स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
तापस प्रकरण
पिछला अध्याय मे श्री रामजी जानकीजी, लक्ष्मणजी आ निषादराज गुह सहित यमुना पार कय ओतय स्नान-ध्यान कयलनि आ तेकर बाद….
१. ताहि अवसर ओतय एक तपस्वी अयलाह जे तेजक पुंज, छोट अवस्थाक आर सुन्दर छलथि। हुनक गति कवि नहि जनैत छथि, या फेर ओ कवि रहथि जे अपन परिचय नहि दियए चाहैत छथि।
२. ओ वैरागीक वेष मे रहथि आर मोन, वचन तथा कर्म सँ श्री रामचन्द्रजीक प्रेमी रहथि। अपन इष्टदेव केँ चिन्हिकय हुनक नेत्र मे जल भरि गेलनि आ शरीर सेहो पुलकित भ’ गेलनि। ओ दण्डवत् प्रणाम कयलनि।
३. हुनक प्रेम विह्वल दशाक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। श्री रामजी प्रेमपूर्वक पुलकित होइत हुनका हृदय सँ लगा लेलाह। ताहि पर ओहि तापस केँ एतबा आनन्द एलनि मानू कोनो महादरिद्र लोक पारस पाबि गेल हो।
४. देखनिहार सब कियो कहय लगलाह मानू प्रेम आ परमार्थ (परम तत्त्व) दुनू शरीर धारण कय केँ भेंट कय रहल छल। फेर ओ लक्ष्मणजीक चरण लागि प्रणाम कयलनि। ओ प्रेम सँ उमंग मे भरिकय हुनका उठा लेलनि। फेर ओ सीताजीक चरण धूलि केँ अपना माथ पर धारण कयलनि। माता सीताजी सेहो हुनका अपन बच्चा बुझि आशीर्वाद देलीह। फेर निषादराज हुनका दण्डवत प्रणाम कयलथि। श्री रामचन्द्रजीक प्रेमी जानि तपस्वी हुनका आनन्दित भाव सँ मिलन कयलथि।
५. ओ तपस्वी अपन नेत्र सँ श्री रामजीक सौन्दर्य सुधाक पान करय लगलाह आर एना आनन्दित भेलाह जेना कोनो भूखल लोक सुन्दर भोजन पाबिकय आनन्दित होइत अछि। एम्हर गामक स्त्रीगण कहि रहल छथि – हे सखी! कहू त, ओ माता-पिता केना छथि, जे एहि सुन्दर सुकुमार बालक सब केँ वन मे पठा देलनि अछि। श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीक रूप केँ देखिकय सब स्त्री-पुरुष स्नेह सँ व्याकुल भ’ जाइत छथि।