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रामचरितमानस मोतीः सीता संग राम केर विवाह आ विदाई प्रसंग

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री सीता-राम विवाह, विदाई

पैछला अध्याय मे अयोध्या सँ बरियातीक आगमन आ जनकपुर मे हुनका सभक स्वागतादिक विहंगम प्रसंग छल। सखी लोकनि श्री सीताजी केँ खूब नीक सँ श्रृंगार कय केँ विवाह मंडप मे अनलीह – आगू निरन्तरता मे देखल जाउ विवाह केना सम्पन्न होइत अछि आ जनकनन्दिनी जानकी कोना अपन बेटीधर्म केँ पूरा करैत जनकपुर सँ अयोध्या लेल पति श्रीरामजी संग विदाह होइत छथि।

छन्द :
चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥

सुन्दर मंगल केर साज साजि रनिवासक स्त्रीगण व सखी सब आदर संग सीताजी केँ लय चललीह। सब सुंदरी लोकनि सोलहो श्रृंगार कएने मतवाला हाथी वला चालि सँ चलयवाली रहथि। हुनक मनोहर गायन सुनि मुनि सब सेहो ध्यान करब बिसरि जाइत छथि, कामदेवक कोयली सेहो लजा जाइत छथि। पायजेब, पैंजनी आ सुन्दर कंकण ताल केर गति पर सुन्दर ढंग सँ बाजि रहल अछि।

१. सहज सुन्दरी सीताजी स्त्रीगण लोकनिक समूह मे एना शोभा पाबि रहल छथि मानू जेना छबिरूपी ललना लोकनिक समूह मे परम मनोहर शोभा रूपी स्त्री सुशोभित होइथ। सीताजीक सुन्दरताक वर्णन नहि भ’ सकैछ कियैक तँ बुद्धि बड छोट अछि आ मनोहरता बड पैघ अछि।

२. रूप के राशि आ सब तरहें पवित्र सीताजी केँ बरियाती सब अबैत देखलनि आ सब कियो हुनका मनहि-मन प्रणाम कयलनि।

३. श्री रामचन्द्रजी हुनका देखिकय पूर्णकाम बनि गेलाह।

४. राजा दशरथजी अपन सब पुत्र सहित सीताजी केँ देखि बहुत हर्षित भेलथि। हुनकर हृदय मे जतेक आनन्द छल तेकरा कियो नहि कहि सकैत अछि।

५. देवता लोकनि सीताजी केँ प्रणाम कय हुनका उपर फूलक बरखा कय रहल छथि।

६. मंगल केर मूल मुनि लोकनि द्वारा आशीर्वादक ध्वनि पसैर रहल अछि। गायन व वादनक शब्द सँ भारी शोर मचि गेल अछि। सब नर-नारी प्रेम आ आनन्द मे मग्न भ’ गेल छथि। एहि तरहें सीताजी मंडप मे पहुँचलीह।

७. मुनिराज बहुते आनन्दित भ’कय शांतिपाठ पढ़ि रहल छथि। ताहि अवसर केर सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दुनू कुलगुरु द्वारा पूरा कयल गेल।

८. छन्द :
आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥१॥

कुलाचार कय गुरुजी प्रसन्न भ’ गौरीजी, गणेशजी और ब्राह्मण केर पूजा करबा रहल छथि। देवता सब तँ स्वयं प्रकटे भ’-भ’ अपन पूजा (हविष्य) ग्रहण कय रहल छथि आ आशीर्वाद दैत छथि। सब कियो अत्यधिक सुख पाबि रहल छथि। मधुपर्क आदि जाहि कोनो मांगलिक पदार्थ केँ मुनि जखनहिं मोन मे चाहत टा करैत छथि कि सेवकगण तखनहि सोनाक परात मे आ कलश सब भरिकय ओ सब पदार्थ लयकय हाजिर भ’ गेल करैत छथि।

९.

कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥२॥

स्वयं सूर्यदेव प्रेम सहित अपन कुल केर सब रीति बता दैत छथिन आर ओ सबटा आदरपूर्वक कयल जा रहल अछि। एहि तरहें देवता लोकनिक पूजा करबाकय मुनि सीताजी केँ सुन्दर सिंहासन देलनि। श्री सीताजी और श्री रामजी केर आपस मे एक-दोसर केँ देखनाय आ हुनकर परस्पर प्रेम केकरो नहि देखा पड़ैत छैक, जे बात श्रेष्ठ मन, बुद्धि तथा वाणी सँ पर्यन्त परे हो, से कवि कियैक प्रकट करता?

