स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
मुनि वशिष्ठ द्वारा भरतजी केँ बजेबाक लेल दूत पठेनाय
१. राजा दशरथक प्राणान्त आ शोक-विरह सँ व्याप्त अयोध्याक राजमहल मे गुरु वशिष्ठ मुनि समय अनुकूल अनेक इतिहास कहिकय अपन विज्ञानक प्रकाश सँ सभक शोक दूर कयलनि। वशिष्ठजी नाव मे तेल भरबाकय राजाक शरीर केँ ओहि मे रखबा देलनि। फेर दूत केँ बजाकय हुनका सँ एना कहलनि –
“अहाँ सब जल्दी दौड़िकय भरत ल’ग जाउ, राजाक मृत्युक समाचार कतहु केकरो सँ नहि कहब। जाकय भरत सँ एतबे कहब जे दुनू भाइ केँ गुरुजी बुलावा पठौलनि अछि।”
मुनिक आज्ञा सुनिकय धावन दूत दौड़ि पड़ल। ओ अपन वेग सँ उत्तम घोड़ो केँ लजबैत बढि चलल।
२. जहिया सँ अयोध्या मे अनर्थ प्रारंभ भेल, तहिये सँ भरतजी केँ अपशकुन होबय लागल छलन्हि। ओ राति केँ भयंकर स्वप्न देखैत रहथि आर जगला पर ओहि स्वप्न सभक कारण करोड़ों प्रकारक खराब-खराब कल्पना सब कयल करथि। अनिष्टशान्तिक लेल ओ प्रतिदिन ब्राह्मण सब केँ भोजन कराकय दान देल करथि। अनेकों विधि सँ रुद्राभिषेक कयल करथि। महादेवजी केँ हृदय मे मनबैत हुनका सँ माता-पिता, कुटुम्बी आ भाइ लोकनिक कुशल-क्षेम मांगल करथि।
३. भरतजी एहि प्रकारे मोन मे चिन्ता कय रहल छलथि ताबत दूत पहुँचि गेल। गुरुजीक आज्ञा कान सँ सुनिते ओ गणेशजी केँ मनाकय चलि पड़लथि। हवाक समान वेगवान घोड़ा केँ हाँकैत ओ विकट नदी, पहाड़ आ जंगल सब लाँघैत चलि देलनि।
४. हुनकर हृदय मे भारी सोच रहनि, किछुओ नीक नहि लागि रहल छलन्हि। मोन मे एना सोचथि जे उड़िकय पहुँचि जाय। एक-एक निमेष वर्ष समान बीति रहल छल। एहि प्रकारे भरतजी नगर के निकट पहुँचलाह।
५. नगर मे प्रवेश करैत समय अपशकुन होबय लगलनि। कौआ खराब स्थान पर बैसिकय खराब तरीका सँ काँव-काँव कय रहल छल। गदहा आर सियार विपरीत बाजि रहल छल। ई सुनि-सुनिकय भरतक मोन मे बड़ा भारी पीड़ा भ’ रहल छन्हि।
६. पोखरि, नदी, वन, बगीचा सबटा शोभाहीन भ’ रहल अछि। नगर बहुते भयानक लागि रहल अछि। श्री रामजीक वियोगरूपी खराब रोग सँ सतायल पक्षी-पशु, घोड़ा-हाथी एना दुःखी भ’ रहल अछि जे देखल नहि जाइत अछि। नगर केर स्त्री-पुरुष अत्यन्त दुःखी भ’ रहल छथि। मानू सब अपन सबटा सम्पत्ति हारि बैसल हो! नगरक लोक भेटैत छथि, मुदा किछु कहैत नहि छथि, चुपेचाप जोहार (वन्दना) कयकेँ चलि जाइत छथि। भरतजी सेहो केकरो सँ कुशल नहि पुछि सकैत छथि, कियैक तँ हुनकर मोन मे भय आ विषाद घर कय लेने छन्हि।
हरिः हरः!!