रामचरितमानस मोतीः दशरथ सँ कैकेइ केर दुइ वरदानक माँग आ तेकर बाद….

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

दशरथ-कैकेइ संवाद आ तदोपरान्त

दशरथ-कैकेइ संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र केर महल मे जायब आर ओतय सँ घुमिकय श्री रामजी केँ महल मे पठायब

१.

छन्द :

केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।

मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥

दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।

तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥

‘हे रानी! कियैक रुसल छी?’ कहैत राजा हुनका स्पर्श करैत छथि त रानी कैकेइ हुनकर हाथ झटकारि हंटा दैत छथि, ओ एना देखैत छथि मानू क्रोध मे भरल नागिन क्रूर दृष्टि सँ देखि रहल हो। राजा दशरथ सँ प्राप्त ओ दुइ वरदानक वासना ओहि नागिन केर दुइ गोट जिह्वा थिक आर दुनू वरदान स्वयं नागिन केर दाँत थिक जे कतय काटत से मर्मस्थान ताकि रहल अछि। तुलसीदासजी कहैत छथि जे राजा दशरथ होनहार के वश मे रहबाक कारण एना हाथ झटकब आ नागिन समान देखबाक बात केँ कामदेव केर क्रीड़ा मात्र बुझि रहल छथि। राजा बेर-बेर कहि रहल छथि – हे सुमुखी! हे सुलोचनी! हे कोकिलबयनी! हे गजगामिनी! अहाँ अपन क्रोधक कारण त सुनाउ। हे प्रिये! के अहाँ अनिष्ट कयलक? केकर दू टा सिर छैक? यमराज केकरा अपन लोक लय जाय चाहैत छथि? कहू, कोन कंगाल केँ राजा बना दी या फेर कोन राजा केँ देश सँ बाहर कय दी? अहाँक शत्रु अमर देवते होइथ त हुनको हम मारि सकैत छी, फेर ई कीड़ा-मकोड़ा नर-नारी कोन बड़का चीज छी। हे सुन्दरी! अहाँ त हमर स्वभाव जनबे करैत छी जे हमर मोन सदिखन अहाँ मुखरूपी चन्द्रमाक चकोर थिक। हे प्रिये! हमर प्रजा, कुटुम्बजन, सर्वस्व सम्पत्ति, पुत्र, एतय तक कि हमर प्राण तक सब किछु अहाँक वश मे अछि। जँ हम अहाँ सँ किछु कपट कयकेँ कहैत होइ त हे भामिनि! हमरा सौ बेर राम के शपथ अछि। अहाँ हँसिकय अपन मनचाहल बात माँग लिअ आर अपन मनोहर अंग केँ आभूषण सँ सजाउ। मौका-बेमौका त मोन विचारिकय देखू। हे प्रिये, जल्द सँ जल्द एहि खराब वेश केर त्याग करू।

२. राजाक एतेक बात सुनिकय आ मोने-मोन रामजी नामे लेल गेल पैघ शपथ केर विचार करैत मंदबुद्धि कैकेइ हँसिते उठलीह आ गहना पहिरय लगलीह, मानू कोनो भीलनी मृग केँ देखिकय फन्दा तैयार कय रहल छल। अपना जी मे कैकेइ केँ सुहृद् जानि राजा दशरथजी प्रेम सँ पुलकित भ’ कय कोमल और सुन्दर वाणी सँ फेर बजलाह – हे भामिनि! अहाँक चित्त प्रसन्न भ’ गेल, भरि नगर मे घरे-घर आनन्दक बधावा बाजि रहल अछि। हम काल्हिये राम केँ युवराज पद दय रहल छी, तेँ हे सुनयनी! अहाँ मंगल साज साजू।

३. एतेक सुनिते कैकेइ केर कठोर हृदय दलैक उठल, मानू पाकल रोइंउपाड़ के फोड़ा छुआ गेल हो। ओतेक भारी पीड़ा केँ सेहो ओ हँसिकय नुका लेलीह, जेना चोरक स्त्री प्रकट भ’ कय नहि कनैत अछि जाहि सँ कि ओकर भेद खुलि जाय। राजा हुनकर कपट-चतुराई केँ नहि बुझि पाबि रहल छथि, कियैक त ओ करोड़ों कुटिलक शिरोमणि गुरु मन्थराक पढायल शिष्या छथि। यद्यपि राजा नीति मे निपुण छथि, परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र अछि। फेर ओ कपटयुक्त प्रेम बढ़ाकय, उपरका प्रेम देखायक आँखि आ मुँह मोड़िकय हँसैत बजलीह – हे प्रियतम! अपने माँगू-माँगू त कहल करैत छी, मुदा दैत किछो नहि छी। अहाँ दुइ गोट वरदान देबाक बात कहने रही, सेहो भेटत कि नहि से सन्देह अछि।

