रामचरितमानस मोतीः दशरथ-सुमंत्र संवाद – दशरथ मरण

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण

१. महारानी कौसल्याक दरबार मे मंत्री सुमंत्र राजा दशरथ केँ देखि ‘जयजीव’ कहिकय दण्डवत्‌ प्रणाम कयलनि। सुनिते राजा व्याकुल भ’ कय उठलथि आ कहला –

“सुमंत्र! कहू, राम कतय छथि?”

राजा सुमंत्र केँ हृदय सँ लगा लेलनि। मानू डूबैत आदमी केँ किछु सहारा भेटि गेल हो। मंत्री केँ स्नेह संग ल’ग मे बैसाकय नेत्र मे जल भरल राजा पुछय लगलाह –

“हे हमर प्रेमी सखा! श्री राम के कुशलता कहू। कहू, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कतय छथि? हुनका घुरा अनलहुँ या ओ वन केँ चलि गेलाह?”

ई सुनिते मंत्रीक नेत्र सेहो भरि गेलनि। शोक सँ व्याकुल राजा फेर पुछय लगलाह – सीता, राम और लक्ष्मण केर संदेसा त कहू।

२. श्री रामचन्द्रजीक रूप, गुण, शील आर स्वभाव केँ याद कय-कयकेँ राजा हृदय मे सोच करैत छथि आर कहैत छथि –

“हम राजा होयबाक बात सुनाकय वनवास दय देलियनि, ई सुनियोकय जाहि राम केर मोन मे हर्ष आ विषाद नहि भेलन्हि, एहेन पुत्र केर बिछुड़िते हमर प्राण नहि गेल, तखन हमरा समान भारी पापी के होयत? हे सखा! श्री राम, जानकी और लक्ष्मण जतय छथि, हमरो ओतहि पहुँचा दिअ। नहि त हम सत्य भाव सँ कहैत छी जे हमर प्राण आब चलय नहि चाहैत अछि।”

राजा बेर-बेर मंत्री सँ पुछैत छथि –

“हमर प्रियतम पुत्र लोकनिक संदेसा सुनाउ। हे सखा! अहाँ तुरन्त एहेन उपाय करू जाहि सँ श्री राम, लक्ष्मण आर सीता केँ हमरा आँखि सँ देखा सकी।”

३. मंत्री धीरज धयकय कोमल वाणी मे कहलखिन –

“महाराज! अपने पंडित एवं ज्ञानी छी। हे देव! अपने शूरवीर आ उत्तम धैर्यवान पुरुष लोकनि मे श्रेष्ठ छी। अपने सदैव साधु सभक समाज केर सेवा कयलहुँ अछि। जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्रियजनक मिलन-बिछुड़न, ई सब हे स्वामी! काल आर कर्म केर अधीन राति और दिन जेकाँ बरबस होइत रहैत छैक। मूर्ख लोक सुख मे हर्षित होइछ आर दुःख मे कनैत अछि, मुदा धीर पुरुष अपन मोन मे दुनू केँ समान बुझैत अछि। हे सभक हितकारी रक्षक! अपने विवेक विचारिकय धीरज धरू आ शोक केर परित्याग करू।”

“श्री रामजीक पहिल निवास तमसा नदीक तट पर भेलनि, दोसर गंगातीर पर। सीताजी सहित दुनू भाइ ओहि दिन स्नान कय मात्र जल टा पीबिकय रहलथि। केवट (निषादराज) बहुते सेवा कयलखिन। ओ राति सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) मे बितेलनि। दोसर दिन भोर होइते बड़गद गाछक दूध मंगबौलनि आ ओहि सँ श्री राम-लक्ष्मण अपन माथ पर जटा सँ मुकुट बनौलनि। तखन श्री रामचन्द्रजीक सखा निषादराज नाव मंगबौलनि। पहिने प्रिया सीताजी केँ ताहिपर चढ़ाकय फेर श्री रघुनाथजी चढ़लथि। फेर लक्ष्मणजी धनुष-बाण सजाकय रखलथि आर प्रभु श्री रामचन्द्रजीक आज्ञा पाबिकय स्वयं चढ़लथि।”

