स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
राम राज्याभिषेकक तैयारी, देवता लोकनिक व्याकुलता तथा सरस्वती सँ हुनका सब द्वारा प्रार्थना
१. सम्पूर्ण अयोध्यावासीक मोन मे आब यैह अभिलाषा छन्हि आर सब देवाधिदेव महादेव सँ प्रार्थना कय केँ कहैत छथि जे राजा अपन जीबिते श्री रामचन्द्र जी केँ युवराज पद दय देथि।
२. एक समय रघुकुल केर राजा दशरथजी अपन सम्पूर्ण समाजक संग राज्यसभा मे विराजमान छलाह। महाराज समस्त पुण्यक मूर्ति छथि, हुनका श्री रामचन्द्रजीक सुन्दर यश सुनिकय बहुते आनन्द भ’ रहल छन्हि। सब राजा हुनकर कृपा चाहैत छथि और लोकपालगण हुनकहि अनुसार अनुकूल भ’ कय प्रीति करैत छथि।
३. पृथ्वी, आकाश, पाताल – तीनू भुवन मे आ भूत, भविष्य, वर्तमान – तीनू काल मे दशरथजीक समान बड़भागी दोसर कियो नहि छथि। मंगल केर मूल श्री रामचन्द्रजी जिनकर पुत्र छथि हुनका लेल जे किछु कहल जाय से कम्मे होयत।
४. राजा स्वाभाविके हाथ मे आइना लय अपन मुंह देखैत मुकुट सरियेलनि। देखलनि जे कान पर उगल केश उज्जर भ’ गेल अछि, माने बुढ़ापा एना उपदेश कय रहल अछि जे हे राजन! श्री रामचन्द्रजी केँ युवराज पद दय अपन जीवन आ जन्म के लाभ कियैक नहि लैत छी। हृदय मे एना विचारि युवराज पद देबाक निश्चय कय राजा दशरथजी शुभ दिन आ सुन्दर समय पाबि प्रेम सँ पुलकित शरीरे आनन्दमग्न मोन सँ अपन गुरु वशिष्ठजी केँ जाकय सुनौलनि। राजा कहलखिन – हे मुनिराज! कृपया हमर निवेदन सुनू। श्री रामचन्द्रजी आब सब प्रकार सँ योग्य भ’ गेल छथि। सेवक, मंत्री, समस्त नगरनिवासी आर जे हमर शत्रु, मित्र या उदासीन छथि – सब केँ श्री रामचन्द्र ओतबे प्रिय छथि जेना ओ हमरा छथि। हुनका रूप मे अहाँक आशीर्वादे मानू शरीर धारण कय केँ शोभित भ’ रहल अछि। हे स्वामी! सब ब्राह्मण लोकनि परिवार सहित अपनहि जेकाँ हुनका सँ स्नेह करैत छथि। जे लोक गुरुक चरण रज केँ मस्तक पर धारण करैत अछि, ओ मानू समस्त ऐश्वर्य केँ अपन वश मे कय लैत अछि। एकर अनुभव हमरा समान दोसर कियो नहि कयलक। अहाँक पवित्र चरण रज केर पूजा कयकेँ हम सब किछु पाबि लेलहुँ। आब हमर मोन मे एक्कहि टा अभिलाषा अछि। हे नाथ! ओहो अपनहि के अनुग्रह सँ पूरा होयत।
५. राजाक सहज प्रेम देखि मुनि प्रसन्न होइत बजलाह – नरेश! आज्ञा दिअ! कहू, कि अभिलाषा अछि? हे राजन! अहाँक नाम आ यश सम्पूर्ण मनचाहा वस्तु केँ दयवला अछि। हे राजा सभक मुकुटमणि! अहाँक मोनक अभिलाषा फल केर अनुगमन करैत अछि। अर्थात् अहाँक इच्छा करय सँ पहिनहि फल उत्पन्न भ’ गेल करैत अछि।