१०. हवन के समय अग्निदेव शरीर धारण कयकेँ बड़ा सुखपूर्वक आहुति ग्रहण करैत छथि आ सब वेद ब्राह्मणक वेष धयकय विवाह केर विधि बता देल करैत छथि।

११. जनकजीक जगत विख्यात पटरानी और सीताजीक माताक बखान कोना कयल जा सकैत अछि! सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुन्दरता सबकेँ समेटिकय विधाता हुनका बहुत सम्हारिकय तैयार कएने छथि। समय जानि श्रेष्ठ मुनि लोकनि हुनका बजौलनि। ई सुनिते सब सोहागिन स्त्री लोकनि हुनका आदरपूर्वक ओतय (विवाह मंडपमे) अनलनि।

१२. सुनयनाजी जनकजीक बाम-भाग मे एना शोभित भ’ रहली अछि जेना हिमाचल संग मैनाजी शोभित होइथ।
पवित्र, सुगंधित और मंगल जल सँ भरल सोनाक कलश आ मणि केर सुन्दर परात सब राजा और रानी आनन्दित भ’ अपना हाथ सँ आनिकय श्री रामचन्द्रजीक आगू रखलनि।

१३. मुनि मंगलवाणी सँ वेद पढ़ि रहला अछि। सुअवसर जानि आकाश सँ फूलक झड़ी लागि गेल अछि। दूल्हा केँ देखिकय राजा-रानी प्रेममग्न भ’ गेल छथि आर हुनकर पवित्र चरण केँ पखारि रहल छथि।

१४. छन्द :
लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥१॥

ओ लोकनि श्री रामजीक चरण कमल केँ पखारय लगलथि, प्रेम सँ हुनका लोकनिक देहक रोइयां ठाढ़ भ’ रहल छन्हि। आकाश आर नगर मे होयवला गायन, ढोल-नगाड़ा आ जय-जयकारक ध्वनि चारू दिश उमड़ि पड़ल अछि, जे चरणकमल कामदेवक शत्रु श्री शिवजीक हृदयरूपी सरोवर मे सदिखन विराजमान रहैत अछि, जिनकर एको बेर स्मरण कयला सँ मोन मे निर्मलता आबि जाइत अछि आर कलियुग केर सब पाप भागि जाइत अछि,

१५.

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥२॥

जिनकर स्पर्श पाबि गौतम मुनिक स्त्री अहल्या, जे पापमयी छलीह, परमगति पेलनि, जिनकर चरणकमलक मकरन्द रस (गंगाजी) शिवजीक मस्तक पर विराजमान अछि, जिनका देवता सब पवित्रताक सीमा बतबैत छथि, मुनि और योगीजन अपन मोन के भौंरा बना जिनकर चरणकमल केर सेवन कयकेँ मनोवांछित गति प्राप्त करैत छथि, ओहि चरण केँ भाग्य केर पात्र (बड़भागी) जनकजी धो रहल छथि, ई देखिकय सब कियो जय-जयकार कय रहला अछि।

१६. छन्द

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥३॥

दुनू कुलक गुरु लोकनि वर और कन्याक हथेली मिलाकय शाखोच्चार करय लगलथि। पाणिग्रहण भेल देखि ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि सब आनन्द मे भरि गेलाह। सुख केर मूल दूल्हा केँ देखि राजा-रानीक शरीर पुलकित भ’ गेलनि आ हृदय मे आनन्दक उमंग उठय लगलनि। राजाक अलंकार स्वरूप महाराज जनकजी लोक और वेद केर सब रीति कयकेँ कन्यादान कयलनि।

१७. छन्द

हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥४॥

जेना हिमवान शिवजी केँ पार्वतीजी और सागर द्वारा भगवान विष्णु केँ लक्ष्मीजी देने रहथि, तहिना जनकजी श्री रामचन्द्रजी केँ सीताजी समर्पित कयलथि जाहि सँ विश्व मे सुन्दर नवीन कीर्ति छा गेल। विदेह (जनकजी) केना विनती करथि! ओ साँवला मूर्ति त हुनका सचमुच विदेह यानि देहक सुधि-बुधि सँ रहित कय देने रहनि। विधिपूर्वक हवन कयकेँ गठजोड़ी कयल गेल आ भाँवर (अग्निकुंड केर परिक्रमाक विध) हुए लागल।

१८. जय ध्वनि, वन्दी ध्वनि, वेद ध्वनि, मंगलगान व नगाड़ाक ध्वनि सुनिकय देवगण हर्षित भ’ रहल छथि आर कल्पवृक्षक फूल बरसा रहल छथि। वर आर कन्या सुन्दर भाँवर दय रहल छथि। सब कियो आदरपूर्वक हुनका देखिकय अपन नयन (आँखि) केर परम लाभ उठा रहल छथि।

