स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री राम-सीता-लक्ष्मण केर वन गमन, नगरवासी केँ शयन करैत छोड़ि वन मे आगू बढब…
१. वन लेल सब आवश्यक वस्तु संग लय श्री रामचन्द्रजी पत्नी (श्री सीताजी) व भाइ (लक्ष्मणजी) सहित, ब्राह्मण ओ गुरु लोकनिक चरण वन्दना कयकेँ सब केँ अचेत करैत चलि देलाह। राजमहल सँ निकलिकय श्री रामचन्द्रजी वशिष्ठजीक दरबाजा पर गेलाह आ देखलनि सब लोक विरहक अग्नि मे जरि रहल अछि। ओ प्रिय वचन सब बाजिकय सब केँ बुझेलनि आ फेर श्री रामचन्द्रजी ब्राह्मण लोकनिक मंडली केँ बजौलनि। गुरुजी सँ कहिकय हुनका सब केँ वर्षाशन (वर्ष भरिक भोजन) देलनि आर आदर, दान तथा विनय सँ हुनका सब केँ अपन वश मे कय लेलनि। फेर याचक सब केँ दान आ मान दय कय संतुष्ट कयलनि तथा मित्र सब केँ पवित्र प्रेम दैत प्रसन्न कयलनि। फेर दास-दासी सब केँ बजौलनि आ हुनका सब केँ गुरुजी केँ सौंपिकय, हाथ जोड़िकय कहलनि –
“हे गोसाईं! हिनका सब गोटे केँ अपने माता-पिता जेकाँ सार-संभार (देख-रेख) करैत रहबनि।”
श्री रामचन्द्रजी बेर-बेर दुनू हाथ जोड़िकय सबसँ कोमल वाणी कहैत छथि जे हमर सब तरहें हितकारी मित्र वैह होयत जेकर चेष्टा सँ महाराज सुखी रहता।
“हे परम चतुर पुरवासी सज्जन लोकनि! अपने सब वैह उपाय करब जाहि सँ हमर माता सब केँ हमर विरहक दुःख सँ दुःखी नहि हुए पड़तनि।”
२. एहि तरहें श्री रामजी सबकेँ समझाकय हर्षित होइत गुरुजीक चरणकमल मे सिर नमेलनि। फेर गणेशजी, पार्वतीजी और कैलाशपति महादेवजी केँ मनाकय तथा आशीर्वाद पाबि श्री रघुनाथजी चलि देलाह।
३. श्री रामजीक चलिते बड़ा भारी विषाद भ’ गेलैक। नगरक लोक केर आर्तनाद (हाहाकर) सुनल नहि जाइछ। लंका मे अपशकुन होबय लागल। अयोध्या मे अत्यन्त शोक पसैर गेल आ देवलोक मे सब हर्ष और विषाद दुनूक वश मे भ’ गेल। हर्ष एहि बात के छल जे आब राक्षस सभक नाश होयत आ विषाद अयोध्यावासीक शोक केर कारण छल।
४. एम्हर मूर्छा दूर भेलनि त राजा जगलाह और सुमंत्र केँ बजाकय कहय लगलाह –
“श्री राम वन केँ चलि गेलाह, लेकिन हमर प्राण नहि जा रहल अछि। नहि जानि ई कोन सुख लेल शरीर मे टिक रहल अछि। एहि सँ पैघ बलवती आर कोन व्यथा होयत, जाहि दुःख केँ पाबिकय प्राण शरीर केँ छोड़त!”