“हमरा व्याकुल देखिकय श्री रामचन्द्रजी धीरज पूर्वक मधुर वचन बजलाह – हे तात! पिताजी सँ हमर प्रणाम कहबनि आ हमरा दिश सँ बेर-बेर हुनकर चरणकमल पकड़बनि आ विनती करबनि जे हे पिताजी! अहाँ हमर चिन्ता नहि करू। अहाँक कृपा, अनुग्रह आ पुण्य सँ वन मे आर मार्ग मे हमर कुशल-मंगल होयत।

छन्द :
तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥

हे पिताजी! अहाँक अनुग्रह सँ हम वन जाइत समय सब तरहक सुख पायब। आज्ञाक भलीभाँति पालन कय केँ चरणक दर्शन करय कुशलपूर्वक फेर लौटि आयब। सब माता लोकनिक पैर पड़ि-पड़िकय हुनका लोकनिक समाधान कयकेँ आर हुनका सब सँ बहुते विनती कयकेँ तुलसीदास कहैत छथि – अहाँ वैह प्रयत्न करब, जाहि मे कोसलपति पिताजी कुशल रहथि।”

“बेर-बेर चरणकमल पकड़िकय गुरु वशिष्ठजी सँ हमर संदेसा कहब जे ओ वैह उपदेश देथि जाहि सँ अवधपति पिताजी हमर सोच नहि करथि। हे तात! समस्त पुरवासी लोकनि आ कुटुम्ब लोकनि सँ नेहोरा (अनुरोध) कयकेँ हमर विनती सुनेबनि जे ओ मनुष्य हमर सब प्रकार सँ हितकारी अछि, जेकर चेष्टा सँ महाराज सुखी रहता। भरत के एलापर हुनका हमर संदेसा कहब जे राजाक पद पाबि गेला पर नीति नहि छोड़ि देथि, कर्म, वचन आ मन सँ प्रजाक पालन करथि और सब माता लोकनि केँ समान बुझि हुनका सभक सेवा करथि। आर हे भाई! पिता, माता आ स्वजन सभक सेवा कय केँ भ्रातृत्व अन्त धरि निभाबथि। हे तात! राजा (पिताजी) केँ ओहिना राखब जाहि सँ ओ कखनहुँ कोनो तरहें हमर सोच नहि करथि।”

“लक्ष्मणजी किछु कठोर वचन कहलथि, लेकिन श्री रामजी हुनका बरजन करैत (हुनकर बात केँ नकारैत) हमरा सँ अनुरोध कयलथि आर बेर-बेर अपन शपथ देलनि आ कहलनि जे हे तात! लक्ष्मण केर लड़कपन ओतय नहि कहबैक। प्रणाम करैत सीताजी सेहो किछु कहय लागल छलीह, मुदा स्नेहवश ओ शिथिल भ’ गेलीह। हुनकर वाणी रुकि गेलनि, नेत्र मे जल भरि गेलनि आ शरीर रोमांच सँ व्याप्त भ’ गेलनि। ताहि समय श्री रामचन्द्रजीक रुइख पाबिकय केवट पार जेबाक वास्ते नाव हाँकि देलनि। एहि तरहें रघुवंश तिलक श्री रामचन्द्रजी चलि देलाह आर हम छाती पर वज्र राखि ठाढ़े-ठाढ़ देखैत रहि गेलहुँ।”

“हम अपन क्लेश केँ केना कहू, जे श्री रामजीक ई संदेसा लयकय जियैत लौटि आयल छी!”

४. एतेक कहिकय मंत्रीक वाणी रुकि गेलनि, ओ चुप भ’ गेलाह। आर ओ हानिक ग्लानि आ सोच केर वश भ’ गेलथि। सारथी सुमंत्रक वचन सुनिते राजा पृथ्वी पर खसि पड़लाह, हुनक हृदय मे भयानक जलन होबय लगलनि। ओ तड़पय लगलाह। हुनकर मोन भीषण मोह सँ व्याकुल भ’ गेलनि। मानू मछरी केँ पहिल वर्षाक जल लागि गेल हो। सब रानी लोकनि विलाप कय केँ कानि रहल छथि।

५. ओहि महान विपत्ति केर केना वर्णन कयल जाय? ओहि समय के विलाप केँ सुनिकय दुःख केँ सेहो दुःख भेलैक आ धीरज केर सेहो धीरज भागि गेलैक! राजाक रावला (रनिवास) मे कनबाक शोर सुनिकय अयोध्या भरि मे बड़ा भारी कुहराम मचि गेल! एना बुझाइत छल मानू पक्षी सभक विशाल वन मे रातिक समय कठोर वज्र खसि पड़ल हो।