१९. मनोहर जोड़ीक वर्णन नहि भ’ सकैत अछि, जे किछु उपमा देल जायत ओ कम्मे होयत। श्री रामजी और श्री सीताजीक सुन्दर परछाही मणिक खम्भा सब मे झलफला रहल अछि, मानू कामदेव आ रति बहुत रास रूप धारण कयकेँ श्रीरामजीक अनुपम विवाह देखय आबि गेल होइथ। हुनको सब केँ दर्शनक लिलसा छन्हि लेकिन मोनेमोन लाज सेहो भ’ रहल छन्हि जे प्रकट रूप मे केना उपस्थित होउ…., ताहि लेल ओ सब बेर-बेर प्रकट होइत छथि आ फेर नुकाइयो जाइत छथि।

२०. सब देखनिहार आनन्दमग्न भ’ गेलाह आ जनकजी जेकाँ सब अपन सुधि-बुधि बिसरि गेलाह। मुनि लोकनि आनन्दपूर्वक भाँवर घुमौलनि आर नेग सहित आन-आन वैवाहिक विध सब पूरा करबौलनि।

२१. आब श्री रामचन्द्रजी सीताजीक सीथ मे सिन्दूर दय रहला अछि, ई शोभा कोनो तरहें नहि कहल जा सकैछ। मानू जेना कमल केर लाल पराग सँ खूब बढियाँ जेकाँ भरल अमृतक लोभे कोनो साँप चन्द्रमा केँ भूषित कय रहल हो! (एतय श्री राम केर हाथ केँ कमल के, सिन्दूर केँ पराग के, श्री राम केर श्याम भुजा केँ साँप के आर सीताजीक मुखमंडल केँ चन्द्रमा के उपमा देल गेल अछि।)

२२. फेर वशिष्ठजी आज्ञा देलखिन तखन दूल्हा आर दुल्हिन एक आसन पर बैसलथि।

छन्द:
बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥१॥

श्री रामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैसलथि, हुनका देखिकय दशरथजी मन मे खूब आनन्दित भेलथि। अपन सुकृत रूपी कल्प वृक्ष मे नव फल लागल देखि हुनकर शरीर बेर-बेर पुलकित भ’ रहल छन्हि। चौदहो भुवन मे उत्साह भरि गेल। सब कहलक जे श्री रामचन्द्रजीक विवाह भ’ गेलनि। जिह्वा एक गोट अछि आ ई मंगल कथा-गाथा बहुत महान अछि, तखन भला एकर वर्णन कयकेँ कोना समाप्त कयल जा सकैत अछि!

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥२॥

तखन वशिष्ठजीक आज्ञा पाबि जनकजी विवाहक सामान सजाकय माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी एहि तीनू राजकुमारी सब केँ बजौलनि। कुशध्वज केर बड़की कन्या माण्डवीजी जे गुण, शील, सुख आ शोभाक रूप छलीह, राजा जनक प्रेमपूर्वक सब रीति पूर्ण करैत भरतजीक संग हुनकर विवाह कय देलनि।

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥३॥

जानकीजीक छोट बहिन उर्मिलाजी केँ सब सुन्दरी मे शिरोमणि जानि सब प्रकार सँ सम्मान कयकेँ लक्ष्मणजी संग ब्याहल गेल आर जिनकर नाम श्रुतकीर्ति छन्हि आ जिनकर सुन्दर नेत्र, सुन्दर मुख आ सब गुणक खान आर रूप व शील मे चारूदिश प्रसिद्धि प्रसरित अछि हुनका राजा शत्रुघ्नजी सँ ब्याह करौलनि।

अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥४॥

दूल्हा आ दुलहिन सब परस्पर अपन-अपन अनुरूप जोड़ी केँ देखि लजाइत हृदय मे हर्षित भ’ रहल छथि। सब लोक प्रसन्न भ’ कय हुनका लोकनिक सुन्दरताक सराहना करैत अछि आर देवगण सब फूल बरसा रहल छथि। सब सुन्दरी दुल्हिन सुन्दर दूल्हा सभक संग एकहि मंडप मे एना शोभा पाबि रहल छथि मानू जीव केर हृदय मे चारू अवस्था – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आ तुरीय अपन चारू स्वामी विश्व, तैजस, प्राज्ञ व ब्रह्म सहित विराजमान् होइथ।

२३. सब पुत्र केँ बधूक संग देखि अवध नरेश दशरथजी एना आनन्दित छथि मानू ओ राजाक शिरोमणि सब क्रिया – यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया व ज्ञानक्रिया सहित चारू फल अर्थ, धर्म, काम आ मोक्ष पाबि गेल होइथ।