६. अपन जी मे गुरुजी केँ सब प्रकार सँ प्रसन्न जानि, हर्षित होइत राजा कोमल वाणी कहलखिन – हे नाथ! श्री रामचन्द्र केँ युवराज बनाउ। कृपा कयकेँ आज्ञा दिअ त तैयारी आरम्भ कयल जाय। हमरा जीते-जी ई आनन्द उत्सव भ’ जाय, सब कियो अपन नेत्र केर लाभ प्राप्त करय। प्रभु (अहाँ) के प्रसाद सँ शिवजी सब किछु निबाहि देलनि, सब इच्छा पूर्ण कय देलनि, मात्र ई एक लालसा मोन मे रहि गेल अछि। एहि लालसा केँ पूर्ण भ’ गेला पर कोनो सोच नहि रहत, शरीर रहय वा चलि जाय, जाहि सँ हमरा पाछू पछतावा नहि हुए।
७. दशरथजीक मंगल ओ आनन्द केर मूल सुन्दर वचन सुनिकय मुनि मनहि-मन खूब प्रसन्न भेलथि आ कहलथि – हे राजन्! सुनू! जाहि सँ विमुख भ’ लोक पछताइत अछि आ जिनकर भजन बिना जी केर जलन नहि जाइत छैक, वैह स्वामी सर्वलोक सर्वलोक महेश्वर श्री रामजी अपनेक पुत्र भेला अछि, जे पवित्र प्रेम के अनुगामी छथि। श्री रामजी पवित्र प्रेम के पाछू-पाछू चलयवला छथि, ताहि सँ त प्रेमवश अहाँक पुत्र भेला अछि। हे राजन्! आब देरी नहि करू, जल्दिये सब सामान सजाउ। शुभ दिन आ सुन्दर मंगल तखनहि अछि जखन श्री रामचन्द्रजी युवराज बनि जेता। यानि हुनकर अभिषेक लेल सबटा दिन शुभ आ मंगलमय अछि।
८. राजा आनन्दित होइत महल मे अयलाह आ सेवक तथा मंत्री लोकनि केँ बजौलनि। ओहो सब ‘जय जीवन’ कहिकय हाजिर भ’ राजाक आगू मस्तक नमौलनि। राजा हुनका सब सँ सुन्दर मंगलमय वचन सुनबैत कहलनि जे श्री रामजी केँ युवराज पद देबाक निर्णय कयल गेल अछि। जँ पंच लोकनि – अहाँ सब केँ ई मत नीक लागय त हृदय मे हर्षित भ’ अहाँ सब श्री रामचन्द्रजीक राजतिलक करू।
९. ई प्रिय वाणी केँ सुनिते मंत्री सब एना आनन्दित भेलाह मानू हुनका सभक मनोरथ रूपी गाछ मे पानि पड़ि गेल हो। ओ सब हाथ जोड़ि विनती करैत कहैत छथि – हे जगत्पति! अपने करोड़ों वर्ष जिबू। अपने जग भरि केर मंगल करयवला बहुत पैघ आ शुभ कार्य के सोच बनेलहुँ अछि। हे नाथ! शीघ्रता सँ एहि काज केँ कयल जाय।
१०. मंत्री लोकनिक सुन्दर वाणी सुनि राजा केँ एहेन आनन्द भेलनि मानू बढैत बेलीक डार्हि केँ सुन्दर सहारा भेटि गेल हो। ओ बजलाह – श्री रामचन्द्रजीक राज्याभिषेक लेल मुनिराज वशिष्ठजीक जे-जे आज्ञा हो से सबटा अपने लोकनि तुरन्त करी।
