“आस्थाक प्रत्येक पाबनिमे आब आडम्बरक प्रवेश भ’ गेल अछि।”

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— कीर्ति नारायण झा।     

आस्था आ आडम्बर के बीच अओंनाइत आम जन केर मोन- “मुला मुनारे क्या चढहि, अला न बहिरा होइ। जेहि कारण तू बांग दे, सो दिल ही भीतर जोइ।।” कवीर दास केर इ पांती अत्यंत प्रासंगिक अछि जकर भावार्थ छैक जे उँच मीनार पर चढि कऽ जोर-जोर सँ अल्ला – अल्ला चिचिएला सँ किछु नहि होइत छैक कारण भगवान बहीर नहिं छैथि तें जोर सँ चिचिएवाक कोनो आवश्यकता नहिं कारण जे भगवान तऽ सभक हृदय में बास करैत छथिन्ह। आस्था पर आडंबर आब हावी भऽ गेल छैक। आब लोक हृदय सँ पूजा करवा सँ बेसी भगवानक मूर्ति के सजेवा में, रंग बिरंग के श्रृंगार, गाना बजाना आ भगवानक संग सेल्फी लेवा में बेसी रूचि देखवैत छैथि। भगवान तऽ निराकार होइत छैथि मुदा सनातन धर्म में सभ देवी देवता के मूर्ति के रूप में देखाओल गेल अछि जाहि सँ भक्ति के भगवान केर प्रति श्रद्धा बढि सकय। मुदा भक्ति के इ कथमपि अर्थ नहिं होइत छैक जे रंग बिरंग केर डीजे के उच्च स्वर सँ पूजा स्थल के कोनो महफिल बनेवाक प्रयास कयल जाए। हमरा लोकनि देखैत छी जे विधिवत मंत्र द्वारा पूजा करवाक प्रथा में दिनानुदिन कमी आबि रहल अछि आ जाहि ठाम मंत्रोच्चार केर संग पूजा होइतो छैक ओहि ठाम माइक लगा कऽ गामक लोक सभके सुनेवाक बेसी आकांक्षा रहैत छैक। गामक लोक सभ सेहो पूजा के नाम पर मात्र पुरोहित द्वारा मंत्रोचार के अपन समस्त पूजा मानि लैत छैथि। आस्था केर असली अर्थ होइत छैक अपन आराध्य के प्रति सम्पूर्ण विश्वास जे ओकरा सदैव सकारात्मक उर्जा प्रदान करैत छैक। आस्था केर दोसर नाम विश्वास थिकै जे मृत्यु के मुँह सँ प्राणी के बाहर निकालि दैत छैक ओकरा सदैव इ विश्वास रहैत छैक जे हमरा संगे कोनो अप्रिय घटना नहिं घटत। आस्था के अर्थ इ नहिं होइत छैक जे अमुक काज करू तऽ भगवान प्रसन्न भऽ जएताह आ अहाँ धन धान्य सँ परिपूर्ण भऽ जायव। आस्था केर सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप सँ कर्म सँ होइत छैक, जे प्राणी जेहेन कर्म करैत अछि ओकरा ओहने फल भेटैत छैक।आस्था एकटा विज्ञानक दोसर रूप अछि, अर्थात् विशेष ज्ञान रूपी आस्था सँ आदमी जीवन भरि संतुष्ट रहि कऽ अपन जीवन यापन करैत छैथि। आस्था जखन आडम्बर आ राजनीति जखन भ्रष्ट भऽ जाइत छैक तऽ समाज आगू बढवाक बदले में पाछू भेल जाइत छैक। आस्था के कोनो पाबनि में जखन आडम्बर हावी भऽ जाइत छैक तऽ आस्ते आस्ते लोक आस्था सँ दूर भेल जाइत अछि आ मात्र रहि जाइत छैक देखावा जे एहि दुनिया के तेसर आँखि के कथमपि नीक नहिं लगैत छैन्ह।समाज के बिकृत स्वभाव के लोक आस्था के आडंबर में परिवर्तित कऽ देलन्हि जकरा आस्ते आस्ते अपन सभक बहुतायत समाज ओकरा उचित बूझय लागल आ ओहि ठाम सँ आरम्भ भेल आस्था के पतन आ आस्था जे विश्वासक नाम छल आब ओ मौद्रिक चकाचौंध में अपन अस्तित्व के बिसरल गेल आ आब ओकर स्थिति बद सँ बदतर भेल जाइत छैक। एकरा एकाएक परिवर्तित नहिं कयल जा सकैत अछि। एकरा लेल हमरा सभ के मिलि कऽ आस्था के असली अर्थ आ ओकर स्वरूप के विषय में अपन परिवार, घर आ समाज के शिक्षित करय पड़त आ तखने हमरा लोकनि आडम्बररहित आस्था केर परिकल्पना कऽ सकैत छी!