रामचरितमानस मोतीः श्री राम-वाल्मीकि संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-वाल्मीकि संवाद

१. सुन्दर वन, पोखरि आ पर्वत सब देखिते प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजीक आश्रम मे एलाह। श्री रामचन्द्रजी देखलनि जे मुनिक निवास स्थान बहुत सुन्दर अछि, जतय सुन्दर पर्वत, वन आ पवित्र जल सेहो उपलब्ध अछि। सरोवर सब मे कमल आर वन सब मे गाछ सब फुलायल अछि, मकरन्द रस मे मस्त भेल भौंरा सुन्दर गुंजार कय रहल अछि। बहुतो रास चिड़ै-चुनमुनी आ पशु सब अनेकों प्रकारक आवाज-कोलाहल कय रहल अछि आर सब कियो आपसी वैर सँ रहित भ’ प्रसन्न मोन सँ विचरि रहल अछि। पवित्र और सुन्दर आश्रम केँ देखिकय कमलनयन श्री रामचन्द्रजी हर्षित भेलथि। रघुश्रेष्ठ श्री रामजीक आगमन सुनिकय मुनि वाल्मीकिजी हुनका आश्रम मे स्वागत करय लेल आगू अयलाह। श्री रामचन्द्रजी मुनि केँ दण्डवत कयलनि। विप्र श्रेष्ठ मुनि हुनका आशीर्वाद देलनि। श्री रामचन्द्रजीक छबि देखिकय मुनिक नेत्र शीतल भ’ गेलनि। सम्मानपूर्वक मुनि हुनका आश्रम मे लय अनलाह।

२. श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकिजी प्राणप्रिय अतिथि सब केँ अपन आश्रम मे पाबिकय हुनका सबक लेल मधुर कंद, मूल आ फल मंगबौलनि। श्री सीताजी, लक्ष्मणजी आर रामचन्द्रजी फल ग्रहण कयलनि। तखन मुनि हुनका सब केँ विश्राम करबाक लेल सुन्दर स्थान बता देलखिन। मुनि श्री रामजी लग बैसल छथि हुनकर मंगल मूर्ति केँ अपन आँखि सँ देखि वाल्मीकि जीक मोन मे बड भारी आनन्द भ’ रहल छन्हि। तखन श्री रघुनाथजी कमलसदृश हाथ केँ जोड़िकय, कान केँ सुख दयवला मधुर वचन बजलाह – हे मुनिनाथ! अपने त्रिकालदर्शी छी। सम्पूर्ण विश्व अहाँक लेल हथेली पर राखल बैइर जेकाँ अछि।

३. फेर प्रभु श्री रामचन्द्रजी जेना-जेना रानी कैकेइ वनवास देलनि, ओ सब प्रकरण (कथा) विस्तार सँ सुनौलनि। और कहलखिन – हे प्रभो! पिताक आज्ञाक पालन, माताक हित और भरत जेहेन स्नेही एवं धर्मात्मा भाइक राजा होयब आ फेर हमरा अहाँक दर्शन होयब, ई सब हमर पुण्यक प्रभाव थिक। हे मुनिराज! अपनेक चरणक दर्शन करय सँ हमर पुण्य सफल भ’ गेल। आब अपनेक आज्ञा ओहेन स्थान लेल हुए जतय कोनो मुनि उद्वेग केँ प्राप्त नहि होइथ। कियैक तँ जिनका सँ मुनि आ तपस्वी सब दुःख पबैत छथि से राजा बिना आगिये सिर्फ अपन दुष्ट कर्म सँ जरिकय भस्म भ’ जाइत छथि। ब्राह्मणक संतोष सब मंगल केर जैड़ थिक आर भूदेव ब्राह्मण लोकनिक क्रोध करोड़ों कुल केँ भस्म कय दैत अछि। एना हृदय मे विचारिकय – ओहेन स्थान बताउ जतय हम लक्ष्मण और सीता सहित जाय आर ओतय सुन्दर पत्ता व घास सँ कुटी बनाकय, हे दयालु! किछु समय निवास करी।

