पोथी परिचय
गीताप्रेस सँ प्रकाशित अछि – गीता-दर्पण। एकर लेखक छथि सुप्रसिद्ध स्वामी रामसुखदास। एखन धरि अनेकों संस्करण प्रकाशित भ’ चुकल अछि। लाखों प्रति आ करोड़ों पाठक द्वारा पढ़ल जा चुकल अछि ई पोथी। एहि मे गीताक व्यावहारिक उपयोगिता पर हम मानव समुदाय लेल समुचित सन्देश लिखल गेल अछि। मैथिली जिन्दाबाद पर सम्पादक प्रवीण नारायण चौधरी द्वारा एकर मैथिली अनुवाद रखबाक प्रयास कयल जायत।
प्रथम दिवसः
चारिम अध्यायः सम्पूर्ण कर्म केँ लीन करबाक लेल तथा सम्पूर्ण कर्म केर बन्धन सँ रहित हेबाक लेल दू गोट उपाय अछि। कर्मक तत्त्व केँ जननाय आ तत्त्व ज्ञान प्राप्त कयनाय।
भगवान् सृष्टिक रचना तँ करैत छथि मुदा ताहि कर्म मे आर तेकर फल मे कर्तृत्वाभिमान एवं आसक्ति नहि भेला सँ ओ बन्हाइत नहि छथि। कर्म करैत जे मनुष्य कर्मफल केर आसक्ति, कामना, ममता आदि नहि रखैत अछि; अर्थात् कर्मफल मे सर्वथा निर्लिप्त रहैत अछि आर निर्लिप्त रहियेकय कोनो कर्म करैत अछि, ओ सम्पूर्ण कर्म केँ काटि दैत अछि। जेकर सम्पूर्ण कर्म संकल्प तथा कामना सँ रहित होइत अछि तेकर सम्पूर्ण कर्म जरि जाइत अछि। जे कर्म व कर्मफल केर आसक्ति नहि रखैत अछि, ओ कर्म मे साङ्गोपाङ्ग प्रवृत्त होइतो कोनो कर्म सँ नहि बन्हाइत अछि। जे मात्र कर्तव्य परम्परा सुरक्षित रखबाक लेल कर्म करैत अछि ओकर सम्पूर्ण कर्म लीन भ’ जाइत छैक। एहि तरहें कर्म केर तत्त्व केँ ठीक जेकाँ बुझि गेला सँ मनुष्य कर्मबन्धन सँ रहित भ’ जाइत अछि। जड़ता सँ सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद भ’ गेनाय टा तत्त्वज्ञान थिक। ई तत्त्वज्ञान पदार्थ सँ होयवला यज्ञ सब सँ श्रेष्ठ अछि। तत्त्वज्ञान प्राप्त भेलापर फेर कहियो मोह नहि होइछ। पापियो सँ पापी मनुष्य तक एहि ज्ञान केर बल सँ सम्पूर्ण पाप सँ तरि जाइत अछि। जेना अग्नि सम्पूर्ण इंधन केँ जरा दैत अछि तहिना ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्म केँ भस्म कय दैत अछि।
पाँचम अध्यायः मनुष्य केँ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के अयलापर सुखी-दुःखी, राजी-नाराजगी नहि हेबाक चाही। कियैक तँ एहि सुख-दुःख आदि द्वंद्व मे फँसल मनुष्य संसार सँ उपर नहि उठि सकैत अछि। स्त्री, पुत्र, परिवार, धन-सम्पत्ति केर केवल स्वरूप सँ त्याग करयवला संन्यासी नहि थिक। प्रत्युत जे अपन कर्तव्यक पालन करैत राग-द्वेष नहि करैछ, वैह सदा संन्यासी थिक। जे अनुकूल परिस्थिति अयलापर हर्षित नहि होइछ आर प्रतिकूल परिस्थिति अयलापर उद्विग्न नहि होइछ – एहेन द्वंद्व सँ रहित मनुष्य परमात्मा मे मात्र स्थित रहैत अछि। सांसारिक दुःख-सुख, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि द्वंद्व मात्र दुःखक कारण थिक। अतः बुद्धिमान मनुष्य केँ एहि सब मे नहि फँसबाक चाही।
छठम् अध्यायः कोनो साधन सँ अन्तःकरण मे समता एबाक चाही, कियैक तँ समताक बिना मनुष्य अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति मे, मान-अपमान मे सम यानि निर्विकार नहि रहि सकैत अछि, आर यदि ओ परमात्मा केर ध्यान करय चाहय तँ ध्यानहु नहि कय सकैत अछि। तात्पर्य भेल जे, अन्तःकरण मे समता एने बिना सुख-दुःख आदि द्वंद्व केर असर नहि मेटायत और मन सेहो ध्यान मे नहि लागत।