२४. श्री रामचन्द्रजीक विवाह केर जे विधि वर्णन कयल गेल अछि ताहि रीति सँ सब राजकुमार ब्याहल गेलथि। सभक लेल जे सब उपहार (साँठ-सगुनक समान सब) देल गेल तेकर अधिकता किछुओ कहल नहि जा सकैछ, सब मंडप सोना आ मणि सँ भरि गेल छल। बहुते रास कम्बल, वस्त्र आर भाँति-भाँति के विचित्र रेशमी कपड़ा सब जे बहुमूल्य छल, हाथी, रथ, घोड़ा, दास-दासी आ गहना सँ सजल कामधेनु समान गाय, इत्यादि अनेकों वस्तु देल गेल छल। एकर गिनती नहि कयल जा सकैत छल ततेक चीज-वस्तु बेटी-जमाय केँ राजा जनक दान कयलनि। ई सब देखिकय लोकपाल सेहो सिहैर उठलाह। अवधराज दशरथजी सुख मानि प्रसन्नचित्त सँ सब किछु ग्रहण कयलनि। ओ ताहि सब दान-उपहारक सामान याचक जिनका जे नीक लगलनि से दय देलथि। जे बचल रहल से जनवासा मे पठा देल गेल। तखन जनकजी हाथ जोड़िकय सब बरियातीक सम्मान करैत कोमल वचन बजलाह –

छन्द :
सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥१॥

आदर, दान, विनय और बड़ाई करैत सब बरियाती केँ सम्मान कय राजा जनक प्रेमपूर्वक मुनि लोकनिक पूजा एवं वन्दना कयलथि। सिर नमाकय, देवता लोकनि केँ मनाकय, राजा हाथ जोड़िकय सबसँ कहय लगलाह जे देवता आर साधु केँ भाव मात्र चाही, ओ त प्रेम मात्र सँ प्रसन्न भ’ जाइत छथि, ओहि पूर्णकाम महानुभाव लोकनि केँ कियो किछु दय कय कोना सन्तुष्ट कय सकैत अछि, कि एक आंजुर जल देला सँ कतहु समुद्र सन्तुष्ट भ’ सकैत अछि!

कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥२॥

फेर जनकजी भाई सहित हाथ जोड़िकय कोसलाधीश दशरथजी सँ स्नेह, शील आर सुन्दर प्रेम मे सानल मनोहर वचन बजलथि – हे राजन्‌! अहाँक संग सम्बन्ध भेला सँ आब हम सब तरहें पैघ भ’ गेलहुँ। ई राज-पाट सहित हमरा दुनू केँ अहाँ बिना मोलहि के मोल लेल सेवक बुझब।

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥३॥

एहि बचिया सब केँ टहलनी मानिकय, नित्य-नव दया कयकेँ पालन करब। हम बड़ ढिठाई कयल जे अहाँ केँ एतय बजा लेल, अपराध क्षमा करब। फेर सूर्यकुलक भूषण दशरथजी समधि जनकजी केँ सम्पूर्ण सम्मानक निधि बना देलनि, अर्थात् एतबा अधिक सम्मान देलनि जे सारा सम्मानक भंडार समधि जनकजी बनि गेलाह। हुनका लोकनिक आपस मे कयल गेल विनय के बात कहल नहि जा सकैत अछि, दुनूक हृदय प्रेम सँ परिपूर्ण छन्हि।

बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥४॥

देवतागण फूल बरसा रहल छथि, राजा जनवासा लेल चलि देलनि। नगाड़ाक ध्वनि, जयध्वनि आ वेदध्वनि सँ चारू कात आ आकाश व नगर सब दिश गुंजायमान भ’ गेल अछि। सब दिश आनन्दे-आनन्द छा गेल अछि। तखन मुनीश्वर केर आज्ञा पाबि सुन्दरी सखी लोकनि मंगलगान करैत दुल्हिन सभक संग दूल्हा सब केँ लयकय कोहबर लय गेलीह।

२५. सीताजी बेर-बेर रामजी केँ देखैत छथि आ लजा जाइत छथि, हुनकर मोन धरि नहि लजाइत छन्हि। प्रेमक प्यासल हुनकर नेत्र सुन्दर मछरीक छबि केँ हरण कय रहल अछि।