४. श्री रामजीक सहजहि सरल वाणी सुनि ज्ञानी मुनि वाल्मीकि बजलाह – धन्य! धन्य! हे रघुकुल के ध्वजास्वरूप! अपने एना कियैक नहि कहब! अपने सदैव वेदक मर्यादा केँ पालन (रक्षण) करैत छी।

छन्द :
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥

५. हे राम! अपने वेद केर मर्यादाक रक्षक जगदीश्वर छी आर जानकीजी (अपनहि केर स्वरूप भूता) माया थिकीह, जे कृपाक भंडार अहाँ रुइख (इशारा) पाबि जगत केर सृजन, पालन आर संहार करैत छथि। जे हजार मस्तकवला सर्प केर स्वामी आर पृथ्वी केँ अपन माथ पर धारण करयवला छथि, ओ चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण छथि। देवता सभक कार्य लेल अपने राजाक शरीर धारण कयकेँ दुष्ट राक्षस सभक सेनाक नाश करबाक लेल चलि देलहुँ अछि। हे राम! अपनेक स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि सँ परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार अछि। वेद निरंतर ओकरा ‘नेति-नेति’ कहिकय वर्णन करैत अछि।

६. हे राम! जगत दृश्य अछि, अपने ओकरा देखयवला छी। अपने ब्रह्मा, विष्णु और शंकर केँ सेहो नचाबयवला छी। जखन ओहो सब अहाँक मर्म केँ नहि जनैत छथि, तखन आर के अहाँ केँ जननिहार अछि? वैह टा अहाँ केँ जनैत अछि जेकरा अपने स्वयं जना दैत छी आर जनिते देरी ओ अहींक स्वरूप के बनि गेल करैत अछि। हे रघुनन्दन! हे भक्त लोकनिक हृदय केँ शीतल करयवला चन्दन! अपनहि केर कृपा सँ भक्त अपने केँ जानि पबैत अछि।

७. अहाँक देह चिदानन्दमय अछि। ई प्रकृतिजन्य पंच महाभूतक बनल अछि लेकिन कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट मायिक नहि अछि। आर, उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि सब विकार सब सँ रहित अछि। एहि रहस्य केँ अधिकारी पुरुष मात्र जनैत छथि। अपने देवता आर संत लोकनिक कार्य पूरा करय लेल दिव्य नर‍‍-शरीर धारण कयलहुँ अछि आर प्राकृत (प्रकृति केर तत्त्व सब सँ निर्मित देहवला, साधारण) राजा लोकनिक समान कहैत आ करैत छी।

८. हे राम! अपनेक चरित्र सब देखि आ सुनि मूर्ख लोक त मोह केँ प्राप्त होइत अछि आ ज्ञानीजन सुखी होइत छथि। अहाँ जे किछु कहैत, करैत छी – से सबटा सत्य (उचिते) त अछि, कियैक तँ जेहेन स्वाँग कयल जाइछ तहिना नाचहो के त चाही। एहि समय अपने मनुष्य रूप मे छी, अतः मनुष्योचित व्यवहार करब ठीके त अछि। अपने हमरा सँ पुछलहुँ जे हम कतय रहू? लेकिन हम ई पुछैत लजा रहल छी जे अपने कतय नहि छी, से स्थान बता दिअ। तखन हम अहाँक रहबाक स्थान देखाबी।

९. मुनिक प्रेमरस सानल वचन सुनि श्री रामचन्द्रजी रहस्य खुलि जेबाक डर सँ सकुचाकय मनहि-मन मुस्कुरेलथि। वाल्मीकिजी हँसिकय फेर अमृत रस मे डुबल मीठ वाणी बजलाह – हे रामजी! सुनू! आब हम ओ स्थान बतबैत छी जतय अपने, सीताजी आ लक्ष्मणजी समेत निवास करी।