४. राजा हँसिकय कहलखिन – आब हम अहाँक असल बात बुझलहुँ। मान राखब अहाँ लेल अत्यन्त प्रिय अछि। अहाँ हमर ओहि दुइ वरदान केर थाती राखि फेर कहियो मँगलहुँ नहि आ हमर बिसरबाक आदति भेला हमरा ओ प्रसंग यादो नहि रहल। आब हमरा झूठ-मूठ दोष नहि दिअ। दुइ के बदला चारि माँगि लिअ। रघुकुल मे सदा सँ यैह रीति चलि आयल अछि जे भले प्राण चलि जाय मुदा वचन नहि जाइत अछि। असत्य समान आन कोनो पाप नहि अछि। कि करोड़ों घोंघी मिलियोकय कहियो पहाड़ समान भ’ सकैत अछि! ‘सत्य’ मात्र समस्त उत्तम सुकृत (पुण्य) केर जड़ि थिक। ई बात वेद-पुराण मे प्रसिद्ध अछि आर मनुजी सेहो यैह कहने छथि। ताहि पर सँ हमरा द्वारा श्री रामजीक शपथ मुँह सँ निकलि पड़ल अछि। श्री रघुनाथजी हमर सुकृत (पुण्य) आर स्नेह केर सीमा थिकाह।

५. एहि तरहें बात पक्का कराकय दुर्बुद्धि कैकेइ हँसिकय बजलीह, मानू ओ खराब विचार रूपी दुष्ट पक्षी बाज केँ छोड़बाक लेल ओकर आँखि उपरका टोपी हंटा देलीह। राजाक मनोरथ सुन्दर वन थिक, सुख सुन्दर पक्षी सभक समुदाय थिक। ताहि पर भीलनी जेकाँ कैकेइ अपना वचन रूपी भयंकर बाज छोड़य चाहैत छथि। ओ बजलीह – हे प्राणप्रिय! सुनू, हमर मोन केँ नीक लागयवला एकटा वर ‘भरत केँ राजतिलक’ दिअ आ दोसर वर हम हाथ जोड़िकय मँगैत छी से मनोरथ पूरा करू – तपस्वीक वेष मे विशेष उदासीन भाव सँ राज्य व कुटुम्ब आदि सँ भलीभाँति उदासीन व विरक्त मुनिक भाँति राम चौदह वर्ष धरि वन मे निवास करथि।

६. कैकेइ केर ई कोमल विनययुक्त वचन सुनिकय राजाक हृदय मे एहेन शोक भेलनि जेना चन्द्रमाक किरणक स्पर्श सँ चकवा विकल भ’ जाइत अछि। राजा सहमि गेलाह, हुनका सँ किछुओ कहैत नहि बनि रहल अछि – मानू बाज बटेर केँ झपटि लेने हो। राजाक रंग बिल्कुल उड़ि गेलनि, मानू ताड़ के गाछ पर तड़का (बिजली) खसि पड़ल हो। माथा पर हाथ राखि दुनू नेत्र बन्द कय केँ राजा एना सोच करय लगलाह मानू साक्षात्‌ सोचे शरीर धारण कय सोच कय रहल हो। ओ सोचैत छथि – हाय! हमर मनोरथरूपी कल्पवृक्ष फूला गेल छल लेकिन फर धरबाक समय कैकेइ हथिनी जेकाँ ओकरा जड़ि सहित उखाड़िकय नष्ट कय देलीह। कैकेइ अयोध्या केँ उजाड़ बना देलीह आ विपत्ति केर अचल नींव राखि देलीह। कोन अवसर पर कि भ’ गेल! स्त्रीक विश्वास कयकेँ हम ओहिना मारल गेलहुँ जेना योग केर सिद्धिरूपी फल भेटबाक समय योगी केँ अविद्या नाश कय दैत छैक।

