शैलेन्द्र झा
“ दु:खक जड़ि : अनियन्त्रित मन “
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स्वभावतः मनुक्ख सदिखन खुश रहैत सुख भोगय चाहैत अछि । ओ शांतिप्रिय ,सुगम आ सफल जिनगी जीबाक आकांक्षा रखैत अछि , मुदा एहि स्थितिमे अयबाक ओ जिनगी भरि संघर्षरत आ अशान्त रहैत अछि । जिनगीक एहि यात्रामे ओकरा रंग-विरंगक उलझन सभक सामना करय पड़ैत छैक । जिनगीक एहि उलझन सभकेँ ओ जतबा सोझरयबाक प्रयास करैत अछि ओतबा आर ओझरायल जाइत छैक । अन्ततोगत्वा ओकरा बुझाइत छैक जेना ओ परिस्थितिक गुलाम अछि । ओकरा परतन्त्रताक अहसास होबय लगैत छैक । ओ एहि बन्धनकेँ तोड़ि मुक्त होबय चाहैत अछि , मुदा परिस्थितिक मजबूत बन्धनक कारणेँ आर जकड़ायल जाइत अछि । देर-सबेर ओकरा बुझबामे कोनो भाङ्गठ नञि रहैत छैक जे एहि परिस्थितिक जनक ओ स्वयं अछि ।
वस्तुत: वास्तविक ज्ञानक अभाव ओकरा एहन स्थितिमे रहबाक लेल मजबूर करैत छैक । सांसारिक चकाचौंधसँ आकृष्ट भ’ आर ओकरा भोगबाक लेल ओ लालायित भ’ उठैत अछि । बहुत संघर्ष कयलोपरान्त ओ सफलताक शीर्ष धरि अबैत अछि , मुदा सांसारिक दृष्टिकोणसँ सफलताक शीर्ष धरि अयलाक बादो ओकर अभ्यन्तरमे छटपटाहटि लगले रहैत छैक । ओकरा अहसास होबय लगैत छैक जे ओकर जीविकोपार्जन लेल अर्जित ज्ञान शांति नञि दऽ कतउ ने कतउ ओकरा अज्ञानताक दलदलमे धँसा रहल छैक । वस्तुतः एहि परिस्थितिमे अयबाक मूल कारण होइत छैक ओकर मनमौजी होयब अर्थात ओ मिथ्याभिमानक चलते मनक अनियन्त्रित चक्रव्यूहमे उलझल रहैत अछि ।
अपनाकेँ शरीरक स्तर पर मानैत ओ सदिखन भावनात्मक रूपें मनक चक्रचालिमे उलझैत रहैत अछि । अपनाकेँ कखनो तटस्थ नञि राखि पबैत अछि । ओकरा चाहिएक जे अपन भावना पर नियन्त्रण राखि परिस्थितिकेँ अपना पर हावी नञि होबय दैक , मुदा से नञि क’ पबैत अछि । अपन बुद्धिक उपयोग क’ मन पर नियन्त्रण नञि क’ पबैत अछि आ सदिखन चञ्चल मनक प्रभावमे विचलित होइत रहैत अछि ।
जिनगीक एहि उलझनकेँ सुलझेबाक लेल मनुक्खकेँ वैदिक वाङ्मयमे देल गेल वास्तविक ज्ञान आ मार्गदर्शनक अनुशरण करबाक चाही । एहि विषम परिस्थितिसँ बाहर निकलबाक लेल अर्थात चञ्चल मनकेँ ऊपर कोना नियन्त्रण कयल जाय ताहि विषयमे भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवगद्गीतामे अर्जुनकेँ विस्तारपूर्वक बतौलनिए ।