जे मनुष्य प्रारब्ध केर अनुसार प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति मे, वर्तमान मे कयल जायवला कर्म केर पूर्ति-अपूर्ति, सिद्धि-असिद्धि मे, दोसर के द्वारा कयल गेल मान-अपमान मे, धन-सम्पत्ति आदि मे, नीक-बेजा लोक मे सम रहैत अछि, से श्रेष्ठ अछि। जे साध्यरूप समताक उद्देश्य राखि मन-इन्द्रिय केँ संयमपूर्वक परमात्माक ध्यान करैत अछि, ओकर सम्पूर्ण प्राणी मे तथा ओकर सुख-दुःख मे समबुद्धि भ’ जाइत छैक। समता प्राप्त करबाक इच्छा रखनिहार मनुष्य वेद मे कहल गेल सकाम कर्म केँ अतिक्रमण कय जाइत अछि। समता वला मनुष्य सकामभाव वला तपस्वी, ज्ञानी एवं कर्मी मनुष्य सँ श्रेष्ठ अछि।
सातम् अध्यायः सब किछु वासुदेव थिक, भगवद्रूप मात्र थिक – ई बात मनुष्य केँ अनुभव कय लेबाक चाही। सूत केर मणि सँ बनल माला मे सूतहि समान भगवान समस्त संसार मे ओतप्रोत छथि। पृथ्वी, जल, तेज, आदि तत्त्व सब मे, चन्द्र, सूर्य, आदि रूप मे, सात्त्विक, राजस व तामस भाव, क्रिया आदि मे भगवान मात्र परिपूर्ण छथि। ब्रह्म, जीव, क्रिया, संसार, ब्रह्मा आर विष्णु रूप सँ भगवानहि छथि। एहि तरहें तत्त्व सँ सब किछु भगवाने-भगवान् छथि।
आठम् अध्यायः अन्तकालीन चिन्तन के मुताबिक जीव केर गति होइत छैक, तेँ मनुष्य केँ सदिखन सावधान रहक चाही, जाहि सँ अन्तकाल मे भगवत्स्मृति बनल रहय। अन्त समय मे शरीर छुटैत काल मनुष्य जाहि वस्तु, व्यक्ति आदिक चिन्तन करैत अछि, ओएह मुताबिक ओकरा आगूक शरीर भेटैत छैक। जे अन्त समय मे भगवानक चिन्तन करैत शरीर त्याग करैछ, ओ भगवाने केँ प्राप्त होइत अछि। ओकर फेरो जन्म-मरण नहि होइत छैक। अतः मनुष्य केँ सब समय मे, सब अवस्था मे आर शास्त्रविहित सब काज करिते भगवान् केँ याद रखबाक चाही जाहि सँ अन्त समय मे भगवाने याद आबथि। जीवन भरि रागपूर्वक जे किछु कयल रहैत अछि, प्रायः वैह अन्त समय मे याद अबैत छैक।
नवम् अध्यायः सब मनुष्य भगवत्प्राप्ति केर अधिकारी थिक, चाहे ओ कोनो वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेष, आदिक कियैक नै हो; ओ सब भगवानक दिशा मे चलि सकैत अछि। भगवान् केर आश्रय लय केँ भगवान् केँ प्राप्त कय सकैत अछि।
भगवान् केँ एहि बातक दुःख छन्हि, खेद छन्हि, पश्चाताप सेहो छन्हि जे ई जीव मनुष्य शरीर पाबियोकय, हमर प्राप्ति केर अधिकार पाबियोकय, हमरा प्राप्त नहि कय केँ, हमरा लग नहि आबिकय मृत्यु (जन्म-मरण) मे जा रहल अछि। कियो हमरा सँ विमुख भ’ कय, कियो हमर अवहेलना कय केँ, कियो आसुरिक सम्पत्ति केर आश्रय लय केँ आर कियो सकामभाव सँ यज्ञादिक अनुष्ठान कय केँ जन्म-मरण केर चक्कर मे जा रहल अछि। ओ पापियो सँ पापी कियैक न हो, कोनो नीच योनि मे जन्म कियैक न लेने हो आर कोनो वर्ण, आश्रम, देश, वेष, आदिक कियैक न हो, ओ सब कियो हमर आश्रय लय केँ हमरा प्राप्त कय सकैत अछि। अतः एहि मनुष्य शरीर केँ पाबिकय जीव केँ हमर भजन करबाक चाही।
सोलहम् अध्यायः दुर्गुण-दुराचारहि सँ मनुष्य चौरासी लाख योनि एवं नर्क मे गेल करैत अछि, अतः मनुष्य केँ सद्गुण-सदाचार केँ धारण कय केँ संसारक बन्धन सँ जन्म-मरणक चक्र सँ रहित भ’ जेबाक चाही।
