स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री लक्ष्मण-सुमित्रा संवाद
१. श्री रामजीक आज्ञा पाबि लक्ष्मणजी हर्षित हृदय सँ माता सुमित्राजी लग गेलाह। मानू जेना आन्हर केँ फेर सँ आँखि भेट गेल होइ किछु तेहने अवस्था छलन्हि एहि घड़ी हुनकर। माताक चरण मे मस्तक नमौलनि धरि मोन हुनकर रघुकुल केँ आनन्द दयवला श्री रामजी और जानकीजी लग छलन्हि।
२. माता हुनकर उदास मोन देखि हुनका सँ कारण पुछलीह। लक्ष्मणजी सब कथा विस्तार सँ कहि सुनौलनि। सुमित्राजी कठोर वचन सुनिकय एना सहमि गेलीह जेना हिरनी चारू दिश वन मे आगि लागल देखिकय सहमि गेल करैत अछि।
३. लक्ष्मण देखालनि जे आब भेल अनर्थ, माय कहीं स्नेहक वश काज नहि बिगाड़ि दियए। ओ विदा माँगैत डराइत आ लजाइत छथि आ मने-मन सोचैत छथि जे माय संग जेबाक लेल कहती या नहि।
४. सुमित्राजी श्री रामजी और श्री सीताजीक रूप, सुन्दर शील आ स्वभाव केँ बुझिकय आर ताहि पर राजाक प्रेम देखि अपन माथ पिटैत मन मे बजली जे ई पापिन कैकेइ कतेक खतरनाक घात लगेलक। फेर कुसमय बुझैत धैर्य धारण कयलीह आर स्वभावहि सँ हित चाहनिहाइर सुमित्राजी कोमल वाणी बजलीह –
“हे तात! जानकीजी अहाँक माता समान छथि आर सब तरहें स्नेह करनिहार श्री रामचन्द्रजी अहाँक पिता समान छथि। जाहिठाम श्री रामजीक निवास हो वैह अयोध्या थिक। जतय सूर्य के प्रकाश ओतहि दिन!
जँ निश्चय टा सीता-राम वन लेल जाइत छथि त अयोध्या मे अहाँक कोनो काज नहि अछि।
गुरु, पिता, माता, भाइ, देवता और स्वामी, हिनका सभक सेवा प्राणक समान करबाक चाही। फेर श्री रामचन्द्रजी त प्राणहुँ केर प्रिय छथि, हृदयहु केर जीवन छथि आर सभक स्वार्थरहित सखा छथि।
जगत मे जतय धरि पूजनीय आ परम प्रिय लोक छथि ओ सब रामेजीक नाता सँ मात्र पूजनीय और परम प्रिय मानय योग्य छथि। हृदय मे एना बुझिकय, हे तात! हुनका संग वन जाउ आ जगत मे जिबाक लाभ उठाउ।
हम बलिहारी जाइत छी, हे पुत्र! हमरा समेत अहाँ बहुते सौभाग्यक पात्र भेलहुँ जे अहाँक चित्त छल छोड़िकय श्री राम केर चरण मे स्थान प्राप्त कयलक अछि।
संसार मे वैह युवती स्त्री पुत्रवती अछि जेकर पुत्र श्री रघुनाथजीक भक्त हो। नहि त जे राम सँ विमुख पुत्र सँ अपन हित बुझैत अछि, ओ त बाँझे नीक अछि। पशुक भाँति ओकर बियायब व्यर्थ अछि।
अहींक भाग्य सँ श्री रामजी वन लेल जा रहल छथि। हे तात! दोसर कोनो कारण नहि छैक। सम्पूर्ण पुण्य केर सब सँ पैघ फल यैह छैक जे श्री सीतारामजीक चरण मे स्वाभाविक प्रेम हुए।
राग, रोष, ईर्षा, मद और मोह – एकर वश स्वप्नहु तक मे नहि होयब। सब प्रकारक विकार केँ त्यागिकय मन, वचन आ कर्म सँ श्री सीतारामजीक सेवा करब।
अहाँ केँ वन मे सब तरहें आराम भेटत, जिनका संग श्री रामजी और सीताजी रूपी पिता-माता रहता हुनका तकलीफक कोनो बाते नहि। हे पुत्र! अहाँ वैह करब जाहि सँ श्री रामचन्द्रजी वन मे क्लेश नहि पाबथि, हमर यैह उपदेश अछि।
छन्द :
उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
हे तात! हमर यैह उपदेश अछि आ अहाँ यैह सब बर जाहि सँ वन मे अहाँक कारण श्री रामजी आ सीताजी सुख पाबथि। पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर केर सुख सब बिसरि जायब।
५. तुलसीदासजी कहैत छथि जे सुमित्राजी एहि प्रकारे हमर प्रभु श्री लक्ष्मणजी केँ शिक्षा दयकय वन जेबाक आज्ञा देलनि आर फेर ई आशीर्वाद देलनि जे श्री सीताजी आ श्री रघुवीरजीक चरण मे अहाँक निर्मल (निष्काम व अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नव हो।
६. माताक चरण मे सिर नमा, हृदय मे डराइते जे फेर दोसर कोनो विघ्न नहि आबय लक्ष्मणजी तुरन्त एहि तरहें चलि देलाह जेना सौभाग्यवश कोनो हिरन कठिन फन्दा छोड़ाकय भागि निकलल हुए। लक्ष्मणजी ओतय गेलाह जतय श्री जानकीनाथजी छलथि आर प्रिय केँ संग पाबिकय मोन मे बहुत प्रसन्न भेलाह। श्री रामजी और सीताजीक सुन्दर चरण केर वन्दना कयकेँ ओ हुनका संग चलिकय राजभवन मे पहुँचलाह।
७. नगरक स्त्री-पुरुष आपस मे कहि रहल छलथि जे विधाता नीक काज बनाकय फेर बिगाड़ि देलनि। सभक शरीर दुब्बर, मोन दुःखी आर मुख उदास भ’ रहल अछि। ओ सब एना व्याकुल अछि जेना मधु छीनि लेलापर मधुमाछी व्याकुल भ’ जाइत अछि। सब कियो हाथ मलि रहल अछि आ फेर माथ पीटि-पीटिकय पछता रहल अछि, मानू पंखक बिना पक्षी व्याकुल भ’ रहल हो। राजद्वार पर बड़ा भारी भीड़ जमा भ’ रहल अछि। अपार विषादक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि!