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रामचरितमानस मोतीः भरत-कौसल्या संवाद और दशरथजीक अन्त्येष्टि क्रिया

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

भरत-कौसल्या संवाद और दशरथजीक अन्त्येष्टि क्रिया

१. कौसल्याजी मैल वस्त्र पहिरने छथि, चेहराक रंग बदलल छन्हि, व्याकुल भ’ रहल छथि, दुःखक बोझ सँ शरीर सुखा गेल छन्हि। एना देखाइत छथि जेना सोनाक सुन्दर कल्पलताक वन मे पाला मारि देने होइक। भरत केँ देखिते माता कौसल्याजी उठि दौड़लीह। लेकिन चक्कर आबि जेबाक कारण मूर्च्छित भ’ कय पृथ्वी पर खसि पड़लीह।

२. ई देखिते भरतजी बहुत व्याकुल भ’ गेलाह आ शरीरक सुधि बिसरि हुनक चरण मे खसि पड़लाह। ओ बजलाह – माता! पिताजी कतय छथि? हुनका देखा दिअ। सीताजी आ हमर दुनू भाइ श्री राम-लक्ष्मण कतय छथि? हुनको देखा दिअ। कैकेइ एहि जगत मे कियैक जन्म लेलीह! जँ जन्मे लेलीह त फेर बाँझ कियैक नहि भेलीह? जे कुल केँ कलंक, अपयश केर भाँड आर प्रियजन केर द्रोही हमरा जेहेन पुत्र केँ उत्पन्न कयलीह। तीनू लोक मे हमर समान अभागा के अछि? जेकरा कारण हे माता! अहाँक ई दशा भेल! पिताजी स्वर्ग मे छथि आर श्री रामजी वन मे छथि। केतु के समान केवल हमहीं टा एहि सब अनर्थक कारण छी। हमरा धिक्कार अछि। हम बाँस केर वन मे आगि उत्पन्न भेलहुँ आर कठिन दाह, दुःख एवं दोष केर भागी बनलहुँ।

३. भरतजीक कोमल वचन सुनिकय माता कौसल्याजी फेर सम्हरिकय उठलीह। ओ भरत केँ उठाकय छाती सँ लगा लेलीह आर नेत्र सँ नोर बहाबय लगलीह। सरल स्वभाव वाली माता बड़ा प्रेम सँ भरतजी केँ छाती सँ लगा लेलीह, मानू श्री रामजी स्वयं लौटिकय आबि गेल होइथ। फेर लक्ष्मणजीक छोट भाइ शत्रुघ्न केँ हृदय सँ लगेलीह। शोक और स्नेह हृदय मे समाइत नहि अछि। कौसल्याजीक स्वभाव देखि सब कियो कहि रहल अछि – श्री राम केर माताक एहेन स्वभाव कियैक नहि हो!

४. माता भरतजी केँ कोरा मे बैसा लेलनि आर हुनकर नोर पोछि कोमल वचन बजलीह –

“हे वत्स! हम बलैया लैत छी। अहाँ आबो धीरज धरू। खराब समय बुझि शोक त्यागि दिअ। काल आ कर्म केर गति अमिट बुझि हृदय मे हानि आ ग्लानि जुनि करू। हे तात! केकरो कोनो दोष नहि दिअ। विधाता हमरा लेल सब प्रकारे उलटा भ’ गेला अछि, जे एतेक दुःखो पर हमरा जिया रहल छथि। आबो के जनैत अछि, हुनका कि नीक लागि रहल छन्हि?”

“हे तात! पिताक आज्ञा सँ श्री रघुवीर भूषण-वस्त्र त्यागि देलनि आर वल्कल वस्त्र पहिरि लेलनि। हुनकर हृदय मे न कोनो विषाद रहनि, नहिये हर्ष! हुनकर मुख प्रसन्न रहन्हि, मोन मे न आसक्ति रहनि आ न रोष (द्वेष)। सभक सब तरहें सन्तोष कराकय ओ वन लेल चलि गेलाह। ई सुनिकय सीता सेहो हुनके संग लागि गेलीह। श्री राम केर चरणक अनुरागिणी ओ कोनो तरहें नहि रहलीह।”

“सुनिते लक्ष्मण सेहो संग उठि चलि गेलाह। श्री रघुनाथ हुनका रोकबाक बहुते यत्न कयलनि, मुदा ओ नहि रुकलाह। तखन श्री रघुनाथजी सबकेँ माथ नमाकय सीता आ छोट भाइ लक्ष्मण केँ संग लयकय चलि गेलाह। श्री राम, लक्ष्मण और सीता वन केँ चलि गेलाह।”

“हम नहिये संग गेलहुँ आ न हम अपन प्राण हुनका संग पठा सकलहुँ। ई सबटा एहि आँखिक सामने भेल, तैयो ई अभागल जीव शरीर नहि छोड़लक। अपन स्नेह दिश देखिकय हमरा लाजो नहि अबैछ; राम जेहेन पुत्रक हम माता! जिनाय आ मरनाय त राजा खूब बुझलनि। हमर हृदय त सैकड़ों वज्र समान कठोर अछि।”