२६. श्री रामचन्द्रजीक श्यामल शरीर स्वभावहि सँ सुन्दर अछि, हुनक शोभा करोड़ों कामदेवहु केँ लजाबयवला अछि। महावर (लाहसहित तैयार कयल लाल रंग सँ एंड़ी पर चढ़ल रंग केँ महावर कहल जाइछ) सँ युक्त चरणकमल बहुत सोहावन लगैत छन्हि जाहि पर मुनि लोकनिक मनरूपी भौंरा सदिखन लुधकल रहैत अछि। पवित्र आ मनोहर पियर धोती प्रातकालक सूर्य आ बिजलीक ज्योति केँ सेहो हरण कय रहल अछि। डाँर्ह मे सुन्दर टुनटुना आ डोराडोरि छन्हि। विशाल भुजा मे सुन्दर आभूषण सुशोभित छन्हि। पियर जनेऊ महान शोभा दय रहल अछि। हाथक औँठी चित्त चोरा लैत अछि। ब्याह केर सब साज सजौने ओ अत्यधिक शोभा पाबि रहल छथि। चौड़गर छाती पर हृदयपर पहिरयवला सुन्दर आभूषण सुशोभित छन्हि। पियर दोपटा काँखासोती (जनेऊ जेकाँ जनेऊ केर उपर सँ देहपर लपेटल गेल दोपटा) शोभित अछि, जेकर दुनू छोर पर मणि और मोती लागल अछि। कमल समान सुन्दर नेत्र छन्हि, कान मे सुन्दर कुंडल छन्हि आर मुंह त’ समस्त सुन्दरताक खजाने छन्हि। सुन्दर भौंह आर मनोहर नासिका छन्हि। ललाट पर तिलक तँ सुन्दरताक घरहि बुझू, जाहि मे मंगलमय मोती आर मणि गुँथल गेल अछि, एहेन मनोहर मौर माथा पर सोहा रहल अछि।

छन्द :
गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥१॥

सुन्दर मौर मे बहुमूल्य मणि गुँथल छन्हि, सब अंग चित्त चोरबयवला छन्हि। सारा नगर केर स्त्री व देवसुन्दरी लोकनि दूल्हा केँ देखि-देखि घास खोंटि रहली अछि, हुनकर बलैया लय रहली अछि, आर मणि, वस्त्र व आभूषण निछावर कय-कय आरती उतारि रहली अछि। सब कियो मंगलगान कय रहली अछि। देवता लोकनि फूल बरसा रहला अछि। मागध व भाट सुयश गाबि-गाबि कय सुना रहला अछि।

कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥१॥

सोहागिन स्त्रीगण सब सुख पाबिकय कुँअर आर कुमारी लोकनि केँ कोहबर मे लय गेलथि आर अत्यन्त प्रेम सँ मंगलगीत गाबि-गाबिकय लौकिक रीति सब करय लगलीह। पार्वतीजी श्री रामचन्द्रजी केँ मौहक केर लहकौर (वर-वधू केँ परस्पर ग्रास देनाय) सिखबैत छथि आर सरस्वतीजी सीताजी केँ सिखबैत छथि। रनिवास हास-विलास केर आनन्द मे मग्न अछि, श्री रामजी और सीताजी केँ देखि-देखिकय सब कियो अपन-अपन जन्म केर परम फल प्राप्त कय रहल अछि।

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥३॥

अपन हाथक मणि मे सुन्दर रूप के भण्डार श्री रामचन्द्रजीक परछाहीं देख रहली अछि, से देखि जानकीजी दर्शन मे वियोग होयबाक भय सँ बाँहिरूपी लता केँ और दृष्टि केँ कनिकबो हिलबैत-डोलबैत नहि छथि, मतलब जे एकटक अपन प्रियतम केर रूप-सौन्दर्य केँ चुपचाप मणि मे अभरल परछाहीं मार्फत आनन्दमग्न भ’ देखि रहली अछि। ताहि समय केर हँसी-खेल आ विनोदक आनन्द व प्रेम कहल नहि जा सकैछ, ओ सब सखी लोकनि मात्र जनैत छथि। तदनन्तर वर-कन्या केँ सब सुन्दर सखी लोकनि जनवासा लेल लय गेलीह।

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चार्‌यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगींद्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥४॥

ओहि समय नगर आर आकाश मे जतय सुनब, केवल आशीर्वादक ध्वनि मात्र सुनाइ दियए आर सब दिश महान आनन्द छा गेल छल। सब कियो प्रसन्न मोन सँ कहलखिन जे सुन्दर-सुन्दर चारू जोड़ी चिरंजीवी होइथ। योगीराज, सिद्ध, मुनीश्वर और देवता लोकनि प्रभु श्री रामचन्द्रजी केँ देखिकय दुन्दुभी बजौलनि और हर्षित भ’ कय फूलक वर्षा करैत तथा ‘जय हो, जय हो, जय हो’ कहैत अपन-अपन लोक लेल विदाह भेलाह।

२७. चारू कुमार अपन जोड़ी सहित पिताजी लग अयलाह। एना बुझि पड़ैत छल मानू शोभा, मंगल आ आनन्द सँ भरिकय जनवासा उमड़ि पड़ल हो।

