहि कहत जे एहि अनर्थ मे हमर सम्मति नहि अछि। हम से सुखपूर्वक सुनब आ सहब, कियैक तँ जतय पानि होइत छैक, ओतय अन्त मे थाल होइते टा छैक। हमरा एकर कोनो डर नहि अछि जे जगत् हमरा खराब कहत आर नहिये हमरा परलोकहि केर सोच अछि। हमर हृदय मे त बस एक्कहि टा दुःसह दावानल धधकि रहल अछि जे हमरा कारण श्री सीता-रामजी दुःखी भेलथि।
जीवनक उत्तम लाभ त लक्ष्मण पेलक, जे सब किछु तजिकय श्री रामजीक चरण मे मन लगेलथि। हमर जन्म त श्री रामजीक वनवासहि लेल भेल छल। हम अभागा झूठ-मूठ कि पछताइत छी? सब गोटे केँ माथ झुकाकय हम अपन दारुण दीनता कहैत छी। श्री रघुनाथजीक चरणक दर्शन कएने बिना हमर जी के जलन नहि जायत। हमरा दोसर कोनो उपाय नहि सूझैत अछि। श्री राम के बिना हमर हृदयक बात के जानि सकैत अछि? मोन मे एक्के टा निश्चय अछि जे प्रातःकाल श्री रामजी लग जाय वास्ते चलि पड़ब।
यद्यपि हम खराब छी आ अपराधी छी आर हमरहि कारण ई सबटा उपद्रव भेल अछि, तैयो श्री रामजी हमरा शरण मे सम्मुख आयल देखिकय सबटा अपराध क्षमा कय केँ हमरा पर विशेष कृपा अवश्य करता। श्री रघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल स्वभाव, कृपा और स्नेह केर घर छथि। श्री रामजी कहियो शत्रुअहु केर अनिष्ट नहि कयलनि। हम यद्यपि टेढ़ छी, मुदा छी त हुनकर बच्चा आ गुलामे। अपने पंच सब सेहो एहि मे हमर कल्याण मानिकय सुन्दर वाणी सँ आज्ञा आ आशीर्वाद दिअ, जाहि सँ हमर विनती सुनिकय आर हमरा अपन दास बुझिकय श्री रामचन्द्रजी राजधानी केँ लौटि आबथि। यद्यपि हमर जन्म कुमाता सँ भेल अछि आर हम दुष्ट तथा सदा दोषयुक्त सेहो छी, तैयो हमरा श्री रामजी पर भरोसा अछि जे ओ हमरा अपन जानिकय त्याग नहि करता।
१०. भरतजीक वचन सब केँ बहुत प्रिय लगलनि। मानू ओ श्री रामजीक प्रेमरूपी अमृतक पाक मे पाकल छल। श्री रामवियोग रूपी भीषण विष सँ सब लोक जरल रहथि। से बुझू जेना बीज सहित मंत्र सब सुनिते जागि उठलाह। माता, मंत्री, गुरु, नगर केर स्त्री-पुरुष सब स्नेहक कारण बहुते व्याकुल भ’ गेलथि। सब गोटे भरतजी केँ सराहि-सराहिकय कहैत छथि जे अहाँक शरीर श्री रामप्रेम केर साक्षात मूर्ति टा छी। हे तात भरत! अहाँ एना कियैक न कहब! श्री रामजी केँ अहाँ प्राणक समान प्रिय छियनि। जे नीच अपन मूर्खता सँ अहाँक माता कैकेइ केर कुटिलता केँ लयकय अहाँ पर सन्देह करता, ओ दुष्ट करोड़ों पुरखा सहित सौ कल्प धरि नरक के घर मे निवास करता। साँप पाप आर अवगुणक मणि नहि ग्रहण करैछ, बल्कि ओहि विष केँ हरि लैत अछि आर दुःख तथा दरिद्रता केँ भस्म कय दैत अछि। हे भरतजी! वन केँ अवश्य चलू, जतय श्री रामजी छथि, अहाँ बहुत नीक सलाह विचारलहुँ अछि। शोक समुद्र मे डूबैत सब लोक केँ अहाँ बड पैघ सहारा देलहुँ अछि।
११. सभक मोन मे कम आनन्द नहि छैक! मानू मेघक गर्जना सुनिकय चातक आ मयूर आनन्दित भ’ रहल हुए तेहेन आनन्द सभक मोन मे छैक। दोसर दिन भोरे चलबाक सुन्दर निर्णय सुनिकय भरतजी सभक प्राणप्रिय भ’ गेलाह। मुनि वशिष्ठजीक वन्दना कयकेँ आर भरतजी केँ सिर नमाकय, सब लोक विदाई लयकय अपन-अपन घर लेल चलि पड़लाह।
१२. जगत मे भरतजीक जीवन धन्य अछि, एहि तरहें सब गोटे हुनकर शील आ स्नेहक सराहना करैत जा रहल छथि। आपस मे कहैत छथि जे बड पैघ काज भेल। सब चलबाक तैयार करय लगलाह। जेकरा घरक रखवाली लेल घरहि पर रहय लेल कहल जाइछ ओ बुझू अपना केँ अभागल बुझय लगैत अछि। कियो-कियो कहैत छैक – रहबाक लेल केकरो नहि कहू, जगत मे जीवनक लाभ के नहि चाहैत अछि?
हरिः हरः!!