७. एहि प्रकारें राजा मनहि-मन बहुते झखि रहला अछि। राजाक एहेन खराब हालत देखि दुर्बुद्धि कैकेइ भितरे-भीतर बहुत क्रोधित भेली आ बजलीह – की भरत अहाँ पुत्र नहि थिक? की हमरा अहाँ दाम दय कीनि अनने छी या हमहुँ अहाँक विवाहित पत्नी छी?  हमर वचन सुनिते अहाँ केँ बाण जेकाँ लागल त अहाँ सोचि-बुझि बात कियैक नहि कहैत छी? उत्तर दिअ – हाँ करू, नहि त ना करू। अहाँ रघुवंश मे सत्य प्रतिज्ञा वला प्रसिद्ध राजा थिकहुँ। अपने अहाँ वर देबाक बात कहने रही, आब भले नहि दिअ। सत्य केँ छोड़ि दियौ आ जग भरि मे अपयश लिअ। सत्य केर बड़ा सराहना करैत वर देबाक बाक कहने रही। बुझलहुँ जे हम भुज्जे-भर्री माँगि लेब। राजा शिबि, दधीचि आर बलि जे किछु कहलखिन से सब शरीर आर धन केर त्याग करैत अपन वचनक प्रतिज्ञा निभेलखिन।

८. कैकेइ बहुतो प्रकार कड़ुआ वचन कहि रहली अछि, मानू जरल पर नून छिट रहली अछि। धर्म केर धुरी केँ धारण करयवला राजा दशरथ धीरज धरैत आँखि खोललनि आ माथ नोचैत लम्बा साँस लय एना बजलाह मानू ई हमरा सामने एहेन परिस्थिति उत्पन्न कय देलक जाहि सँ बचनाय कठिन भ’ गेल अछि, हुनका प्रचंड क्रोध सँ जरैत कैकेइ एना देखाय देलखिन मानू क्रोधरूपी तलवार म्यान सँ बाहर भ’ नंगा नाचि रहल हो। कुबुद्धि ओहि तलवारक मूठ थिक, निष्ठुरता धार थिक आर ओ कुबरी मन्थरा रूपी सान पर धार तेज भेल अछि। राजा देखलनि जे ई तलवार बड़ा भयानक आ कठोर अछि। ओ सोचय लगलाह जे कि सच्चे ई हमर जीवन हरि लेत? राजा अपन छाती कड़ा करैत अत्यन्त नम्रता सँ कैकेइ केँ प्रिय लागयवला वाणी बजलाह – हे प्रिये! हे भीरु! विश्वास आर प्रेम केँ नष्ट कयकेँ एहेन खराब वचन कियैक कहि रहलहुँ अछि। हमर त भरत आ रामचन्द्र दुइ आँखि थिकाह, हम शंकरजी केँ साक्षी राखि ई सत्य कहैत छी। हम भोरेभोर अवश्ये टा दूत पठायब। दुनू भाइ भरत-शत्रुघ्न सुनिते देरी तुरन्त आबि जेता। नीक दिन – शुभ मुहूर्त देखाकय आ सब तैयारी कय केँ डंका बजाकय हम भरत केँ राज्य दय देबनि। राम केँ राज्यक लोभ नहि छन्हि आर भरत पर हुनकर बड पैघ स्नेह छन्हि। हम त अपना मोन मे बड़-छोट केर विचार कयकेँ राजनीति केर पालन कय रहल छलहुँ, जेठका केँ राजतिलक देबय जा रहल छलहुँ। रामक सौ बेर सौगन्ध खाकय हम स्वभावहि सँ कहैत छी जे राम केर माता कौसल्या एहि सम्बन्ध मे हमरा सँ किछुओ नहि कहलनि अछि। हँ, ई बात सही छैक जे ई सब बात अहाँ सँ बिना पुछनहि हम कयलहुँ। एहि सँ हमर मनोरथ खाली चलि गेल। आब क्रोध छोड़ू आर मंगल साज सँ सजि जाउ। किछुए दिनक बाद भरत युवराज भ’ जेताह। एक्के टा बात के हमरा दुःख लागल जे अहाँ दोसर वरदान बड़ा भारी अड़चन केर माँगलहुँ। ओकर आँच सँ आब हमर हृदय जरि रहल अछि। ई हँसी-दिल्लगी मे, क्रोध मे अथवा सचमुचे मे सच्च अछि की? क्रोध केँ त्यागिकय राम केर अपराध त बताउ। सब कियो त कहैत छथि जे राम बड साधु व्यक्तित्व छथि। अहाँ स्वयं सेहो रामक सराहना करैत रहल छी आर हुनका पर अहाँक बहुत स्नेह सेहो अछि। आब ई बात सुनिकय हमरा सन्देह भ’ गेल जे अहाँक प्रशंसा आर स्नेह कहीं झूठ त नहि छल? जेकर स्वभाव शत्रुअहु केर अनुकूल हो, ओ भले माताक प्रतिकूल आचरण कियैक करता? हे प्रिये! हँसी और क्रोध छोड़ि दिअ आर विवेक (उचित-अनुचित) विचारिकय वर माँगू जाहि आब हमर नेत्र भरिकय भरतक राज्याभिषेक देखि सकी। मछली चाहे बिना पानि के जिबैत रहि जाय आर साँप चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी भ’ कय जिबैत रहि जाय, मुदा हम स्वभावहि सँ कहैत छी, मोन मे कनिकबो छल राखिकय नहि, हमर जीवन राम के बिना संभव नहि अछि। हे चतुर प्रिये! जी मे सोचि-बुझिकय देखू, हमर जीवन श्री राम केर दर्शनक अधीन अछि।