“जेकर कान समुद्रक भाँति अपनेक सुन्दर कथारूपी अनेकों सुन्दर नदी सँ निरन्तर भरैत रहैत अछि, लेकिन कहियो पूरा नहि होइत अछि, ओकर हृदय अहाँक वास्ते सुन्दर घर थिक आ जे अपन आँखि केँ चातक बनाकय रखने अछि, जे अहाँक दर्शन रूपी मेघक लेल सदिखन लालायित रहैत अछि, तथा जे भारी-भारी नदी, समुद्र और झील केँ निरादर करैत अछि आ अपनेक सौन्दर्यरूपी मेघक एक बूँद जल सँ सुखी भ’ जाइत अछि, अर्थात् अपनेक दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूप कोनो एक अंग केर कनिको टा झाँकीक सामने स्थूल, सूक्ष्म आ कारण तीनू जगत केँ, यानि पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक केर सौन्दर्यक तिरस्कार करैत अछि, हे रघुनाथजी! ओहेन लोकक हृदयरूपी सुखदायी भवन मे अहाँ भाइ लक्ष्मणजी आर सीताजी सहित निवास करू।”

“अहाँक यश रूपी निर्मल मानसरोवर मे जेकर जीभ हंसिनी बनल अपनहिक गुण समूह रूपी मोती सब केँ चुगैत रहैत अछि, हे रामजी! अहाँ ओकर हृदय मे बसू।”

“जेकर नासिका प्रभुक पवित्र आर सुगन्धित (पुष्पादि) सुन्दर प्रसाद केँ नित्य आदर संग ग्रहण करैत (सूँघैत) अछि आर जे अहाँ केँ अर्पण कय केँ भोजन करैत अछि आर प्रसाद रूप मात्र वस्त्राभूषण धारण करैत अछि, जेकर मस्तक देवता, गुरु ओ ब्राह्मण केँ देखिकय बहुत नम्रताक संग प्रेम सहित झुकि जाइत अछि, जेकर हाथ नित्य श्री रामचन्द्रजी अपनेक चरण केर पूजा करैत अछि आर जेकर हृदय मे श्री रामचन्द्रजी अपनहि टा के भरोसा छैक, दोसर कियो नहि, तथा जेकर चरण श्री रामचन्द्रजीक तीर्थ मे चलिकय जाइत अछि, हे रामजी! अहाँ ओकर मोन मे निवास करू।”

“जे नित्य अहाँक राम नाम रूप मंत्रराज केँ जपैत अछि आ परिवार (परिकर) सहित अहाँक पूजा करैत अछि, जे अनेक प्रकार सँ तर्पण और हवन करैत अछि तथा ब्राह्मण केँ भोजन कराकय बहुत दान दैत अछि तथा जे गुरु केँ हृदय मे अहुँ सँ पैघ जानिकय सर्वभाव सँ सम्मान कयकेँ हुनकर सेवा करैत अछि, आर ई सब कर्म कयकेँ सब बातक एक्के टा फल ई माँगैत अछि जे श्री रामचन्द्रजीक चरण मे हमर प्रीति हो, ओहेन लोकक मनरूपी मन्दिर मे सीताजी आ रघुकुल केँ आनन्दित करयवला अपने दुनू भाइ बसू।”

“जेकरा नहि त काम, क्रोध, मद, अभिमान आर मोह अछि, नहि लोभ अछि, नहि क्षोभ अछि, नहि राग अछि, नहि द्वेष अछि आर नहि कपट, दम्भ आर माये अछि – हे रघुराज! अहाँ ओकर हृदय मे निवास करू।”

“जे सभक प्रिय आर सभक हित करयवला अछि, जे दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) या गाइर (निन्दा) दुनू अवस्था मे समान अछि, जे विचारिकय सत्य आर प्रिय वचन बजैत अछि तथा जे जागैत-सुतैत अहींक शरण मे अछि, आर अहाँ केँ छोड़िकय दोसर कोनो गति (आश्रय) नहि छैक, हे रामजी! अहाँ ओकर मोन मे बसू।”