११. मुनिराज हर्षित होइत कोमल वाणी बजलाह जे सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थ केर जल ल’ आनू। फेर ओ औषधि, मूल, फूल, फल और पत्र आदि अनेकों मांगलिक वस्तु सभक नाम गानिकय बतौलनि। चँवर, मृगचर्म, बहुतो प्रकारक वस्त्र, असंख्यो जातिक ऊनी आ रेशमी कपड़ा, नाना प्रकारक मणि (रत्न) आ आरो बहुते तरहक मंगल वस्तु सब जे जगत मे राज्याभिषेक योग्य होइत अछि, सब किछु मंगेबाक ओ आज्ञा देलनि। मुनि वेद मे कहल गेल सब विधान कहिकय नगर मे बहुतो रास मंडप सजेबाक आज्ञा सेहो देलखिन। फल समेत आम, सुपारी, केराक गाछ नगरक गली मे चारू दिश रोपि दियौ, सुन्दर मणि सँ मनोहर चौक भरि दियौक आ बाजार केँ तुरन्त सजा दियौक – श्री गणेशजी, गुरु और कुलदेवता केर पूजा करू आ भूदेव ब्राह्मण लोकनिक सब प्रकार सँ सेवा करू। ध्वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़ा, रथ और हाथी सब केँ सजाउ! मुनि वशिष्ठजी सब केँ निर्देशन दैत ई सब बात कहलखिन।
१२. मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजीक वचन केँ शिरोधार्य कय सब कियो अपन-अपन काज मे लागि गेलथि। मुनीश्वर जिनका जे काज लेल आज्ञा देलखिन, ओ सब वैह काज एतेक शीघ्रता सँ कय देलक मानू पहिनहि सँ कय केँ रखने हुए। राजा ब्राह्मण, साधु आ देवता सब केँ पूजि रहल छथि आ श्री रामचन्द्रजीक लेल सब मंगल कार्य कय रहल छथि।
१३. श्री रामचन्द्रजीक राज्याभिषेकक खबरि सुनिते अवध भरि मे खूब धूमधाम मचि गेल आ चारू दिश बधावा बाजय लागल।
१४. श्री रामचन्द्रजी आ सीताजीक शरीर मे सेहो शुभ शकुन सूचित भेलनि। हुनका दुनूक सुन्दर मंगल अंग फड़कय लगलनि। पुलकित होइत ओ दुनू गोटे प्रेम सहित एक-दोसर सँ कहैत छथि जे ई सब शकुन भरत के वापस एबाक सूचना दयवला अछि। हुनका मामा गाम गेला बहुत दिन भ’ गेल अछि, हुनका सँ भेटबाक इच्छा बेर-बेर मोन मे अबैत अछि। शुभ शकुन भेला सँ भरतक मिलन हेबाक विश्वास बढ़ि जाइत अछि। आर भरत समान जग भरि मे हमरा सब केँ दोसर के प्रिय अछि! शकुन केर बस यैह टा फल थिक, दोसर किछु नहि।
१५. श्री रामचन्द्रजी केँ भाइ भरत केर दिन-राति एहेन सोच रहैत छन्हि जेना कछुआ के हृदय अंडा मे रहल करैत छैक। एहि घड़ी परम मंगल समाचार सुनिकय सारा रनिवास हर्षित भ’ जाइत अछि। जेना चन्द्रमा केँ बढैत देखि समुद्र मे लहर केर विलास (आनन्द) सुशोभित होइत छैक, किछु यैह अवस्था देखाइत अछि। सबसँ पहिने जे रनिवास मे ई समाचार जाय कय सुनेलक ओकरा बहुत रास आभूषण ओ वस्त्र प्राप्त भेलैक। रानी लोकनिक शरीर प्रेम सँ पुलकित भ’ गेलनि आ मोन प्रेम मे मग्न भ’ गेलनि। ओ लोकनि मंगल कलश सजाबय लगलीह।