२८. बहुतो प्रकारक पकवान सब बनल। जनकजी सब बरियाती केँ बजबा लेलनि। राजा दशरथजी पुत्र सहित भोजन लेल विदाह भेलथि। हुनका लोकनिक चलयवला रास्ता पर अनेकों तरहक पाँवड़ (सुन्दर कपड़ा जेकरा कार्पेट कहल जाइत अछि) से स्वागत कयनिहार सरियाती लोकनि रखैत छथि। आदरक संग सभक चरण धोयल जाइत अछि, सब केँ यथायोग्य पीढ़ी पर बैसायल जाइत अछि। तखन जनकजी अवधपति दशरथजीक चरण धोइत छथि। हुनकर शील आ स्नेह केर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। फेर श्री रामचन्द्रजीक चरणकमल केँ धोलनि, जे श्री शिवजी केर हृदय कमल मे नुकायल रहैत अछि। तीनू भाइ केँ श्री रामचन्द्रजीक समान जानि जनकजी सभक चरण अपनहि हाथ सँ धोलनि।

२९. राजा जनकजी सब गोटे केँ उचित आसन देलनि आर सब परसनिहार बारिक लोकनि केँ बजबा लेलनि। आदरक संग पत्तल पड़य लागल, जे मणिक पत्ता सँ सोनाक कील लगाकय बनायल गेल छल तेहेन पत्तल पड़ल। चतुर व विनीत भन्सिया खूब सुन्दर, स्वादिष्ट आ पवित्र दालि-भात व गायक सुगन्धित घी क्षणहि भरि मे सभक सामने परोसल गेल।

३०. सब कियो पंचकौर कय केँ अर्थात ‘प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा’ एहि मंत्र केर उच्चारण करैत पहिने पाँच कौर (ग्रास) लयकय भोजन करय लगलाह। मिथिलानी लोकनिक डहकन (गाइर वला गीत) सुनिकय ओ सब अत्यन्त प्रेममग्न भ’ गेलथि।

३१. अनेकों तरहक अमृतक समान स्वादिष्ट पकवान परोसल गेल जेकर बखान नहि भ’ सकैत अछि। चतुर भन्सिया सब नाना प्रकारक व्यंजन परसय लगलाह, ओतेक नाम के जनैत अछि। चारि प्रकारक (चर्व्य, चोष्य, लेह्य, पेय अर्थात चिबाकय, चूसिकय, चाटिकर आर पीबिकय खेबा योग्य) भोजन केर विधि कहल गेल अछि, ओहि मे सँ एक-एक विधि केर एतेक पदार्थ बनल छल जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि।

३२. छहो रस (मधुर यानि मीठ, अम्ल यानि खट्टा, लवण यानि नमकीन, कड़ू यानि कड़ुगर, तिक्त यानि तीत – नीम जेकाँ तथा कषाय यानि कसैला) केर बहुतो तरहक सुन्दर-स्वादिष्ट व्यंजन छल। एक-एक रस केर अनगिनत प्रकार बनल छल।

३३. भोजनक समय पुरुष आर स्त्रीक नाम लय-लय कय स्त्रीगण लोकनि मधुर ध्वनि सँ गाइर दय रहल छलीह। समय केर सोहाओन गाइर शोभित भ’ रहल अछि। से सुनिकय समाज सहित राजा दशरथजी हँसि रहल छथि।

३४. एहि रीति सँ सब कियो भोजन कयलनि आर तखन सब केँ आदर सहित आचमन – हाथ‍-मुंह धोबाक लेल जल देल गेल। फेर पान दयकय जनकजी समाज सहित दशरथजीक पूजन कयलनि। सब राजा लोकनिक सिरमौर चक्रवर्ती श्री दशरथजी प्रसन्न भ’ कय जनवासा दिश विदाह भेलाह।

३५. जनकपुर मे नित्य नव मंगल भ’ रहल अछि। दिन आर राति पल समान बीति जाइत अछि। खूब भोरे राजा लोकनिक मुकुटमणि दशरथजी जागि गेलाह। याचक लोकनि हुनकर गुण-समूह केर गायन करय लगलाह। चारू कुमार केँ सुन्दर वधू सहित देखिकय हुनकर मोन मे जतबा आनन्द रहनि से कोन तरहें कहल जा सकैत अछि! ओ सब प्रातक्रिया कय गुरु वशिष्ठजी लग गेलाह। हुनका सभक मोन मे महान आनंद और प्रेम भरल छल। राजा प्रणाम आ पूजन कयकेँ, फेर हाथ जोड़िकय अमृत सँ सराबोर रहल वाणी बजलाह – हे मुनिराज! सुनू, अपनेक कृपा सँ आइ हम पूर्णकाम भ’ गेलहुँ। हे स्वामिन्‌! आब सब ब्राह्मण केँ बजाकय हुनका सब तरहें गहना-कपड़ा सँ सजायल गेल गाय दियौन। ई सुनिकय गुरुजी राजाक बड़ाई कयकेँ फेर मुनिगण केँ बजौलनि। तखन वामदेव, देवर्षि नारद, वाल्मीकि, जाबालि आर विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनि लोकनि समूह के समूह अयलाह। राजा सब गोटेकेँ दण्डवत्‌ प्रणाम कयलनि आर प्रेम सहित पूजा कयकेँ हुनका सब केँ उत्तम आसन देलनि।

