स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
लक्ष्मण-निषाद संवाद, श्री राम-सीता सँ सुमन्त्र केर संवाद, सुमंत्रक लौटब
निषादराज द्वारा श्री रामजी व श्री सीताजी केँ जमीन पर सुतल देखि निषादराज गुह अत्यन्त भाव-विह्वल होइत लक्ष्मणजी सँ अपन मोनक व्यथा साझा कयल गेल आ तखन –
१. लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्तिक रस सँ सानल मीठ आ कोमल वाणी बजलाह –
“हे भाइ! कियो केकरो सुख-दुःख दयवला नहि अछि। सब अपनहि कयल कर्मक फल भोगैत अछि।”
“संयोग (मिलन), वियोग (बिछुड़न), भल-बद (नीक-बेजा) भोग, शत्रु, मित्र आर उदासीन – ई सबटा भ्रम केर फंदा थिक। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल – जतय धरि जग के जंजाल अछि, धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जतय धरि व्यवहार अछि, जे देखय, सुनय आर मन के भीतर विचार करय मे अबैत अछि, एहि सभक मूल मोह (अज्ञान) टा थिक। परमार्थतः ई सब नहि अछि।”
“जेना सपना मे राजा भिखारी भ’ जाय या कंगाल स्वर्गक स्वामी इन्द्र भ’ जाय, आर जगला पर लाभ या हानि किछु नहि भेटैछ, ठीक तहिना ई सब दृश्य-प्रपंच केँ हृदय सँ देखबाक चाही। एना विचारिकय क्रोध नहि करबाक चाही आर न केकरो व्यर्थक दोषहि देबाक चाही।”
“सब कियो मोहरूपी रात्रि मे सुतयवला अछि आ सुतैत काल ओकरा तरह-तरह के सपना देखाय पड़ैत छैक। एहि जगतरूपी रात्रि मे योगी लोक जागैत अछि, जे परमार्थी अछि आ प्रपंच (मायिक जगत) सँ छुटि चुकल अछि।”
“जगत मे जीव केँ जागल तखनहि जनबाक चाही जखन सम्पूर्ण भोग-विलास सँ वैराग्य भ’ जाय। विवेक भेला उपरान्त मोहरूपी भ्रम भागि जाइत अछि, तखन अज्ञानक नाश भेला उपरान्त श्री रघुनाथजीक चरण मे प्रेम होइत छैक।”
“हे सखा! मन, वचन और कर्म सँ श्री रामजीक चरण मे प्रेम होयब, यैह सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) थिक। श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म छथि। ओ अविगत (जानय मे नहि आबयवला), अलख (स्थूल दृष्टि सँ देखय मे नहि आबयवला), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकार सँ रहित आर भेद शून्य छथि, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहिकय निरूपण करैत अछि, वैह कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो आर देवता सभक हितक वास्ते मनुष्य शरीर धारण कयकेँ लीला सब करैत छथि, जे सब सुनला सँ जग के जंजाल मेटा जाइत अछि। हे सखा! एना बुझि मोह केँ त्यागि श्री सीतारामजीक चरण मे प्रेम करू।”
२. एहि तरहें श्री रामचन्द्रजीक गुण कहिते-कहिते भोर भ’ गेल। तखन जग केर मंगल करनिहार आ सुख देनिहार श्री रामजी जगलाह। शौचादि समस्त कार्य कय नित्य पवित्र और सुजान श्री रामचन्द्रजी स्नान कयलनि। फेर बरगद के दूध मँगा छोट भाई लक्ष्मणजी सहित ओहि दूध सँ सिर पर जटा बनौलनि। ई देखिकय सुमंत्रजीक आँखि मे नोर भरि गेलनि। हुनकर हृदय मे दाहक धाह उठि गेलनि, मुँह मलिन (उदास) भ’ गेलनि। ओ हाथ जोड़िकय अत्यंत दीन वचन बजलाह – हे नाथ! हमरा कौसलनाथ दशरथजी आज्ञा देने