१६. सुमित्राजी मणि (रत्न) केर बहुतो तरहक सुन्दर आ मनोहर चौका बनेलीह। आनन्द मे मग्न भेल श्री रामचन्द्रजीक माता कौसल्याजी ब्राह्मण लोकनि केँ बजाकय खूब दान देलीह। ओ ग्रामदेवी, देवता आर नाग केर पूजा कयलीह आ फेर बलि भेंट देबाक लेल कहली। कार्य सिद्ध भेलापर पूजा करबाक मनौती (कोबला) कयलीह। संगहि ओ प्रार्थना कयलीह जाहि सँ श्री रामचन्द्रजीक कल्याण होइन्ह, दया कय वैह वरदान देबाक लेल विनती कयलीह।
१७. कोयल समान मीठ वाणीवाली, चन्द्रमाक समान मुखवाली और हिरनक बच्चा समान नेत्रवाली स्त्रीगण लोकनि मंगलगान करय लगलीह। श्री रामचन्द्रजीक राज्याभिषेक सुनिकय सब स्त्री-पुरुष हृदय मे हर्षित भ’ उठलाह आर विधाता केँ अपना अनुकूल बुझि ओ सब सुन्दर मंगल साज सजाबय लगलाह।
१८. राजा वशिष्ठजी केँ समाद देलनि आ समयोचित उपदेश देबाक लेल श्री रामचन्द्रजीक महल मे जेबाक आग्रह कयलनि। गुरुक आगमन सुनिते श्री रघुनाथजी दरबज्जा पर आबिकय हुनकर चरण मे मस्तक नमेलनि। आदरपूर्वक अर्घ्य दय हुनका घर मे लय अनलाह आ षोडशोपचार सँ पूजा कय हुनक सम्मान कयलनि। फेर सीताजी सहित हुनकर चरण स्पर्श कय कमल समान दुनू हाथ जोड़िकय श्री रामजी बजलाह – यद्यपि सेवकक घर स्वामी के आयब मंगल केर मूल आ अमंगल केर नाश करयवला होइत अछि, तथापि हे नाथ! उचित त ई छल जे प्रेमपूर्वक दासहि (हमरे) बजा लितहुँ, नीति त यैह अछि। मुदा अपने अपन प्रभुता केँ छोड़ि स्वयं एतय आबि जे स्नेह कयलहुँ अछि ताहि सँ ई घर पवित्र भ’ गेल। हे गोसाईं! अपने आज्ञा दी, हम ओ काज शीघ्र करी। स्वामीक सेवहि मे सेवक केर लाभ छैक।
१९. श्री रामचन्द्रजीक प्रेम सँ सराबोर वचन सुनि वशिष्ठजी रघुनाथक प्रशंसा करैत कहलखिन – हे राम! भला अहाँ एना कियैक नहि कहब! अहाँ सूर्यवंशक भूषण जे छी! श्री रामचन्द्रजीक गुण, शील आ स्वभाव केर बखान करैत मुनिराज पुलकित होइत बजैत रहलाह – हे रामचन्द्रजी! राजा दशरथजी राज्याभिषेकक तैयारी कयलनि अछि। ओ अहाँ केँ युवराज पद दियए चाहैत छथि। तेँ अहाँ उपवास, हवन आदि विधिपूर्वक सम्पन्न करू, सब संयम अपनाउ जाहि सँ विधाता कुशलपूर्वक एहि काज केँ निबाहि देथि।
२०. गुरुजी शिक्षा दय राजा दशरथजी लग चलि गेलाह। श्री रामचन्द्रजीक हृदय ई सुनिकय एहि बातक खेद भेलनि जे कहू हम सब भाइ एक्के संग जन्म लेलहुँ, खेलहुँ, सुतलहुँ, बचपन के खेल-कूद, कनछेदन, यज्ञोपवीत आ विवाह आदि उत्सव सेहो संगे-संगे कयलहुँ, मुदा एहि निर्मल वंश मे यैह एकटा अनुचित बात भ’ रहल अछि जे आर सब भाइ केँ छोड़िकय राज्याभिषेक केवल बड़के यानि हमरे टा होयत।
