रामचरितमानस मोतीः कैकेइ केर कोपभवन मे प्रवेश

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

कैकेइ केर कोपभवन मे जायब

१. पापिनी मन्थरा खुब नीक सँ घात लगाकय बाजल – हे रानी! अहाँ कोपभवन मे चलि जाउ। सब बात अत्यन्त सावधानी सँ बनाउ, राजा पर तुरन्ते विश्वास नहि कय लेब, हुनकर बहलायब-फुसलायब मे नहि आबि जायब।

२. कुबरी केँ रानी प्राणक समान प्रिय बुझि बेर-बेर ओकर बुद्धिक बखान कयलीह आ कहलीह – संसार मे तोरा जेहेन हितकारी आइ हमरा लेल कियो नहि अछि। बहल चलि जाइत समय हमरा लेल तूँ सहारा बनलें। यदि विधाता काल्हि जाकय हमर मनोरथ पूर कय देता तँ हे सखी! हम तोरा अपन आँखिक पुतली बना लेब। एहि तरहें दासी केँ खूब आदर दयकय कैकेइ कोपभवन मे चलि गेलीह।

३. विपत्ति (कलह) बिया थिक, दासी वर्षा ऋतु थिक, कैकेइ केर कुबुद्धि ओहि बिया केँ रोपबाक लेल जमीन बनि गेल। ताहि मे कपटरूपी जल पड़िते अंकुरा फुटि गेल। दुनू वरदान ओहि अंकुराक दुइ पत्ता थिक आर अन्त मे एकर दुःखरूपी फल फरत।

४. कैकेइ कोपक सब साज सजिकय कोपभवन मे जाकय पइड़ रहली। राज्य करिते-करिते ओ अपन दुष्ट बुद्धि सँ नष्ट भ’ गेलीह। राजमहल और नगर मे धूमधाम मचि रहल अछि, एहि कुचाइल के बारे केकरो किछु पता नहि छैक। खूब आनन्दित भ’ नगर के सब स्त्री-पुरुष शुभ मंगलाचारक संग सजि रहल अछि। कियो अन्दर जाइत अछि, कियो बाहर निकलैत अछि, राजद्वार पर काफी भीड़ भ’ रहल अछि।

५. श्री रामचन्द्रजीक बाल सखा राजतिलक के समाचार सुनि हृदय मे हर्षित होइत छथि। ओहो सब दस-पाँच गोटे मिलिकय श्री रामचन्द्रजी लग जाइत छथि। हुनका लोकनिक स्नेह भाव केँ मनन करैत प्रभु श्री रामचन्द्रजी आदर करैत कोमल वाणी सँ कुशल क्षेम पुछैत छथि। अपन प्रिय सखा श्री रामचन्द्रजीक आज्ञा पाबि ओ सब आपस मे एक-दोसर सँ श्री रामचन्द्रजीक बड़ाई करिते फेर अपन घर लौटैत छथि आर कहैत छथि – संसार मे श्री रघुनाथजीक समान शील आ स्नेह केँ निभेनिहार के अछि! भगवान हमरा सब केँ यैह देथि जे हम अपन कर्मवश भ्रमण करैत-करैत जाहि-जाहि योनि मे जाय, ताहि-ताहि जन्म मे हम सेवक होइ आ सीतापति श्री रामचन्द्रजी हमर स्वामी होइथ, आर यैह नाता अन्त धरि निर्वाह हुए।

६. नगर मे सभक यैह टा अभिलाषा छैक, लेकिन कैकेइ केर हृदय मे बड़ा भारी जलन भ’ रहल छन्हि। कुसंगति पाबिकय के नष्ट नहि होइत अछि! नीच के मत मुताबिक चलला सँ चतुराई नहि बचि जाइत छैक।

७. संध्याक समय राजा दशरथ आनन्द सँ कैकेइ केर महल मे गेलाह मानू साक्षात स्नेह अपने शरीर धारण कय निष्ठुरता लग गेल हो! कोप भवन केर नाम सुनिते राजा सहमि गेलाह। डरक मारे हुनकर पैर आगू नहि बढ़ि रहल छन्हि।

८. स्वयं देवराज इन्द्र जिनकर भुजाक बल पर राक्षस सँ निर्भय भ’ कय रहैत छथि आर सम्पूर्ण राजा लोकनि जिनकर रुइख देखैत रहैत छथि, वैह राजा दशरथ स्त्रीक क्रोध सुनिकय मुरझा गेलाह।

९. कामदेवक प्रताप और महिमा त देखू! जे त्रिशूल, वज्र और तलवार आदिक चोट अपन अंग पर सहयवला अछि, से रतिनाथ कामदेवक पुष्पबाण सँ मारल गेलाह।

१०. राजा डराइते-डराइत अपन प्यारी कैकेइ लग गेलाह। हुनकर दशा देखिकय हुनका बड़ा भारी कष्ट पहुँचलनि। कैकेइ जमीन पर पड़ल छलीह। पुरना-धुरना मोट-मइल कपड़ा पहिरने रहथि। देहक नाना आभूषण सब उतारिकय फेकि देने छलीह। ओहि दुर्बुद्धि कैकेइ केर ई कुवेषता (खराब वेष) केना फबि रहल अछि, मानू भावी विधवापन केर सूचना दय रहल हो। राजा हुनका लग जाय कोमल वाणी सँ बजलाह – हे प्राणप्रिये! कथी लेल ई तामश आ कियैक रुसल छी?