रहथि जे अहाँ रथ लयकय श्री रामजीक संग जाउ, वन देखाकय, गंगा स्नान कराकय दुनू भाइ केँ तुरन्त लौटा आनू। सब संशय और संकोच केँ दूर कयकेँ लक्ष्मण, राम, सीता केँ घुमा लायब। महाराज एना कहने रहथि, आब प्रभु जेना कहू, हम सैह करी। हम अहाँक बलिहारी छी। एना विनती कय ओ श्री रामचन्द्रजीक चरण मे खसि पड़लाह आर बालक समान कानय लगलाह। भावुक होइत कहैत रहलाह – हे तात ! कृपा कय केँ ओहिना करू जाहि सँ अयोध्या अनाथ नहि हुए।
३. श्री रामजी मंत्री केँ उठा धैर्य दैत बुझेलनि – हे तात ! अहाँ त धर्म केर सब सिद्धांत केँ छानि देलहुँ। शिबि, दधीचि आर राजा हरिश्चन्द्र धर्मक लेल करोड़ों (अनेकों) कष्ट सहने रहथि। बुद्धिमान राजा रन्तिदेव आर बलि बहुतो तरहक संकट सहिकय धर्म केँ पकड़ने रहलाह। ओ सब धर्मक परित्याग नहि कयलनि। वेद, शास्त्र आर पुराण मे कहल गेल अछि जे सत्यक सोझाँ दोसर कोनो धर्म नहि अछि। हम ओहि धर्म केँ सहजे पाबि लेलहुँ अछि। एहि सत्यरूपी धर्म केर त्याग कयला सँ तीनू लोक मे अपयश होयत। प्रतिष्ठित पुरुष लेल अपयश केर प्राप्ति करोड़ों मृत्युक समान भीषण संताप दयवला अछि। हे तात! हम अहाँ सँ बेसी कि कहू! अहाँक बातक कोनो प्रत्युत्तर देलोपर पाप के भागी होइत छी। अहाँ जाकय पिताजीक चरण पकड़िकय करोड़ों नमस्कारक संग हाथ जोड़िकय विनती करब जे हे तात! अहाँ हमर कोनो बातक चिन्ता नहि करू। अहाँ सेहो पिते समान हम बड पैघ हितैषी थिकहुँ। हे तात! हम जोड़िकय विनती करैत छी जे अहुँक सब तरहें वैह कर्तव्य थिक जाहि मे पिताजी हमरा लोकनिक सोच मे दुःख नहि पाबथि।
४. श्री रघुनाथजी और सुमंत्रजीक बीचक एहि संवाद केँ सुनिकय निषादराज कुटुम्ब लोकनि सहित बहुत व्याकुल भ’ गेलाह। फेर लक्ष्मणजी किछ कड़ा बात बजलथि। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ताहि बात केँ बहुते अनुचित बुझि हुनका मना कयलनि। श्री रामचन्द्रजी सकुचाइते अपन शपथ दैत सुमंत्रजी सँ कहलनि जे अहाँ लक्ष्मणक ई सन्देह एकदम नहि कहब। सुमंत्र ताहिपर फेरो राजाक ओ सन्देश कहलनि जे सीता वनक क्लेश नहि सहि सकती, अतएव जेना तेना सीता अयोध्या लौटि आबथि, हमरा आ श्री रामचन्द्र केँ यैह उपाय करबाक चाही। नहि त हम एकदम बेसहारा भ’ कय ओहिना नहि जियब जेना जल बिना मछरी नहि जिबैत अछि। सीताक नैहर (पिताक घर) आर सासुर मे सब सुख छन्हि। जा धरि ई विपत्ति दूर नहि होइत अछि, ता धरि ओ जतय चाहथि, ओतय सुख सँ रहथि।
५. राजा जाहि दीनता व प्रेम सँ विनती कयलनि तेकर वर्णन नहि भ’ सकैछ। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी पिताक सन्देश सुनि सीताजी केँ करोड़ों सीख देलनि। ओ कहलनि जे अहाँ घर लौटि जाउ, सासु, ससुर, गुरु, प्रियजन, कुटुम्बी सभक चिन्ता दूर भ’ जेतनि। पतिक वचन सुनिकय जानकीजी कहली –
“हे प्राणपति! हे परम स्नेही! सुनू। अहाँ करुणामय आर परम ज्ञानी छी। कृपा कयकेँ विचार त करू जे शरीर केँ छोड़िकय छाया अलग केना रहि सकैत अछि? सूर्यक प्रभा सूर्य केँ छोड़िकय कतय जा सकैत अछि? और चाँदनी चन्द्रमा केँ त्यागिकय कतय जा सकैत अछि?”