९. राजाक कोमल वचन सुनिकय दुर्बुद्धि कैकेइ अत्यन्त जरि रहली अछि, मानू अग्नि मे घी केर आहुति पड़ि रहल हो। ओ जवाब दैत बजलीह – अहाँ करोड़ों उपाय कियैक न करी, एतय अहाँक माया (चालबाजी) नहि चलत। या त हम जे मँगलहुँ से दिअ, नहि त ‘नहि देब’ कहिकय अपयश लिअ। हमरा बेसी बखेड़ा नहि सोहाइत अछि। राम साधु छथि, अहाँ स्वयं बड़का सियान साधु छी आर राम के माता सेहो बड नीक छथि, हम सब केँ चिन्हि गेलहुँ। कौसल्या जेहेन हमर भलाई चाहलनि अछि हमहुँ हुनका याद राखय योग्य तेहने फल देबनि। भोर होइते मुनिक वेष धारण कय जँ राम वन केँ नहि जाइत छथि त हे राजन्! मोन मे निश्चय करैत बुझि जाउ जे हमर मरण होयत आ अहाँक अपयश!

१०. एतेक कहिकय कुटिल कैकेइ उठिकय ठाढ़ भ’ गेलीह, मानू क्रोध केर नदी उमड़ि पड़ल हो। ओ नदी पापरूपी पहाड़ सँ प्रकट भेली अछि आर क्रोधरूपी जल सँ भरल छथि, एतबा भयानक छथि जे देखल तक नहि जाइत अछि। दुनू वरदान ओहि नदीक दुइ किनारा थिक, कैकेइ केर कठिन हठ टा ओकर तीव्र धारा थिक आर कुबरी मन्थराक वचनक प्रेरणा ओहि नदीक भँवर थिक। ओ क्रोधरूपी नदी राजा दशरथरूपी गाछ केँ जड़ि-मूल सहित ढहाबैत विपत्तिरूपी समुद्र दिश सीधे चलि देने छथि।

११. राजा बुझि गेलथि जे ई एकदम सच अछि जे स्त्रीक बहाने हमर मृत्यु माथ पर नाचि रहल अछि। तदनन्तर राजा कैकेइ केर पैर पकड़ि हुनका बैसाकय विनती कयलनि जे अहाँ कृपापूर्वक सूर्यकुलरूपी गाछ लेल कुरहैर जुनि बनू। अहाँ हमर मुन्ड माँगि लिअ, हम तुरन्त दय देब। मुदा रामक विरह मे हमरा जुनि मारू। जेना मोन हो ताहि तरहें राम केँ राखि लिअ, नहि त जन्मभरि छाती जरैत रहत।

१२. राजा व्याकुल भ’ गेलाह, हुनकर शरीर शिथिल पड़ि गेलनि। मानू जे हथिनी कल्पवृक्ष केँ उखाड़ि फेकने हो। कंठ सुखा गेलनि, मुंह सँ कोनो बात तक नहि निकलैत छन्हि, मानू पानि बिना कोनो माछ तड़पि रहल हो।