फेर धीरज धय राजा कहलखिन्ह –
“हे सखा! अहाँ रथ लय कय श्री रामक संग जाउ। अत्यन्त सुकुमार दुनू कुमार केँ आर सुकुमारी जानकी केँ रथ मे चढ़ाकय, वन देखाकय चारि दिनक बाद वापस आनि लिअ। यदि धैर्यवान दुनू भाइ नहि लौटथि, कियैक त श्री रघुनाथजी प्रण के सच्चा और दृढ़ता सँ नियम केँ पालन करयवला छथि – तखन अहाँ हाथ जोड़िकय विनती करबनि जे हे प्रभो! जनककुमारी सीताजी केँ त लौटा दियौन।”
“जखन सीता वन देखिकय डराइथ त मौका पाबि हमर ई सीख हुनका सँ कहबनि जे अहाँक सासु-ससुर एना संदेश कहलनि अछि जे हे पुत्री! अहाँ घुरि चलू, वन मे बहुत क्लेश छैक। कहियो पिताक घर (नैहर), कहियो सासुर, जतय अहाँक इच्छा हुए ओतय रहब। एहि तरहें अहाँ सब तरहक उपाय करब।”
“जँ सीताजी लौटि एती त हमर प्राणक सहारा भ’ जायत। नहि त अन्त मे हमर मरण टा होयत।”
“विधाताक विपरीत भेला पर कोनो वश नहि चलैछ। हा! राम, लक्ष्मण और सीता केँ आनिकय देखाउ हमरा।”
– एतेक कहिकय राजा फेर मूर्छित भ’ कय पृथ्वी पर खसि पड़लाह।
५. सुमंत्रजी राजाक आज्ञा पाबि, सिर नमाकय तुरन्त रथ जोतबाकय ओतय गेलाह जतय नगरक बाहर सीताजी सहित दुनू भाइ रहथि। ओतय पहुँचिकय सुमंत्र राजाक वचन श्री रामचन्द्रजी केँ सुनौलनि आर विनती कयकेँ हुनका रथ पर चढ़ौलनि। सीताजी सहित दुनू भाइ रथ पर चढ़िकय हृदय मे अयोध्या केँ सिर नमवैत चलि देलनि।
६. श्री रामचन्द्रजी केँ जाइत देखि अयोध्या केँ अनाथ होइत देखिकय सब लोक व्याकुल भ’ हुनकहि संग धय लेलक। कृपाक समुद्र श्री रामजी हुनका सब केँ बहुतो तरहें बुझबैत छथि त ओ सब अयोध्या दिश घुमि जाइत छथि, मुदा फेर मन नहि मानैत छन्हि त फेर सँ ओ सब श्री रामजीक संग वन दिश आबय लगैत छथि।
७. अयोध्यापुरी एकदम डराओन लागि रहल अछि मानू अंधकारमयी कालरात्रि हो। नगरक नर-नारी भयानक जन्तुक समान एक-दोसर केँ देखिकय डरा रहल छथि। घर श्मशान, कुटुम्बी भूत-प्रेत और पुत्र, हितैषी व मित्र मानू यमराजक दूत छथि। बगीचा मे गाछ आ लत्ती सब सेहो मउला (कुम्हला) गेल अछि। नदी आ पोखरि एना भयानक लगैत अछि जे ओ सब देखल तक नहि जाइछ। करोड़ों घोड़ा, हाथी, खेल लेल पोसल हिरन, नगर केर पोसा पशु गाय, बरद, बकरी आदि, पपीहा, मोर, कोयल, चकवा, तोता, मैना, सारस, हंस आर चकोर- श्री रामजीक वियोग मे सब व्याकुल भेल जतय-ततय गुम भेल ठाढ़ अछि, मानू तस्वीर मे बनायल गेल चित्र मात्र हो।
८. जे नगर फल सँ परिपूर्ण बड भारी सघन वन छल, नगर निवासी सब स्त्री-पुरुष बहुतो तरहक पशु-पक्षी रहथि – अर्थात् अवधपुरी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारू फल दयवला नगरी छल आर सब स्त्री-पुरुष सुख सँ ओहि फल केँ प्राप्त करैत रहथि – ताहि वन मे विधाता कैकेइ केँ भीलनी बनेलनि जे दसो दिशा मे दुःसह दावाग्नि (भयानक आइग) लगा देलक।
९. श्री रामचन्द्रजीक विरहक अग्नि केँ लोक सहि नहि सकल। सब व्याकुल भ’ हुनकहि संग चलि देलक। सब मन मे विचार कय लेलक जे श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीक बिना सुख नहि अछि। जतय ओ रहता ओतहि सारा समाज रहब। श्री रामचन्द्रजीक बिना अयोध्या मे हमरा सभक कोनो काज नहि अछि। एना विचार दृढ़ कयकेँ देवताओ सब केँ दुर्लभ सुख सँ परिपूर्ण घरबार छोड़ि सब कियो श्री रामचन्द्रजीक संग चलि पड़लाह। जिनका श्री रामजीक चरणकमल प्रिय अछि तिनका कि कहियो विषय भोग वश मे कय सकैत अछि! बच्चा और बूढ़ केँ घर मे छोड़िकय सब लोक संग भ’ गेल।