६. एहि तरहें पति केँ प्रेममयी विनती सुना सीताजी मंत्री सँ सुहाओन वाणी कहय लगलीह –
“अपने हमर पिताजी आ ससुरजीक समान हमर हित करनिहार थिकहुँ। अहाँ केँ हम कोनो उत्तर दैत छी से बहुते अनुचित होयत। मुदा हे तात! हम आर्त्त भ’ कय अहाँक सम्मुख भेल छी, अहाँ खराब नहि मानब।”
“आर्यपुत्र (स्वामी) केर चरणकमल बिना जगत मे जतय धरि सम्बन्ध अछि ओ सबटा हमरा लेल व्यर्थ अछि। हम पिताजीक ऐश्वर्य केर छटा देखने छी, जिनकर चरण रखबाक चौकी सँ सर्वशिरोमणि राजाक मुकुट मेल खाइत अछि… बड़का-बड़का राजा जिनकर चरण मे प्रणाम करैत छथि, एहेन पिताक घर, जे सब तरहक सुख केर भंडार थिक, पतिक बिना हमरा मोन केँ बिसरियोकय नहि सोहाइत अछि।”
“हमर ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट थिकाह, जिनकर प्रभाव चौदहो लोक मे प्रकट अछि, इन्द्र सेहो आगू भ’कय जिनकर स्वागत करैत छथि आर अपन आधा सिंहासन पर बैसबाक लेल स्थान दैत छथि, एहेन ऐश्वर्य आर प्रभावशाली ससुर, हुनक राजधानी अयोध्याक निवास, प्रिय कुटुम्बी आर माताक समान सासु लोकनि – ई सब कियो श्री रघुनाथजीक चरणकमल केर रज के बिना हमरा सपनहुँ मे सुखदायक नहि लगैत छथि।”
“दुर्गम रास्ता, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब व नदी, कोल, भील, हिरन आ पक्षी – प्राणपति (श्री रघुनाथजी) के संग रहिते ई सबटा हमरा सुख दयवला होयत। तेँ सासु आर ससुरक पैर पकड़िकय हमरा तरफ सँ विनती करब जे हमर कोनो सोच नहि करथि, हम वन मे स्वभावहि सँ सुखी छी।”
“वीर सब मे अग्रगण्य तथा धनुष आर बाण सँ भरल तरकश धारण कएने हमर प्राणनाथ आर प्रिय दियर संग छथि। एहि सँ हमरा न रास्ता मे थकावट अछि, न भ्रम अछि आर न मरा मोन मे कोनो दुःखे अछि। अहाँ हमरा लेल बिसरियोकय चिन्ता नहि करी।”
७. सुमंत्र सीताजीक शीतल वाणी सुनिकय एना व्याकुल भ’ गेलाह जेना साँप मणि हेरा गेलापर होइत अछि। नेत्र सँ किछु नहि सुझाइत छन्हि, कान सँ किछु नहि सुनाइत छन्हि। ओ बहुत व्याकुल भ’ गेलाह, किछुओ कहैत नहि बनैत छन्हि। श्री रामचन्द्रजी हुनका बहुतो तरहें बुझेलनि। तैयो हुनकर छाती ठंढा नहि भेलनि। संगहि लौटबाक लेल मंत्री अनेकों यत्न कयलनि, युक्ति पेश कयलनि, मुदा रघुनन्दन श्री रामजी ओहि सब युक्तिक समुचित-यथोचित उत्तर दैत गेलाह।
८. श्री रामजीक आज्ञा मेटल नहि सकैत अछि। कर्मक गति कठिन अछि, ताहि पर किछुओ वश नहि चलैत अछि। श्री राम, लक्ष्मण और सीताजीक चरण मे माथ झुकाकय सुमंत्र एना लौटलाह जेना कोनो व्यापारी अपन मूलधन (पूँजी) गमाकय लौटल हो। सुमंत्र रथ केँ हाँकलनि, घोड़ा श्री रामचन्द्रजी दिश ताकि-ताकिकय हिनहिनाइत अछि। ई देखि निषाद लोकनि विषादक वश भ’ माथ पीटि-पीटि पछताइत छथि।
हरिः हरः!!