१३. कैकेइ फेर कड़वा आ कठोर वचन बजलीह जेना घाव मे जहर भरि रहल होइथ। कहैत छथि जे अन्त मे एहिना करबाक छल त फेर ‘माँग, माँग’ कोन बल पर कहने रही? हे राजा! ठहाका मारिकय हँसब आ गाल फुलायब – कि ई दुनू एक संग भ’ सकैत अछि? दानी सेहो कहायब आ कंजूसी सेहो करब, कि राजपूती मे क्षेम-कुशल सेहो रहि सकैत अछि? लड़ाई मे बहादुरी देखायब आ कतहु चोट नहि लागय ई कतहु सम्भव छैक? या त वचन (प्रतिज्ञा) छोड़ि दिअ या धैर्य धारण करू। एना असहाय स्त्री जेकाँ कानू जुनि। सत्यव्रतीक लेल त शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी – सब तिनका समान कहल गेल अछि।

१४. कैकेइ केर मर्मभेदी वचन सुनिकय राजा कहलखिन जे अहाँ चाहे जे कहू, एहि मे अहाँक कोनो दोष नहि अछि, हमर काल बुझू पिशाच बनिकय अहाँ केँ लागि गेल अछि, वैह अहाँ सँ ई सबटा कहबा रहल अछि। भरत त बिसरियोकय राजपद नहि चाहैत छथि, होनहारवश अहींक जी मे कुमति आबि गेल अछि। ई सब हमर पाप के परिणाम थिक, जाहि सँ कुसमय विधाता विपरीत भ’ गेला अछि। अहाँक उजाड़ल गेल ई सुन्दर अयोध्या फेर नीक सँ बसत आ समस्त गुणक धाम श्री राम केर प्रभुता सेहो होयत, सब भाइ हुनकर सेवा करता आ तीनू लोक मे श्री रामक बड़ाई हेतनि। बस अहाँक कलंक आर हमर पछतावा मरलो पर नहि मेटायत, ई कोनो तरहें नहि जायत। आब अहाँ केँ जे नीक लागय सैह करू। हमरा सोझाँ अहाँ हंटि जाउ, हमरा मुँह तक जुनि देखाउ। हम हाथ जोड़िकय कहैत छी जे जा धरि हम जिबैत रही, ता तक अहाँ हमरा फेर किछु नहि कहब। अरी अभागी! अन्त मे अहाँ बड पछतायब जे ताँतक वास्ते गाय केँ मारि रहल छी।

१५. राजा करोड़ों प्रकार सँ बुझाकय ई कहिकय जे अहाँ कियैक सब चीज केँ नाश कय रहल छी, पृथ्वी पर खसि पड़लाह। लेकिन कपट मे चतुर कैकेइ किछु नहि बजलीह, मौन रहैत मसान जगबैत रहली मानू श्मसान मे बैसिकय प्रेतमंत्र सिद्ध कय रहल छलीह। राजा ‘राम-राम’ रटि रहल छथि, एना व्याकुल छथि जेना कोनो पंछी बिना पाँखि के फरफराइत बेहाल हो। ओ अपन हृदय मे मनबैत छथि जे भोर नहि हुए आ कियो जाकय श्री रामचन्द्रजी सँ ई बात नहि कहय। हे रघुकुल केर गुरुजन, जेठजन, मूलपुरुष सूर्य भगवान्‌! अहाँ अपन उदय नहि करब। अयोध्या केँ बेहाली देखि अहाँक हृदय मे बड पैघ पीड़ा होयत।

१६. राजाक प्रीति आर कैकेइ केर निष्ठुरता – दुनू केँ ब्रह्मा सीमा तक रचिकय बनौलनि, अर्थात राजा प्रेमक सीमा छथि आ कैकेइ निष्ठुरता के। विलाप करिते-करिते राजा केँ भोर भ’ गेलनि। राजद्वार पर वीणा, बाँसुरी आ शंख केर ध्वनि होबय लागल। भाट लोकनि विरुदावली पढ़ि रहल छथि आ गवैया सब गुणक गान कय रहल छथि। ई सब सुनिकय राजा केँ बाण जेकाँ भोंका रहल छन्हि। राजा केँ ई सब मंगल साज केना नहि सोहाइत छन्हि जे पतिक संग सती होयवाली स्त्री केँ गहना नहि सोहाइत छैक।

