स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्रीसीता-राम संवाद
श्री सीता-राम संवाद
१. माताक सामने सीताजी सँ किछु कहय मे लजाइत छथि श्री रामजी। मुदा मनहि-मन ई बुझि जे ई समइये एहेन अछि… ओ बजलाह –
“हे राजकुमारी! हमर सिखावन सुनू। मन मे किछु दोसर तरहें नहि बुझि लेब। जँ अपन आ हमर भलाई चाहैत छी त हमर वचन मानिकय घर मे रहू। हमर आज्ञाक पालन होयत, सासुक सेवा करबाक अवसर भेटत। घरहि मे रहला सँ सब तरहक भलाई अछि।
आदरपूर्वक सासु-ससुर केर चरणक पूजा (सेवा) करय सँ बढिकय दोसर कोनो धर्म नहि होइछ। जखन-जखन माता हमरा याद करती आ प्रेम सँ व्याकुल हेबाक कारण हुनकर बुद्धि बिसरयवला स्थिति हेतनि, हे सुन्दरी! तखन-तखन अहाँ कोमल वाणी सँ पुरान कथा सब कहि-कहिकय हिनका बुझेबनि।
हे सुमुखि! हमर सैकड़ों सौगन्ध अछि, हम ई स्वाभाव सँ मात्र कहैत छी जे हम अहाँ केँ मात्र माता लेल घर पर राखि रहल छी। हमर आज्ञा मानिकय घर पर रहला सँ गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्मक आचरण केर फल अहाँ केँ बिना कोनो क्लेशक भेटत, मुदा हठ केर वश भ’ कय गालव मुनि और राजा नहुष आदि सब कियो संकटे टा सहलनि।
हे सुमुखि! हे सयानी! सुनू, हम सेहो पिताक वचन केँ सत्य कयकेँ जल्दिये वापस आयब। दिन जाइत देरी नहि लागत। हे सुन्दरी! हमर ई सीख सुनू!
हे वामा! यदि प्रेमवश हठ करब त अहाँ परिणाम मे दुःख पायब। वन बड़ा कठिन (क्लेशदायक) और भयानक अछि। ओतुका रौद, जाड़, वर्षा आर हवा सबटा बड़ा भयानक अछि। रास्ता मे कुश, काँट आर बहुतो कंकड़ सब रहैछ। ताहि पर खालिये पैर चलय पड़त।
अहाँक चरणकमल कोमल आ सुन्दर अछि आर रास्ता मे बड़का-बड़का दुर्गम पर्वत सब अछि। पर्वत केर गुफा सब, खोह (दर्रा), नदी, नद आर नाला एहेन अगम्य आर गहींर अछि जे ओहि सब दिश देखल तक नहि जाइछ। रीछ, बाघ, भेड़िया, सिंह आर हाथी एना भयानक आवाज करैत अछि जे सुनिकय केकरो धैर्य खत्म भ’ जाइत छैक।
जमीन पर सुतनाय, गाछक छाल केर वस्त्र पहिरनाय आर कंद, मूल, फल केर भोजन करय पड़त। आर ओहो कि सब दिन भेटत? सब किछु अपन-अपन समयक अनुकूल भेटि सकत। मनुष्य केँ खायवला निशाचर (राक्षस) घुमैत रहैत अछि। ओ करोड़ों प्रकारक कपटरूप धारण कय लैत अछि।
पहाड़क पानि सेहो बड लागैत छैक। वन केर विपत्ति कतेक कहू, कहलो नहि जा सकैत अछि सबटा। वन मे भीषण सर्प, भयानक पक्षी आर स्त्री-पुरुष केँ चोरबयवला राक्षस सब झुंडक झुंड रहैत अछि। वन केर भयंकरता याद एला मात्र सँ धीर पुरुष सब पर्यन्त डरा जाइत छथि। फेर हे मृगलोचनि! अहाँ त स्वभावहि सँ डरपोक छी!
हे हंसगमनी! अहाँ वन केर योग्य नहि छी। अहाँक वन जेबाक बात सुनिकय लोक सब हमरा अपयश देता, नीक नहि कहता।
मानसरोवर केर अमृतक समान जल सँ पोसायल हंसिनी कतहु खारा समुद्र जी सकैत अछि? नवीन आम केर वन मे विहार करयवाली कोयली कि करील केर जंगल मे शोभा पबैत अछि?