२१. तुलसीदासजी कहैत छथि जे प्रभु श्री रामचन्द्रजीक ई सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्त लोकनिक मोनक कुटिलता केँ हरण करैत अछि। ओहि समय प्रेम आ आनन्द मे मग्न लक्ष्मणजी ओतय पहुँचलाह। रघुकुलरूपी कुमुद केँ खिलबयवला चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी प्रिय वचन कहिकय हुनकर सम्मान कयलनि। बहुतो प्रकारक बाजा सब बाजि रहल अछि। नगर के अतिशय आनन्दक वर्णन नहि भ’ सकैछ। सब कियो भरतजीक आगमनक प्रतीक्षा कय रहल छथि, ओ सब मनौती कय रहल छथि ओ जल्दी आबथि आ राज्याभिषेक उत्सव देखि नेत्रक फल प्राप्त करथि। बाजार, रस्ता, घर, गली आर चबूतरा सबपर जहाँ-तहाँ पुरुष व स्त्री लोकनि आपस मे यैह कहैत छथि जे काल्हि ओ शुभ लग्न कखन अछि जखन विधाता हमरा लोकनिक अभिलाषा पूरा करता। जखन सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी सुवर्ण के सिंहासन पर विराजेता आर हमरा सभक मनोकामना पूरा होयत।
२२. एम्हर त सब ई बात कय रहल अछि काल्हि कखन होयत, ओम्हर देवता लोकनि एहि तरहक माहौल सँ बड़ा चिन्ता मे पड़ि रहल छथि जे भगवान जँ राज-काज मे लागि जेता त फेर हमरा सभक काज यानि राक्षस सभक संहार कखन करता। ओ सब कुचक्र करैत एहि मे विघ्न पड़य से मनाबय लगैत छथि। हुनका सब केँ ई बधावा नहि सोहा रहल छन्हि, जेना चोर सब केँ चाँदनी राति नहि भावैत छैक। सरस्वतीजी केँ बजाकय देवता सब विनय कय रहल छथि आर बेर-बेर हुनकर पैर पकड़ि कहैत छथि – हे माता! हमरा सब लेल बड़ा भारी विपत्ति केँ देखि आइ वैह करू जाहि सँ श्री रामचन्द्रजी राज्य त्यागिकय वन गमन करथि आ देवता सभक कार्य सिद्ध हो।
२३. देवता लोकनिक विनती सुनि सरस्वतीजी मनहि-मन काफी पछताइत छथि जे कोना हम कमलवन लेल हेमन्त ऋतु के राति बनी। हुनका एहि तरहें पछताइत देखि देवता सब विनयपूर्वक कहय लगलखिन – हे माता! एहि मे अहाँ केँ कनिको दोष नहि लागत। श्री रघुनाथजी विषाद और हर्ष सँ रहित छथि। अहाँ त श्री रामजी के सब प्रभाव केँ जनिते छी। जीव अपनहि कर्मवश त सुख-दुःख केर भागी होइत अछि। अतएव देवता सभक हितक वास्ते अहाँ अयोध्या जाउ।
२४. बेर-बेर चरण पकड़िकय देवता लोकनि सरस्वती केँ संकोच मे डालि देलखिन। तखन ओ ई विचारिकय चलि देलीह जे देवता सभक बुद्धि बड ओछ छन्हि। हिनका सभक निवास त ऊँच छन्हि लेकिन करनी बड नीच छन्हि। ई सब दोसरक ऐश्वर्य नहि देखि सकैत छथि। मुदा आगू के काज केर विचार कय केँ, जे श्री रामजीक वनगमन सँ राक्षस सभक वध होयत, एहि सँ पूरा जगत सुखी भ’ जायत, चतुर कवि सब हुनक वनवासक चरित्र केर वर्ण करबाक लेल हमरे स्तुति-विनती करता… ई सब विचारिकय सरस्वतीजी हर्षित होइत दशरथजीक अयोध्या पहुँचि गेलीह, मानू दुःसह दुःख दयवाली कोनो ग्रहदशा आयल हो।