६. राजाक प्राण कंठ मे आबि गेलनि। मानू मणिक बिना साँप व्याकुल मरणासन्न भ’ गेल हो। इन्द्रिय सब बहुते विकल भ’ गेलनि, मानू बिना जल के पोखरि मे कमल के वन मुरझा गेल हो।

७. कौसल्याजी राजा केँ बहुत दुःखी देखिकय अपन हृदय मे जानि लेलनि जे आब सूर्यकुल के सूर्य अस्त भ’ गेल। तखन श्री रामचन्द्रजीक माता कौसल्या हृदय मे धीरज धय समय अनुकूल वचन बजलीह –

“हे नाथ! अहाँ मोन मे बुझिकय विचार करू जे श्री रामचन्द्र केर वियोग अपार समुद्र थिक। अयोध्या जहाज थिक आर अहाँ ओकर कर्णधार (खेबनहार) छी। सब प्रियजन (कुटुम्बी और प्रजा) यात्री लोकनिक समाज छथि, जे एहि जहाज पर चढ़ल छथि। अहाँ धीरज धरब त सब पार पहुँचि जायत। नहि त सारा परिवार डूबि जायत। हे प्रिय स्वामी! यदि हमर विनती हृदय मे धारण करब त श्री राम, लक्ष्मण, सीता फेरो आबिकय भेटता।”

८. प्रिय पत्नी कौसल्याक कोमल वचन सुनिते राजा आँखि खोलिकय देखलाह! मानू तड़पैत दीन मछरी पर कियो शीतल जल छिड़कि रहल हुए। धीरज धयकय राजा उठि बैसलाह आ कहला –

“सुमंत्र! कहू, कृपालु श्री राम कतय छथि? लक्ष्मण कतय छथि? स्नेही राम कतय छथि? आर हमर प्यारी पुतोहु जानकी कतय छथि?”

९. राजा व्याकुल भ’ कय बहुतो प्रकार सँ विलाप कय रहल छथि। ओ राति युग समान एतेक पैघ भ’ गेल जे बितिये नहि रहल अछि। राजाक केँ ओहि आन्हर तपस्वी (श्रवणकुमार केर पिता) केर श्राप याद आबि गेलनि। ओ सब कथा कौसल्या केँ कहि सुनौलनि। ओहि इतिहास केर वर्णन करैत-करैत राजा व्याकुल भ’ गेलाह आर कहय लगलाह –

“श्री राम केर बिना जिबय के आशा केँ धिक्कार अछि। हम ओहि शरीर केँ राखिकय कि करब, जे हमर प्रेम केर प्रण नहि निबाहलक? हा रघुकुल केँ आनंद दयवला हमर प्राण प्यारा राम! अहाँ बिना जियैत हमरा बहुते दिन बीति गेल। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिताक चित्त रूपी चातक के हित करयवला मेघ!”

१०.

राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥१५५॥

राम-राम कहिकय, फेर राम कहिकय, फेर राम-राम कहिकय आर फेर राम कहिकय राजा श्री राम के विरह मे शरीर त्याग कय सुरलोक केँ सिधारि गेलथि।

११. जियय आ मरय के फल त दशरथजी पेलथि, जिनकर निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांड मे पसैर गेल। जियैत जी त श्री रामचन्द्रजीक चन्द्रमा समान मुख देखि आर श्री राम केर विरह केँ निमित्त बनाकय अपन मरण सुधारि लेलनि। सब रानी शोकक मारे व्याकुल भ’ कय कानि रहल छथि। ओ सब राजाक रूप, शील, बल ओ तेज सब बखानिकय अनेकों प्रकार सँ विलाप कय रहल छथि आ बेर-बेर धरती पर खसि पड़ैत छथि। दास-दासीगण व्याकुल भ’ कय विलाप कय रहल छथि आ नगरनिवासी घरे-घर कानि रहल छथि। कहैत छथि जे आइ धर्म केर सीमा, गुण और रूप केर भंडार सूर्यकुल केर सूर्य अस्त भ’ गेल। सब कियो कैकेयी केँ गरिया रहल छथि, जे संसार भरि केँ बिना नेत्र के आन्हर कय देलनि! एहि तरहें विलाप करैत राति बीति गेल। प्रातःकाल सब बड़-बड़ ज्ञानी मुनि अयलाह।

हरिः हरः!!