वस्तुतः एहि भौतिक संसारमे मनुक्ख सदिखन मन आ इन्द्रियक प्रभावमे रहैत अछि । मनुक्खक सभ दु:खक जड़ि ओकर अनियन्त्रित मन थिकैक । मन सदिखन इन्द्रियतृप्तिक लेल मनुक्खकेँ उकसबैत रहैत छैक आ फलस्वरुप मनुक्ख मिथ्या अहंकारवश सुख भोगक आकांक्षामे प्रकृतिक ऊपर अपन प्रभुत्व जताबयमे फँसल रहैत अछि आ फलस्वरुप गर्तमे धँसल जाइत अछि । इन्द्रियतृप्तिक चक्करमे जे जाहि अनुपातमे लागल रहैत अछि ओ ओहि अनुपातमे एहि संसारमे फँसल रहैत अछि ।
मनुक्खकेँ अपन मनकेँ प्रशिक्षित कऽ नियन्त्रित करबाक चाही जाहिसँ ओ एहि सांसारिक चकचौंधसँ आकृष्ट भ’ अपनाकेँ दु:खक सागरमे नञि खसाबय ।
उद्धेरदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।। ( श्रीमद्भगवगद्गीता 6.5 )
अर्थात मनुक्खकेँ चाहिएक जे ओ अपन मनक सहायतासँ अपन उद्धार करय आर अपनाकेँ नीचा नञि खसाबय । मन मनुक्खक सभसँ पैघ मित्र आ सभसँ पैघ शत्रु सेहो थिकैक ।
आब एतय प्रश्न उठैत छैक जे मनकेँ अपन मित्र कोना बनायल जा सकैत अछि ? मन कोन स्थितिमे मित्र बनैत अछि आ कोन स्थितिमे शत्रु ? एकर उत्तर भगवान श्रीमद्भगवगद्गीतामे अर्जुनकेँ बतौलनि अछि :-
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। ( श्रीमद्भगवगद्गीता 6.6 )
अर्थात जे केओ मनकेँ ऊपर विजय प्राप्त कऽ नियन्त्रित कय लैत छथि हुनका लेल मन सर्वश्रेष्ठ मित्र बनि जाइत छन्हि, मुदा जे मनकेँ नियन्त्रित नञि क’ पबैत छथि , तँ मन हुनकर परम शत्रु बनि जाइत छन्हि । अविजित मन शत्रु बनि सदिखन ओकरा संगमे रहैत छैक । शत्रुक संग रहि सुकूनक जिनगी बितायब कोना सम्भव भ’ सकैत छैक ? एहन स्थितिमे मनुक्खक सुगम आ सफल जिनगीक अभिलाषा नष्ट भ’ जाइत छैक । जाधरि मन अविजित शत्रु बनल रहैत छैक ताधरि मनुक्खकेँ काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि केर आज्ञाकेँ पालन करय पड़ैत छैक , मुदा जखन मन पर विजय प्राप्त होइत छैक तँ ओकरा जिनगी सुगम लागय लगैत छैक । इच्छानुसार भगवानक आज्ञाकेँ पालन क’ पबैत अछि आ फलस्वरुप जिनगी शांतिप्रिय लागय लगैत छैक ।
वस्तुतः हरेक जीव एहि संसारमे ओहि भगवानक आज्ञा पालन करबाक निमित्ते आयल अछि ,जे जन-जनकेँ हृदयमे परमात्मा-रूपमे स्थित छथिन्ह । जखन मन एहि सांसारिक मायाक द्वारा विपथ भ’ जाइत छैक तँ मनुक्ख सांसारिक कार्यकलाप मे उलझि जाइत अछि । एकर विपरीत जखन मन नियन्त्रित होइत छैक तँ जीवात्माकेँ समक्ष भगवद्-आज्ञा पालन करबाक अलावे आर कोनो विकल्प नञि रहि जाइत छैक । ई बुझब परमावश्यक जे मनकेँ वशमे कयलोपरान्त स्वतः परमात्माक आदेशक पालन भ’ जाइत छन्हि । शुद्ध भगवद्भक्त होइतहिं संसारक द्वन्द्व जेना सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी , मान-अपमान इत्यादि सँ ओ अप्रभावित रहैत अछि । मनुक्खक एहि परमोच्च अवस्थाकेँ व्यवहारिक समाधि वा परमात्मा मे तल्लीन होयब कहल जाइत छैक । श्रीमद्भगवगद्गीतामे भगवान अर्जुनकेँ बतौलनि अछि :-
जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: ।। ( श्रीमद्भगवगद्गीता 6.7 )
अर्थात जे मनकेँ जीत लेलक ओ निश्चित रूपें परमात्माकेँ प्राप्त क’ लेलक किएक तँ ओकरा शान्ति भेट गेल छैक । एहन अवस्थाकेँ प्राप्त कयनिहार मनुक्खक लेल सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी आ मान-अपमान सभ एक बराबर होइत छैक । एहि श्लोकक माध्यमसँ भगवान स्पष्ट रूपें अर्जुनकेँ इशारा कयलथिन अछि जे मात्र मनकेँ जीतय वला बद्धजीव शान्तिपूर्वक रहि सकैत अछि ।
मात्र मनकेँ ऊपर विजय प्राप्त कयलोपरान्त शान्ति भेटि सकैत छैक , मुदा व्यवहारिक जिनगीमे की ई सम्भव छैक ? एकटा आम मनुक्खक व्यवहारिक जिनगीक आकलन करैत सभक दिससँ अर्जुन भगवानकेँ प्रश्न करैत छथिन्ह जे हमरा मनकेँ वशमे करब बहुत कठिन लागि रहल अछि । भगवानक ई मार्गदर्शन हुनका बहुत दुष्कर लागल रहनि । श्रीमद्भगवगद्गीतामे अर्जुन भगवानसँ कहलथिन्ह :-
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। ( श्रीमद्भगवगद्गीता 6.34 )
अर्थात हे कृष्ण ! मन तँ बहुत चञ्चल , उच्छृंखल, हठी आ अत्यधिक बलवान अछि । हमरा लगैत अछि जे हवाकेँ वशमे करबासँ बेसी कठिन अछि मनकेँ वशमे करब । एकरा वशमे करब कोना सम्भव भ’ सकैत छैक ?
वस्तुतः एहि संसारमे मनुक्खकेँ रंग-बिरंगक परिस्थितिक सामना करय पड़ैत छैक । स्वभावगत मनुक्ख बहुत संवेदनशील होइत अछि । परिस्थितिक अनुसार कखन क्रोध , विचलन आ प्रसन्नता हेतैक ई कहब मुश्किल । कोन समयमे केहन परिस्थिति सोझामे आबि ठाढ़ भ’ जेतैक ई कहब बड्ड कठिन । एहन बदलैत समस्याक संग एक समान व्यवहार करब व्यवहारिक संसारमे बड्ड दुरूह बात छैक । अर्जुन एहि सभ समस्याकेँ अकानैत भगवानसँ प्रश्न कयने रहथिन्ह । श्रीमद्भगवगद्गीतामे अर्जुनक प्रश्नकेँ समीचीन उत्तर द’ भगवान श्रीकृष्ण बद्धजीवक कल्याण हेतु मनकेँ नियन्त्रित करबाक उपाय बतौलनिए ।
यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।
( श्रीमद्भगवगद्गीता 6.26 )
अर्थात चंचलता आ अस्थिरताक कारणेँ मन जखन कखनो विचलित भ’ विचरणशील होइत छैक तँ ओहन स्थितिमे मनुक्खकेँ चाहिएक जे ओकरा ओतयसँ खींचि अपना वशमे राखय । मनुक्खकेँ चाहिएक जे ओ मनक गुलाम नञि बनय । चञ्चल मनकेँ अपन बुद्धिक द्वारा नियन्त्रित कयकेँ राखय ।