हे चन्द्रमुखी! हृदय मे एना विचारिकय अहाँ घरहि पर रहू। वन मे बड कष्ट छैक। स्वाभाविके हित चाहनिहार गुरु आर स्वामीक सीख केँ जे माथ पर राखि नहि मानैत अछि, ओ हृदय मे भरि पेट पछताइते टा अछि आ ओकर हित केर हानि अवश्ये टा होइत छैक।”
२. प्रियतम केर कोमल तथा मनोहर वचन सुनिकय सीताजीक सुन्दर नेत्र जल सँ भरि गेलनि। श्री रामजीक ई शीतल सीख हुनका केना जरबय वला भेलनि जेना चकवी केँ शरद ऋतुक इजोरिया राइत होइत छैक। जानकीजी सँ किछु उत्तर दैत नहि बनैत छन्हि, ओ सोचिकय व्याकुल भ’ गेलीह जे हमर पवित्र आ प्रेमी स्वामी हमरा छोड़िकय जाय चाहैत छथि। नेत्रक जल केँ जबर्दस्ती रोकिकय ओ पृथ्वीक कन्या सीताजी हृदय मे धीरज धरैत, सासुक पैर लागिकय, हाथ जोड़िकय कहय लगलीह –
“हे देवि! हमर एहि बड़ा भारी ढिठाई केँ क्षमा करब। हमरा प्राणपति वैह शिक्षा देलनि अछि जाहि मे हमर परम हित अछि। मुदा हम मोन मे बुझिकय देखि लेलहुँ जे पतिक वियोग समान जगत मे आन कोनो दुःख नहि छैक।
हे प्राणनाथ! हे दया के धाम! हे सुन्दर! हे सुख देनिहार! हे सुजान! हे रघुकुलरूपी कुमुद केँ फुलाबयवला चन्द्रमा! अहाँक बिना स्वर्ग सेहो हमरा लेल नरक समान अछि।
माता, पिता, बहिन, प्रिय भाइ, प्रिय परिवार, मित्र सभक समुदाय, सासु, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बांधव), सहायक आर सुन्दर, सुशील एवं सुख दयवला पुत्र – हे नाथ! जतय धरि स्नेहक सम्बन्ध सब अछि, पतिक बिना स्त्री केँ सूर्य सँ बढिकय तप्त करब समान अछि।
शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पतिक बिना स्त्रीक लेल ई सबटा शोकक समाज थिक। भोग रोग केर समान अछि, गहना भार रूप अछि आर संसार यम यातना यानि नरकक पीड़ाक समान अछि। हे प्राणनाथ! अहाँक बिना जगत मे हमरा कतहु किछुओ सुखदायी नहि अछि। जेना बिना जीव के देह आर बिना जल के नदी, तहिना हे नाथ! बिना पुरुष के स्त्री होइत अछि।
हे नाथ! अहाँक संग रहिकय अहाँक शरद पूर्णिमाक निर्मल चन्द्रमाक समान मुख देखय सँ हमरा समस्त सुख प्राप्त होयत। हे नाथ! अहाँक संग पक्षी आर पशु टा हमर कुटुम्बजन होयत। वने नगर आ वृक्षक छाले निर्मल वस्त्र होयत आ पर्णकुटी (घास-पात सँ बनल झोपड़ी) टा स्वर्ग केर समान सुख केर मूल होयत। उदार हृदय केर वनदेवी और वनदेवता टा सासु-ससुर समान हमर सार-संभार करता आर कुश व पत्ताक सुन्दर बिछौना टा प्रभुक संग कामदेवक मनोहर तोशक समान होयत। कन्द, मूल आर फले अमृतक समान आहार होयत आर वन के पहाड़े अयोध्याक सैकड़ों राजमहल समान होयत। क्षण-क्षण मे प्रभुक चरणकमल केँ देखि-देखिकय हम एना आनन्दित रहब जेना दिन मे चकवी रहैत अछि।
हे नाथ! अहाँ वन केर बहुतो रास दुःख और बहुतो रास भय, विषाद और सन्ताप कहलहुँ, परन्तु हे कृपानिधान! ओ सब मिलियोकय प्रभुक वियोग सँ होइवला दुःख के लवलेशहु के समान नहि भ’ सकैत अछि। एना जी मे जानिकय, हे सुजान शिरोमणि! अहाँ हमरा संग लय लिअ, एतय नहि छोड़ू।
हे स्वामी! हम बेसी कि विनती करू? अहाँ करुणामय छी आर सभक हृदयक अन्दर केर बात बुझनिहार छी। हे दीनबन्धु! हे सुन्दर! हे सुख देनिहार! हे शील और प्रेम के भंडार! यदि ई चौदह वर्षक अवधि धरि हमरा अयोध्या मे रखैत छी त ई बुझि लिअ जे हमर प्राण नहि बचत।
क्षणे-क्षण अहाँक चरणकमल केँ देखैत रहला सँ हमरा मार्ग मे चलैत रहबाक थकावट तक नहि होयत। हे प्रियतम! हम सब तरहें अहाँक सेवा करब आर बाट मे चलय सँ होइवला सबटा थकावट केँ दूर कय देब। अहाँक पैर धोइ कय, गाछक छाहरि मे बैसिकय, मोन मे प्रसन्न भ’ पंखा डोलबैत रहब। पसीनाक बूँद सहित श्याम शरीर केँ देखिकय प्राणपतिक दर्शन करिते दुःखक लेल हमरा छुट्टी कखन भेटत! समतल भूमि पर घास आर गाछक पत्ता बिछाकय ई दासी राति-भरि अहाँक चरण दबाओत। बेर-बेर अहाँक कोमल मूर्ति केँ देखिकय हमरा गरम हवा सेहो नहि लागत।
प्रभुक संग मे रहैत हमरा दिश आँखि उठाकय के ताकि सकैत अछि! जेना सिंह केर स्त्री सिंहनी केँ खर्हिया आ सियार नहि देखि सकैत अछि। हम सुकुमारि छी आ नाथ वन केर योग्य छथि? अहाँक वास्ते तपस्या उचित अछि आ हमरा लेल विषय भोग? एहेन कठोर वचन सुनिकय जँ हमर हृदय नहि फाटल त, हे प्रभु! बुझि पड़ैत अछि ई पामर प्राण अहाँक वियोग केर भीषण दुःख सहत?”
३. एना कहिकय सीताजी बहुते व्याकुल भ’ गेलीह। ओ बाजय काल पर्यन्त वियोग केँ नहि सम्हारि सकलीह। शरीर सँ वियोग के बात दूर, एतय बोली-वचन मे वियोग केर बात सुनि ओ विकल भ’ गेलीह अछि। हुनकर ई दशा देखिकय श्री रघुनाथजी अपन जी मे जानि लेलनि जे हठपूर्वक हिनका एतय राखय सँ ई अपन प्राण त्यागि देतीह। तखन कृपालु, सूर्यकुल केर स्वामी श्री रामचन्द्रजी कहलखिन जे ई सबटा सोच छोड़िकय हमरा संग वन लेल अहुँ चलू। तुरन्त वनगमनक तैयारी करू।