स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक
१. बाजार आ रास्ता देखल नहि जाइछ, मानू नगर मे दसों दिशा मे दावाग्नि लागल रहय! पुत्रक अबाय सुनिकय सूर्यकुलरूपी कमल लेल चाँदनीरूपी कैकेइ बहुत हर्षित भेलीह। ओ आरती सजा आनन्द सँ भरल उठिकय दौड़लीह आ दरबज्जे पर भेटिकय भरत-शत्रुघ्न केँ महल मे लय अनलीह।
२. भरत सारा परिवार केँ दुःखी देखलनि, मानू कमल केर वन केँ पाला मारि गेल हो। एकटा कैकेइ मात्र एना हर्षित देखाइत छथि मानू भीलनी जंगल मे आगि लगाकय आनन्द सँ भरि रहल हो। पुत्र केँ सोचक वश आर मन बहुते उदास देखिकय ओ पुछय लगलीह – “हमर नैहर मे सब कियो कुशल त अछि?”
३. भरतजी सभक कुशल कहि सुनौलनि। फेर अपन कुल केर कुशल-क्षेम ओ पुछलनि। भरतजी पुछलखिन – “कहू, पिताजी कतय छथि? हमर सब माय लोकनि कतय छथि? सीताजी आ हमर प्रिया भाइ राम-लक्ष्मण कतय छथि?”
४. पुत्र केर स्नेहमय वचन सुनि नेत्र मे कपट केर जल भरिकय पापिनी कैकेइ भरत केर कान मे आर मन मे शूल जेकाँ चुभयवला बोल बजलीह – “हे तात! हम सब बात लेने रही। बेचारी मंथरा सहायक बनल। मुदा विधाता बीच मे कनि टा काज बिगाड़ि देलनि। ओ ई जे राजा देवलोक केँ पधारि गेलाह।”
५. भरत ई सुनिते विषादक मारे विवश (बेहाल) भ’ गेलाह। मानू सिंह केर गर्जना सुनि हाथी सहमि गेल। ओ ‘तात! तात! हा तात!’ बजैत-चिकरैत अत्यन्त व्याकुल भ’ जमीन पर खसि पड़लाह। ओ विलाप करय लगलाह – हे तात! हम अहाँ केँ स्वर्ग लेल जाइत समय देखियो नहि सकलहुँ। हाय! अहाँ हमरा श्री रामजी केँ सौंपियो नहि गेलहुँ। फेर धीरज धय ओ सम्हरिकय उठलाह आ बजलाह – माता! पिताक मरबाक कारण त बताउ!
६. पुत्रक वचन सुनि कैकेइ कहय लगलीह – मानू मर्म स्थान केँ पाचिकय ओहि मे जहर भरि रहल होइथ। कुटिल आ कठोर कैकेइ अपन सब करनी शुरू सँ अन्त धरि खूब प्रसन्न मन सँ सुना देलीह।
७. श्री रामचन्द्रजीक वन जेबाक बात सुनिकय भरतजी केँ पिताक मरण सेहो बिसरा गेलनि आ हृदय मे ई सबटा अनर्थक कारण अपने केँ जानि ओ मौन भ’ स्तम्भित रहि गेलाह। हुनकर बोली बन्द भ’ गेल आ ओ सन्न रहि गेलथि।
८. पुत्र केँ व्याकुल देखि कैकेइ बुझबय लगलीह। मानू जरल पर नून छीटि रहल छलीह। ओ कहली – हे तात! राजा सोच करय योग्य नहि छथि। ओ पुण्य आर यश कमाकय ओकर पर्याप्त भोग कयलनि। जीवनकालहि मे ओ जन्म लेबाक सम्पूर्ण फल पाबि लेलनि आर अन्त मे ओ इन्द्रलोक केँ चलि गेलाह। एना विचारिकय सोच छोड़ि दिअ आर समाज सहित नगर के राज्य करू।
९. राजकुमार भरतजी ई सुनिकय एकदम सहमि गेलाह। मानू पाकल घाव पर आइग पड़ि गेल हो। ओ धीरज धय लम्बा साँस लैत कहलखिन –
“पापिनी! तूँ सब तरह सँ कुल केँ नाश कय देलें। हाय! जँ तोहर एहने खराब रुचि (दुष्ट इच्छा) रहौक त तूँ जन्म लिते हमरा मारि कियैक नहि देलें?”