१७. श्री रामचन्द्रजीक दर्शनक लालसा आर उत्साहक कारण ओहि राति मे केकरो नींद नहि एलय। राजद्वार पर मंत्री लोकनि व सेवक सभक भीड़ लागल अछि। ओ सब सूर्य केर उदय भेल देखि कहैत छथि जे एहेन कोन विशेष कारण अछि जे अवधपति दशरथजी एखन तक नहि जगलाह? राजा नित्य रातिक पैछले पहर जागि करैत छथि, लेकिन आइ बड़ा आश्चर्य भ’ रहल अछि। हे सुमंत्र! जाउ, जाकय राजा केँ जगाउ। हुनकर आज्ञा पाबि हमरा लोकनि आगू सबटा काज करी। तखन सुमंत्र राजमहल मे गेलथि, लेकिन महल केँ भयानक देखि ओ जाइत काल बहुत डराइत छथि। एना लगैत छन्हि मानू किछु दौड़िकय खा जेतनि, ओकरा दिश देखल तक नहि जाइत छन्हि, मानू विपत्ति आ विषाद ओतय स्वयं डेरा देने हुअय। पुछलो पर कोनो जवाब नहि अबैत छन्हि। ओ ओहि महल मे गेलाह जतय राजा और कैकेइ रहथि। ‘जय जीव’ कहिकय मान नमबैत वन्दना कयकेँ बैसि गेलाह आ राजाक दशा देखिकय त ओ सुखइये गेला बुझू।

१८. ओ देखलनि जे राजा सोच सँ व्याकुल छथि। चेहराक रंग उड़ गेल छन्हि। जमीन पर एना पड़ल छथि मानू कम जड़ि छोड़ि मुर्झायल पड़ल हो। मंत्री अत्यन्त डर के कारण किछु पुछियो नहि सकैत छथि। तखन अशुभ सँ भरल आ शुभ सँ विहीन कैकेइ बजलीह – राजा केँ राति भरि नींद नहि एलनि, एकर कारण जगदीश्वरे जानथि। ई बस ‘राम राम’ रटिकय भोर कय देलनि, मुदा एकर भेद राजा किछु नहि बतबैत छथि। अहाँ जल्दी राम केँ बजा आनू। तखन आबिकय समाचार पुछब।

१९. राजाक रुइख जानि सुमंत्रजी चलि देलाह, बुझि गेलाह जे रानी जरूर किछु कुचाइल कयलनि अछि। सुमंत्र सोच सँ व्याकुल छथि, रस्ता पर पैर नहि पड़ैत छन्हि, आगू बढ़ल नहि जाइत छन्हि। सोचैत छथि – रामजी केँ बजाकय राजा कि कहता? कोनो तरहे धीरज धयकय ओ द्वार पर पहुँचलाह। सब कियो हुनका उदास देखिकय कुशल-क्षेम पुछय लागल। सभक समाधान करैत कोनो तरहें समझा-बुझाकय सुमंत्र ओतय गेलाह जतय सूर्यकुल के तिलक श्री रामचन्द्रजी छलाह।

२०. श्री रामचन्द्रजी सुमंत्र केँ अबैत देखलनि त पिताक समान बुझि हुनकर आदर कयलनि। श्री रामचन्द्रजीक मुख देखि आ राजाक आज्ञा सुना ओ रघुकुल केर दीपक श्री रामचन्द्रजी केँ अपनहि संग लय कय चलि देलाह। श्री रामचन्द्रजी मंत्रीक संग जेहने-तेहने अवस्था मे जा रहला अछि, से देखिकय लोक सब जतय-ततय विषाद कय रहल अछि… आखिर कि अछि से सब सोचय पर मजबूर भ’ रहल अछि।

२१. रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी जाकय देखलनि जे राजा अत्यन्त खराब हालत मे पड़ल छथि, मानू सिंहनी केँ देखिकय कोनो बूढ़ गजराज सहमिकय खसल पड़ल हो। राजाक ठोर सुखा रहल छन्हि आ समूचा शरीर जरि रहल छन्हि, मानू मणिक बिना साँप दुःखी भ’ रहल हो। बगले मे क्रोध सँ भरल कैकेइ केँ देखलनि मानू साक्षात् मृत्यु ओतय बैसल राजाक जीवनक अन्तिम घड़ी गानि रहल हो।