३६. चारि लाख उत्तम गाय मंगायल गेल जे कामधेनुक समान नीक स्वभाववाली आ बहुते सोहायवाली छल। ताहि सबकेँ गहना-कपड़ा सँ सजाकय राजा प्रसन्न भ’ भूदेव ब्राह्मण लोकनि केँ दान कयलनि। राजा सब ब्राह्मण लोकनि केँ अनेकों प्रकार सँ विनती करैत कहि रहल छथि जे एहि जगत मे जिबय के लाभ हम आइये प्राप्त कयलहुँ। ब्राह्मण लोकनि सँ आशीर्वाद पाबिकय राजा आनंदित भेलथि। फेर याचक लोकनिक समूह केँ बजौलनि आर सब केँ हुनकर अपन रुचि पुछिकय सोना, वस्त्र, मणि, घोड़ा, हाथी और रथ जे जे चाहलनि से सबटा सूर्यकुल केँ आनन्दित करनिहार राजा दशरथजी दान कयलथि। ओ सब दान प्राप्त कयनिहार हुनकर गुणानुवाद गबैत आ ‘सूर्यकुल केर स्वामीक जय हो, जय हो, जय हो’ कहैत ओतय सँ जाइत छथि।

३७. एहि प्रकारे श्री रामचन्द्रजीक विवाह केर उत्सव भेल, जिनकर सहस्र मुख छन्हि, ओ शेषजी सेहो एकर वर्णन नहि कय सकैत छथि।

३८. बेर बेर विश्वामित्रजीक चरण मे सिर नमाकय राजा कहैत छथि – हे मुनिराज! ई सारा सुख अपनहि केर कृपाकटाक्ष केर प्रसाद थिक। फेर राजा दशरथजी जनकजीक स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्यक सब प्रकार सँ सराहना करैत छथि। प्रतिदिन भोरे उठिकय अयोध्या नरेश विदा मँगैत छथि लेकिन जनकजी हुनका प्रेमपूर्वक पोल्हा-रिझाकय रोकि लैत छथि।

३९. आदर नित्य नव ढंग सँ बढ़ित जाइत अछि। प्रतिदिन हजारों प्रकार सँ पहुनाइ होइत अछि। नगर मे नित्य नव आनन्द आ उत्साह रहैत अछि। दशरथजीक गेनाइ केकरो नहि सोहाइत अछि। एहि तरहें बहुतो दिन बीति गेल, मानू जेना बरियाती सब स्नेहक रस्सी मे बन्हा गेल होइथ। तखन विश्वामित्रजी आ शतानन्दजी जाकय राजा जनक केँ बुझाकय कहलखिन – यद्यपि अहाँ स्नेहवश हुनका नहि छोड़ि सकैत छी, तदापि आब दशरथजी केँ आज्ञा दियौन। ‘हे नाथ! बहुत बढियाँ’ कहिकय जनकजी मंत्री सब केँ बजौलनि। ओ सब अयलाह आ ‘जय जीव’ कहिकय हुनका सोझाँ माथ नमेलनि।

४०. जनकजी कहलखिन – अयोध्यानाथ चलय चाहैत छथि, भीतर रनिवास मे खबरि कय दियौन। ई सुनिकय मंत्री, ब्राह्मण, सभासद आर राजा जनक सेहो प्रेमक वश भ’ गेलाह। जनकपुरवासी सुनलनि जे बरियाती जायत त ओ सब व्याकुल भ’ एक-दोसर सँ पुछय लगलाह। गेनाय सत्य छैक से सुनिकय सब कियो एना उदास भ’ गेलाह मानू साँझक समय कमल मुरझा गेल हो।