कोनो योगीक योगाभ्यासक परम सिद्धि तखने होइत छैक जखन ओ मनकेँ वशमे क’ लैत अछि । वस्तुतः मन स्वभावसँ चञ्चल आ अस्थिर होइत छैक । मनुक्ख स्वयंसिद्ध तखने भ’ सकैत अछि जखन ओकर मन नियन्त्रित भ’ जाइक । जे केओ मन आ इन्द्रियकेँ वशमे क’ लैत छथि ; वएह गोस्वामी कहबैत छथि अन्यथा ओ गोदास छथि । मनकेँ ध्यानक अभ्यास कय शांत आर एकाग्रचित्त कयल जा सकैत अछि । नियमित ध्यानक अभ्याससँ मनकेँ विचलित होयबासँ रोकल जा सकैत अछि । कहबाक तात्पर्य जे मनकेँ नियन्त्रित मात्र योगाभ्यासक माध्यमसँ कयल जा सकैत अछि ।
भगवान श्रीमद्भगवगद्गीतामे मनकेँ वशमे करबाक विधि सेहो अर्जुनकेँ बतौलनि अछि :-
असंशय महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते ।। ( श्रीमद्भगवगद्गीता – 6.35 )
अर्थात हे महाबाहु कुन्तीपुत्र ! एहिमे कोनो सन्देह नञि जे चञ्चल मनकेँ वशमे करब अत्यंत कठिन छैक ,मुदा उपयुक्त अभ्यास आ विरक्तिक द्वारा एकरा सम्भव कयल जा सकैत अछि ।
भगवान एतय साफ-साफ अर्जुनकेँ बता रहल छथिन्ह जे मनकेँ वशमे करबाक उपाय मात्र अभ्यास आ वैराग्यसँ भ’ सकैत छैक । एतय पहिल प्रश्न उठैत छैक जे कोन चीजक अभ्यास कयलासँ ई सम्भव छैक ? ई अभ्यास मात्र भगवानक भक्ति कयलासँ सम्भव छैक । मनकेँ सभ तरहक दुश्चिन्तासँ शुद्ध करबाक लेल ई परम शक्तिशाली आ दिव्य विधि छैक । मनकेँ भगवानक ऊपर केन्द्रित कयलासँ ई स्वयं ओहि वस्तुक प्रतियें अनासक्त भ’ जाइत छैक जे मनकेँ हुनकासँ दूर ल’ जाइत होइक ।
दोसर प्रश्न उठैत छैक जे वैराग्य की थिकैक ? वैराग्यक अर्थ होइत छैक – पदार्थसँ विरक्ति आ मनकेँ ओहि सभ काजसँ विरक्त क’ लेब जकर भगवानसँ कोनो सम्बन्ध नञि छैक । भगवानक भक्ति कयलासँ मनुक्खकेँ दिव्य तुष्टिक अनुभूति होइत छैक आ शनै:-शनै: मन स्वयं सांसारिक वस्तुसँ विरक्त भ’ जाइत छैक । वैदिक वाङ्मयमे आचार्यगणक कथनानुसार मनकेँ नियन्त्रित करबाक ई सभसँ बढ़ियाँ उपचार मानल गेल अछि । भगवान स्पष्ट रूपें अर्जुनकेँ बतौलनि अछि जे जकर मन उच्छृंखल छैक ओकरा लेल आत्म-साक्षात्कार बहुत दुष्कर होइत छैक , मुदा जँ संयमित मनसँ केओ समुचित उपाय करैत अछि तँ ओकरा जिनगीमे निश्चित सफलता भेटैत छैक ।
अर्जुनक संग संवादक क्रममे उपरोक्त श्लोकक चर्चा कयकेँ श्रीमद्भगवगद्गीतामे भगवान स्पष्ट रूपें एहि बातकेँ बतौलनि अछि जे बद्धजीवक सभ दु:खक कारण ओकर अनियन्त्रित मन थिकैक एवं जिनगीकेँ सुगम आ सफल बनयबाक लेल एकरा नियन्त्रित करब परमावश्यक छैक ।