५. कौसल्याजीक वचन सब सुनि भरत सहित समस्त रनिवास व्याकुल भ’ विलाप करय लागल। राजमहल मानू शोक केर निवास बनि गेल। भरत, शत्रुघ्न दुनू भाइ विकल भ’ कय विलाप करय लगलाह। तखन कौसल्याजी हुनका सब केँ हृदय सँ लगा लेलीह। अनेकों प्रकार सँ भरतजी केँ बुझेलीह आ बहुतो प्रकारक विवेक सँ भरल बात सब हुनका लोकनि केँ सुनौलीह।

६. भरतजी सेहो सब माता लोकनि केँ पुराण आ वेद केर सुन्दर कथा सब कहिकय बुझौलनि। दुनू हाथ जोड़िकय भरतजी छलरहित, पवित्र आ सीधा सुन्दर वाणी बजलाह –

“जे पाप माता-पिता आर पुत्र केँ मारला सँ होइत छैक आ जे गोशाला व ब्राह्मणक नगर जरेला सँ होइत छैक, जे पाप स्त्री आ बालकक हत्या कयला सँ होइत छैक आ जे मित्र व राजा केँ जहर देला सँ होइत छैक – कर्म, वचन आर मन सँ होयवला जतेक पातक एवं उपपातक (पैघ-छोट पाप सब) छैक, जेकरा कवि सब कहल करैत छथि, हे विधाता! जँ एहि काज मे हमर मत (मति) हुए त हे माता! ओ सब पाप हमरे लागय।”

“जे लोक श्री हरि और श्री शंकरजीक चरण केँ छोड़िकय भयानक भूत-प्रेत केँ भजैत अछि, हे माता! यदि एहि मे हमर मत हुए त विधाता हमरो वएह गति देथि।”

“जे लोक वेद केँ बेचैत अछि, धर्म केँ दुहि लैत अछि, चुगलखोर अछि, दोसरक पाप केँ कहि देल करैत अछि, जे कपटी, कुटिल, कलहप्रिय आर क्रोधी अछि तथा जे वेदक निन्दा करयवला आर विश्वभरि के विरोधी अछि, जे लोभी, लम्पट और लालचीक आचरण करयवला अछि, जे पराया धन और पराई स्त्रीक ताक मे रहैत अछि, हे जननी! जँ एहि काज मे हमर सम्मति हुए त हम ओहि भयानक गति केँ पाबी।”

“जेकर सत्संग मे प्रेम नहि छैक, जे अभागा परमार्थक मार्ग सँ विमुख अछि, जे मनुष्य शरीर पाबिकय श्री हरि केर भजन नहि करैत अछि, जेकरा हरि-हर (भगवान विष्णु और शंकरजी) केर सुयश नहि सोहाइत अछि, जे वेद मार्ग केँ छोड़िकय वाम (वेद प्रतिकूल) मार्ग पर चलैत अछि, जे ठग अछि आर वेष बनाकय जगत केँ छलैत अछि, हे माता! जँ हम एहि भेद केँ जनितो होय त शंकरजी हमरा एहि लोक सभक गति देथि।”

७. माता कौसल्याजी भरतजीक स्वाभाविक सच आ सरल वचन सुनि कहय लगलीह –

“हे तात! अहाँ त मन, वचन और शरीर सँ सदिखन श्री रामचन्द्र केर प्रिय थिकहुँ, श्री राम अहाँ केँ प्राणहु सँ बढ़िकय प्राण (प्रिय) छथि आर अहाँ सेहो श्री रघुनाथक प्राणहु सँ बढ़िकय प्रिय छी।”

“चन्द्रमा चाहे विष चुआबय लागय आर पाला बरसाबय लागय, जलचर जीव जल सँ विरक्त भ’ जाय, आर ज्ञान भ’ गेला पर चाहे मोह नहि मेटाय, मुदा अहाँ श्री रामचन्द्र केर प्रतिकूल कहियो नहि भ’ सकैत छी।”

“एहि मे अहाँक सम्मति अछि, जगत मे जे कियो एना कहैत अछि, ओ स्वप्नहुँ मे सुख आर शुभ गति नहि पायत।”

एना कहिकय माता कौसल्या भरतजी केँ हृदय सँ लगा लेलीह। हुनक स्तन सँ दूध बहय लगलनि आर नेत्र मे प्रेमक नोर केर जल भरि गेलनि।

८. एहि तरहें बहुते विलाप करैत पूरे राति बैसले बीति गेलैक। तखन वामदेवजी और वशिष्ठजी अयलाह। ओ लोकनि सब मंत्रीगण तथा महाजन लोकनि केँ बजौलनि। फेर मुनि वशिष्ठजी परमार्थ केर सुन्दर समयानुकूल वचन कहिकय बहुतो प्रकार सँ भरतजी केँ उपदेश देलनि।

हरिः हरः!!

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