“जे पराया स्त्री केँ जन्म दयवाली माताक समान बुझैत अछि, पराया धन जेकरा विष सँ पर्यन्त भारी विषय होइत छैक, जे दोसराक सम्पत्ति देखिकय हर्षित होइत अछि आर दोसरक विपत्ति देखिकय विशेष रूप सँ दुःखी होइत अछि आर हे रामजी! जेकरा अहाँ प्राणक समान प्यारा अछि, ओकर मन अहाँक रहय योग्य शुभ भवन थिक।”

“हे तात! जेकर स्वामी, सखा, पिता, माता आर गुरु सब किछु अपनहि छी, हुनक मोन रूपी मन्दिर मे सीता सहित अपने दुनू भाइ निवास करू।”

“जे अवगुण केँ छोड़िकय सभक गुण केँ ग्रहण करैत अछि, ब्राह्मण आ गाय लेल संकट सहैत अछि, नीति-निपुणता मे जेकर जग भरि मे मर्यादा छैक, ओकर सुन्दर मन अहाँ घर थिक।”

“जे गुण केँ अहाँक आर दोष केँ अपन बुझैत अछि, जेकरा सब प्रकार सँ अहाँक मात्र भरोसा छैक, राम भक्त जेकरा प्रिय लगैत छैक, ओकर हृदय मे अहाँ सीता सहित निवास करू।”

“जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्रिय परिवार आर सुख दयवला घर, सब केँ छोड़िकय जे केवल अहाँ केँ हृदय मे धारण कएने रहैत अछि, हे रघुनाथजी! अहाँ ओकर हृदय मे रहू।”

“स्वर्ग, नरक आर मोक्ष जेकर दृष्टि मे समान अछि, कियैक तँ ओ जतय-जतय (सब ठाम) केवल धनुष-बाण धारण कएने अहीं टा केँ देखैत अछि आर जे कर्म सँ, वचन सँ आ मोन सँ अहाँक दास अछि, हे रामजी! अहाँ ओकर हृदय मे डेरा धरू।”

“जेकरा कहियो किछुओ नहि चाही आर जेकरा अहाँ सँ स्वाभाविक प्रेम अछि, अहाँ ओकर मोन मे निरन्तर निवास करू, ओ अहाँक अपन घर थिक।”

१०. एहि तरहें मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी श्री रामचन्द्रजी केँ घर देखौलनि। हुनकर प्रेमपूर्ण वचन श्री रामजीक मन केँ बड नीक लगलनि। फेर मुनि कहलखिन – हे सूर्यकुल केर स्वामी! सुनू, आब हम एहि समय लेल सुखदायक आश्रम, अपनेक निवासस्थान बतबैत छी।

“अपने चित्रकूट पर्वत पर निवास करू, ओतय अहाँक लेल सब तरहक सुविधा अछि। सोहाओन पहाड़ अछि आ सुन्दर वन अछि। ओ हाथी, सिंह, हिरन आ पक्षी सभक विहार स्थल अछि। ओतय पवित्र नदी अछि, जेकर पुराण सब प्रशंसा कएने अछि आर जेकरा अत्रि ऋषिक पत्नी अनसुयाजी अपन तपोबल सँ अनने छथि।”

“ओतय गंगाजीक धारा अछि, जेकर मंदाकिनी नाम छैक। ओतय समस्त पापरूपी बालक केँ खायवाली डाकिनी (डायन) रूप अछि। अत्रि आदि बहुतो रास श्रेष्ठ मुनि ओतय निवास करैत छथि जे योग, जप आर तप करिते शरीर केँ कसैत रहैत छथि। हे रामजी! चलू, सभक परिश्रम केँ सफल करू आर पर्वत श्रेष्ठ चित्रकूट केँ सेहो गौरव दियौक।”

हरिः हरः!!