१०. पहिल दिन श्री रघुनाथजी तमसा नदीक तीर पर निवास कयलनि। प्रजा केँ प्रेमवश देखिकय श्री रघुनाथजीक दयालु हृदय मे बड़ा दुःख भेलनि। प्रभु श्री रघुनाथजी करुणामय छथि। दोसरक पीड़ा केँ ओ तुरन्त थाह पाबि जाइत छथि, दोसरक दुःख सँ ओ सेहो दुःखित भ’ जाइत छथि। प्रेमयुक्त कोमल और सुन्दर वचन कहिकय श्री रामजी हुनका सब केँ बहुतो ढंग सँ बुझेलनि आ अनेकों तरहक धर्म संबंधी उपदेश देलनि लेकिन प्रेमवश लोक घुरबितो नहि घुरैत छथि।
११. शील आर स्नेह छोड़ल नहि जाइछ। श्री रघुनाथजी असमंजस केर अधीन भ’ गेलाह, दुविधा मे पड़ि गेलाह। शोक और परिश्रम (थकावट) के मारे लोक सब सुति रहलाह। किछु लोक केँ देवता सभक माया सेहो मोहित अवस्था सुता देलकनि। जखन दुइ पहर बीति गेल तखन श्री रामचन्द्रजी प्रेमपूर्वक मंत्री सुमंत्र सँ कहलखिन – हे तात! रथक खोज मारिकय अर्थात् पहियाक चिह्न सँ दिशाक पता नहि चलय तेना रथ हाँकू। आर कोनो उपाय सँ बात नहि बनत। शंकरजीक चरण मे सिर नमाकय श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथ पर सवार भेलथि। मंत्री तुरंते रथ केर एम्हर-ओम्हर खोज नुकाकय चलि देलनि।
१२. भोर होइत सब कियो जागल त बड़ा भारी शोर मचि गेल जे रघुनाथजी चलि गेलाह। लोक सब रथक खोज तकैत अछि लेकिन कतहु नहि पबैत अछि। सब ‘हा राम! हा राम!’ चिकरैत चारू दिश दौड़ि रहल अछि। मानू जे समुद्र मे जहाज डुबि गेल हो, जाहि सँ व्यापारी लोकनिक समुदाय बहुते व्याकुल भ’ गेल अछि। ओ सब एक-दोसरा केँ उपदेश दैत छथि जे श्री रामचन्द्रजी हमरा सब केँ कष्ट होयत से सोचि जानि-बुझिकय छोड़िकय चलि गेलाह। ओ सब अपनहि निन्दा करैत छथि आ माछक सराहना करैत कहैत छथि – श्री रामचन्द्रजीक बिना हमरा सब के जिनाय बेकार अछि। विधाता यदि प्रियजनक वियोग रचलनि त फेर मंगला पर मृत्यु कियैक नहि दैत छथि! एहि तरहें अनेकों प्रलाप करिते ओ सब संताप सँ भरल अयोध्याजी लौटलाह।
१३. हुनका सभक विषम वियोग केर दशाक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। चौदह साल के अवधि केर आशा मात्र सँ ओ सब प्राण केँ राखि रहल छथि। सब स्त्री-पुरुष श्री रामचन्द्रजीक दर्शन लेल नियम आर व्रत करय लगलाह आ एना दुःखी भ’ गेलाह जेना चकवा, चकवी आर कमल सूर्यक बिना दीन भ’ जाइत अछि।
१४. सीताजी और मंत्री सहित दुनू भाइ श्रृंगवेरपुर पहुँचि गेलाह। ओतय गंगाजी केँ देखिकय श्री रामजी रथ सँ उतरलथि आ बड़ा हर्षक संग हुनका दण्डवत कयलनि। लक्ष्मणजी, सुमंत्र और सीताजी सेहो प्रणाम कयलनि। सभक संग श्री रामचन्द्रजी बहुत सुख पेलनि।
१५. गंगाजी समस्त आनंद-मंगल केर मूल छथि। ओ सब सुख दयवाली और सब पीड़ा हरयवाली छथि। अनेक कथा प्रसंग कहैत श्री रामजी गंगाजीक तरंग केँ देखि रहल छथि। ओ मंत्री केँ, छोट भाइ लक्ष्मणजी केँ और प्रिया सीताजी केँ देवनदी गंगाजीक बहुतो रास महिमा सुनौलनि। ताहि उपरान्त सब कियो स्नान कयलनि, जाहि सँ बाटक सारा श्रम (थकावट) दूर भ’ गेलनि आ पवित्र जल पिबिते सभक मन प्रसन्न भ’ गेलनि। जिनकर स्मरण मात्र सँ बेर-बेर जन्म लेबाक आ मरबाक महान श्रम मेटा जाइत अछि, हुनको ‘श्रम’ होयब, ई केवल लौकिक व्यवहार (नरलीला) थिक।
हरिः हरः!!