“तूँ गाछ काटिकय पत्ता केँ सींचि रहल छँ आ मछरी के जिबय लेल पानि केँ उझलि रहल छँ। हमर हित करय लेल जाय केँ उल्टा तूँ हमर अहित कय देलें।”
“हमरा सूर्यवंश सन वंश, दशरथजी समान पिता आर राम-लक्ष्मण सन भाइ भेटल। मुदा हे जननी! हमरा जन्म दयवाली माता तूँ भेलें! कि कयल जाय! विधाताक आगू कोनो वश नहि चलैछ।”
“अरे कुमति! जखन तूँ हृदय मे ई खराब विचार (निश्चय) ठनलें, ताहि समय तोहर हृदय केर टुकड़ा-टुकड़ा कियैक नहि भ’ गेलौक? वरदान मांगैत समय तोहर मोन मे कनिकबो पीड़ा नहि भेलौक? तोहर जीभ गलि नहि गेलौक? तोहर मुंह मे कीड़ा नहि पड़लौक?”
“राजा तोहर विश्वास केना कय लेलनि? बुझि पड़ैत अछि, विधाता मरबाक समय हुनकर बुद्धि हरि लेने रहथि।”
“स्त्रीक हृदयक गति विधाता सेहो नहि जानि सकलाह। ओ सम्पूर्ण कपट, पाप आ अवगुण केर खान अछि। फेर राजा त सीधा, सुशील और धर्मपरायण रहथि। ओ भला, स्त्री स्वभाव केँ केना जनितथि?”
“अरे, जगत केर जीव-जन्तु सब मे एहेन के अछि जेकरा श्री रघुनाथजी प्राणक समान प्यारा नहि छथि। ओ श्री रामजी सेहो तोरा अहित भ’ गेलखुन, वैरी बुझेलखुन।”
“तूँ के थिकेँ? हमरा सच-सच कह! तूँ जे थिकेँ, से रह, आब मुंह मे कारी पोतिकय उठिकय हमर आँखि सँ ओझल भ’ जो।”
“विधाता हमरा श्री रामजी सँ विरोध करयवाली तोहर हृदय सँ उत्पन्न कयलनि, विधाता हमरा हृदय सँ राम के विरोधी देखार कय देलनि। हमरा समान पापी दोसर के अछि? हम बेकारे तोरा किछु कहैत छी!”
१०. माताक कुटिलता सुनि शत्रुघ्नजीक सब अंग क्रोध सँ जरि रहल छन्हि, मुदा किछु वश नहि चलैत छन्हि। ताहि समय भाँति-भाँति के कपड़ा आ गहना सँ सजिकय कुबरी मन्थरा ओतय आबि गेल। ओकरा सजल-धजल देखि लक्ष्मणजीक छोट भाइ शत्रुघ्नजी क्रोध मे भरि गेलाह। मानू जरैत आगि मे घी केर आहुति पड़ि गेल हो। ओ कुबड़ी पर खूब जोर सँ एक लात जमा देलनि। ओ चिकरैत-भोकरैत मुंहक बल जमीन पर खसि पड़ल। ओकर कूबड़ टुटि गेलैक, कपार फुटि गेलैक, दाँत टुटि गेलैक आ मुंह सँ खून बहय लगलैक। ओ कुहरैत बाजल – हाय दैव! हम कि बिगाड़लहुँ? जे भला करैत अछि वैह खराब फल भोगैत अछि। ओकर ई बात सुनिकय आ ओकरा नख सँ शिखा धरि दुष्ट जानिकय शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़ि-पकड़ि ओकरा लिर्हियाबय लगलाह। तखन दयानिधि भरतजी ओकरा छोड़ा देलनि आ दुनू तुरन्त कौसल्याजी लग गेलाह।
हरिः हरः!!