जे दम्भ, दर्प, अभिमान, काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी सम्पत्तिक गुण सब केँ त्याग कय अभय, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, दया, यज्ञ, दान, तप, आदि दैवी सम्पत्तिक गुण सब केँ धारण करैत अछि ओ संसारक बन्धन सँ रहित भ’ जाइत अछि। मुदा जे केवल दुर्गुण-दुराचार केर काम, क्रोध, लोभ, चिन्ता, अहंकार आदिक आश्रय रखैत अछि, ओ सब ताहिये मे रचल-पचल रहैत अछि। एना मे आसुरी सम्पदावला मनुष्य चौरासी लाख एवं नर्क मे जाइत अछि।
सत्रहम् अध्यायः शास्त्र विधि केँ जननिहार अथवा नहि जननिहार मनुष्य केँ चाही जे ओ श्रद्धापूर्वक जे किछु शुभ कार्य करैत अछि ताहि कार्य केँ भगवान केँ याद कय केँ भगवन्नाम केर उच्चारण कय केँ आरम्भ करय।
जे शास्त्रविधि केँ नहि जनैत अछि मुदा श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करैत अछि ओकर श्रद्धा (निष्ठा व स्थिति) तीन तरहक होइत अछि – सात्त्विकी, राजसी और तामसी। श्रद्धाक अनुसारे ओकरा द्वारा पूजल जायवला देवता सेहो तीन तरहक होइत छथि, जे यजन-पूजन नहि करैछ, ओकर श्रद्धाक पहिचान आहार सँ भ’ जाइत छैक, कियैक तऽ आहार यानि भोजन त सब करिते अछि।
अठारहम् अध्यायः मनुष्यमात्र केर उद्धारक लेल ओकर रुचि, योग्यता आर श्रद्धाक अनुसार तीन साधन कहल गेल अछि – कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग (शरणागति)। एहि मे सँ कोनो एक साधन मे मनुष्य जँ लागि जाय त ओकर उद्धार भ’ जाइत छैक।
मनुष्य यज्ञ, तप एवं दान तथा नियत कर्तव्य-कर्म केँ आसक्ति तथा फलेच्छा आदिक त्याग कय केँ करैत अछि एवं जे कुशल-अकुशल कर्म मे राग-द्वेष नहि करैत अछि, वैह वास्तव मे त्यागी अछि। नियत कर्म केँ करितो ओकरा पाप नहि लगैछ आर ओकरा कतहु कर्मफल प्राप्त नहि होइत छैक। ओकर सम्पूर्ण संशय-सन्देह मेटा जाइत छैक आर ओ अपन स्वरूप मे स्थित भ’ जाइछ, ई कर्मयोग थिक।
जे मनुष्य सात्त्विक ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धृति आ सुख केँ धारण कय केँ कर्तृत्व-भोक्तृत्व रहित भ’ जाइत अछि, ओ जँ सम्पूर्ण प्राणी सब केँ मारियो दैछ तैयो ओकरा पाप नहि लगैछ। अपन स्वरूप मे स्थित भेलापर ओकरा पराभक्ति केर प्राप्ति भ’ जाइत छैक आर ताहि सँ ओ परमात्मतत्त्व केर यथार्थ जानिकय ओहि मे प्रविष्ट भ’ जाइत अछि, ई ज्ञानयोग थिक।
मनुष्य भगवानक आश्रय लय केँ सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म केँ सदिखन साङ्गोपाङ्ग करितो भगवत्कृपा सँ अविनाशी पद केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि। जे मनुष्य भगवानक परायण भ’ कय सम्पूर्ण कर्म केँ भगवान केँ अर्पण करैत अछि, ओ भगवत्कृपा सँ सम्पूर्ण विघ्न-बाधा आदि सँ तरि जाइत अछि। जे अपना सहित शरीर-मन-इन्द्रिय केँ भगवानहि मे लगा दैत अछि, ओ भगवाने केँ प्राप्त होइत अछि। जे सम्पूर्ण धर्मक आश्रय केँ त्यागिकय अनन्यभाव सँ केवल भगवानहि केर शरण भ’ जाइछ, ओकरा भगवान् सम्पूर्ण पाप सँ मुक्त कय दैत छथि, ई भक्तियोग थिक।
हरिः हरः!!