कथा
– प्रवीण नारायण चौधरी
हूलन तहिया आ आइ
(कथा)
भोरे-भोरे भरि देह माटि-गर्दा सँ लेटायल, मात्र एकटा विष्ठी पहिरने हुलना केँ बेर-बेर उठैत, बरबराइत आ ओंघराइत देखि लोक सब क्षुब्ध अवस्था मे छल। हुलना या त भगता के भगल कय रहल छल, या ओ कोनो नशा मे पागल भ’ गेल छल, या फेर आरे कोनो बात हेतय… लेकिन एहेन कड़क जाड़ मे उघारे देहे बीच हटियाक मैदान मे ओकर ई बदहाली देखि कतेको लोक घबराहट मे रहय। धियापुता चारूकात सँ घेरने, जुअनका सब सेहो कियो खिखियाइत, कियो अपन अन्तर्मन सँ हुलनाक एहि दुरावस्थाक जड़ि तकैत, कियो हुलना केँ पकड़य-धकरय के कोशिश मे… अजीब माहौल बनि गेल छल। हुलनाक माय सेहो ओतय आबि गेल गामपर सँ। बेचारी छाती पीटि रहल छल, लोक सब सँ गोहारि कय रहल छल… “हउ, देखहक एहि अभगला केँ भोरे कोन बेताल धय लेलकैक…!” ओकरा दाँती पर दाँती लगैक… लेकिन हुलना एहि सब सँ अनभिज्ञ अपनहि ताल मे नाचि रहल छल। केहनो जुअनका के पकड़ मे नहि आबि रहल छल, तेना झमारि दैक जे लोक पटकाय एक दिश आ हुलना दाँत बिदोरि खिखियाइ दोसर दिश। आँखि एतबा लाल रहैक जे लागय आब खून फेकतय तब खून फेकतय। कियो ओम्हर सँ बिसहरा मन्दिरक भगत केँ मोटरसाइकिल पर लेने आबि गेल ता धरि। भगत केँ आवेश मे आबय मे समय नहि लगलनि। चाटी उठय लगलनि। आब ओतय बिल्कुल कुश्ती के मैदान वला दृश्य छल। भगत के खों-खों एक दिश आ हुलनाक फों-फों दोसर दिश। बड़ीकाल धरि हुलना भगत केँ देह तक मे नहि सटय देलकनि। भगत एम्हर हुलना के भाव-भंगिमा सँ आक्रान्त लेकिन एकदम होशियार आ लोक सब केँ कहथिन, “हय, कनी बुढिया माय के मन्दिरक माटि ला… हय, ई राति भरि बौएलउ हँ…. हय, एकरा खब्बिस धेने छउ!”
बुढिया माय के मन्दिर सँ माटि अबैत देरी भगत बीस आ हुलना उन्नीस! भगत के भाव-भंगिमा के आगू हुलना शिथिल पड़य लागल। आब हुलना भगत के डर सँ भागय लागल। लोक सब ई तमाशा देखि ताली पीटि रहल छल। बहुत लोक बुढिया माय की जय कहि जयकारा लगा रहल छल। आब हुलना खसि पड़ल। भगत ओकरा माथा पर बुढिया माय मन्दिरक माटि सँ तिलक लगा देलथि। हुलनाक माय केँ होश आबि गेलय। ओ बेटा लग छाती पिटिते बैसि गेल… कहय लागल, “रौ जैनपिट्टा, हरसंखा, अभगला…. कतय बौआय चलि गेल रहिन राति?” हुलना एकदम शिथिल पड़ल आब टकटकी लगाकय चारूकात ताकि रहल छल। ओ बस अपना केँ असहाय देखा रहल छल। मानू ओकरा कनिकाल पहिनेक कोनो बात नहि बुझल होइक। कियो दयालु लोक ओकर थरथराइत शरीर पर ओढ़ना ओढ़ा देलाह। हुलनाक माय हुलनाक माथ अपन कोरा मे राखि ओकर शरीर स्थिर करय मे लागि गेल। कियो दौड़िकय भैर माली तेल आ लहसुन पकाकय आनि देलक… हुलनाक काकी, भौजी, बहिन आदि सब ओकरा भैर देह मालिश कय देलकैक। हुलना उठिकय बैसल आ पानि पियए लेल मंगलक। कियो समाजहि के लोक पहिने सँ पानि अनने रहैक, चुरुक भरि पानि पीबि लेलक हुलना। आब शान्त भेल।
गामक लोक सब परेशान, ओकर माय-बहिन-सम्बन्धी सब परेशान… हैरान। आखिर भेल कि रहैक हुलना केँ। भगत केँ सेहो भावावेश शान्त भ’ गेल रहनि। मुदा आवेशित अवस्था मे ओ जे बजलखिन वैह सभक लेल सम्बल रहैक। सब यैह बुझलक जे ई भरि राति बौआइत रहल। एकरा कोनो खब्बिस पकड़ि लेने रहैक।
ई बात १९९१ के थिकैक। आइ ओहि गाम मे कय गोट हुलना अछि, हुलनी सब सेहो देखारे अछि। भैर-भैर राति बौआइ जाइत अछि अपने इच्छे। आब त कियो केकरो रोकितो नहि छैक। खब्बिस सेहो आब जिबिते अवस्था मे देखा रहल छैक। पटका-पटकी, झपटा-झपटी आ भैर राति नशा मे बौएबाक, केहनो जाड़ मे ताड़ी-गाँजाक झोंक मे उघारे देहे भाउ खेलेबाक अवस्था सरेआम देख रहल अछि लोक। सब चुप अछि। भूत-प्रेत आ गाछी-बिरछी के राज आब नहि छैक। आब सबटा जिबिते भूतांश-भूतभाव सँ ओत-प्रोत सरेआम भाउ मे मस्त अछि। हुलना त आब बूढ़ होबय जा रहल अछि, लेकिन ओ जखन ई सब बात सुनैत अछि त बड भभा-भभाकय हँसैत अछि सब पर, कारण ओकरा त पता छैक जे केना ओकरा खब्बिस लागल छलैक आ केना भगतजी ओकरा बुढ़िया माय के मन्दिरक माटि सँ ठीक कय देने छलखिन्ह। आब त बुढ़िया माय सेहो चुप्पे रहब पसिन करैत छथि। लेकिन एखनहुँ जे हुनकर प्रांगण तक केँ दुषित करय लेल चाहैत अछि, ओकरा ओ नहि छोड़ैत छथिन। तेहेन डांग मारैत छथिन जे सबटा नौटंकी अपनहि किदैन मे घुसैड़ जाइत छैक।
हरिः हरः!!
डिस्क्लेमरः कथाक सब पात्र काल्पनिक अछि। जँ मेल खा जाय त १० बेर सोचब। मानव समाज मे सभ्यता अनुशासन बले संचालित होइत छैक, मैथिली केँ मधेशी भाषा कहने कदापि नहि। हरिः एव हरः!!