४१. अबैत समय जतय-जतय बरियाती ठहरल रहथि, ओतय-ओतय बहुतो प्रकार भोजन-पकवान सब पठायल गेल। अनेकों प्रकारक मेवा, पकवान आ भोजनक सामग्री सब जेकर बखान नहि कयल जा सकैत अछि से पठायल गेल। अनगिनत बैलगाड़ी आर कहार पर भरि-भरिकय भार रूप मे पठायल गेल। संगहि जनकजी हुनका सभक वास्ते अनेको सुन्दर शय्या (पलंग) सेहो पठौलनि। एक लाख घोड़ा आर पचीस हजार रथ सब नख सँ शिखा धरि सजायल, दस हजार मतवाला हाथी जे देखिकय दिशासभक हाथी सेहो लजा जाइत अछि से पठायल गेल, गाड़ी मे भरि-भरिकय सोना, वस्त्र और रत्न (जवाहरात) तथा महींस, गाय तथा आरो नाना प्रकारक चीज-वस्तु देल गेल।

४२. एहि तरहें जनकजी अपरिमित दान देलनि जे सबटा कहलो नहि सकैत अछि, जे देखिकय लोकपालक लोक केर सम्पदा सेहो थोड़बे जानि पड़ैत छल। एहि तरहें सबटा सामान सजाकय राजा जनक अयोध्यापुरी लेल पठा देलनि।

४३. बरियाती जायत से सुनिते सब रानी एना उदास भ’ गेलीह मानू कम जल मे मछरी सब छटपटा रहल हो। ओ सब बेर-बेर सीताजी केँ कोरा मे – छाती मे सटाकय अनेकों आशीर्वाद दैत सासुर मे केना रहल जाय से शिक्षा दैत छथि – अहाँ सदिखन अपन पतिक प्यारी होउ, अहाँक सोहाग अचल हुए, हमरा सभक यैह आशीष अछि। सासु, ससुर आर गुरुक सेवा करब। पतिक रुइख देखिकय हुनकर आज्ञाक पालन करब।

४४. संगी-सखी लोकनि सेहो अत्यन्त स्नेह केर वश कोमल वाणी सँ स्त्रीक धर्म सिखबैत छथिन। आदर के संग सब पुत्री केँ स्त्रीक धर्म बुझाकय रानी लोकनि बेर-बेर हुनका हृदय सँ लगौलनि। माता लोकनि घुरि-फिरि भेटैत छथि आर कहैत छथिन जे ब्रह्माजी स्त्री जातिक रचना कियैक कयलनि…!

४५. ताहि समय सूर्यवंश केर पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी भाइ लोकनिक संग प्रसन्न भ’ कय विदा करेबाक लेल जनकजीक महल दिश प्रस्थान कयलनि। स्वभावहि सँ सुन्दर चारू भाइ केँ देखबाक लेल नगर केर स्त्री-पुरुष दौड़ि पड़लाह। कियो कहैत छथि जे आइ ई जाय चाहैत छथि, विदेह द्वारा विदाई केर सब सामान तैयार कय लेल गेल अछि।

४६. राजाक चारू पुत्र आ समस्त पाहुन लोकनिक सुन्दर-मनोहर रूप केँ नेत्र भरिकय देखि लिअ। हे सयानी! के जनैत अछि जे केहेन पुण्य सँ विधाता हिनका सबकेँ एतय आनिकय हमरा लोकनिक आँखिक पाहुन बनौलनि अछि। मरयवला जेना अमृत पाबि जाय, जन्म भरिक भूखल लोक कल्पवृक्ष पाबि जाय आर नरक मे रहयवला (नरक मे रहबा योग्य लोक) जेना भगवानक परमपद केँ प्राप्त भ’ जाय, तहिना हिनका लोकनिक दर्शन हमरा सभक लेल फलदायी अछि। श्री रामचन्द्रजीक शोभा निरखिकय हृदय मे राखि लिअ। अपन मोन केँ साँप आर हिनकर मूर्ति केँ मणि बना लिअ। – एहि तरहक भावना सभक नेत्र मे दैत राजकुमार लोकनि राजमहल मे गेलाह।

४७. रूप के समुद्र सब भाइ केँ देखिकय सारा रनिवास हर्षित भ’ उठल। सासु लोकनि महान प्रसन्न मोन सँ निछावर और आरती करैत छथि। श्री रामचन्द्रजीक छबि देखिकय ओ सब प्रेम मे अत्यन्त मग्न भ’ गेलीह आर प्रेम केर विशेष वश भ’ बेर-बेर चरण मे मोन लगबैत रहलीह। हृदय मे प्रीति उमड़ि गेल अछि जाहि सँ लाजक कोनो बात कतहु नहि रहि गेल। हुनका सभक स्वाभाविक स्नेह केर वर्णन कोन तरहें कयल जा सकैत अछि! ओ सब भाइ सहित श्री रामजी केँ उबटन लगाकय स्नान करौलनि आर खूब प्रेम सँ षट्रस भोजन करौलनि।

४८. सुअवसर जानि श्री रामचन्द्रजी शील, स्नेह और संकोच भरल वाणी बजलाह – महाराज अयोध्यापुरी चलय चाहैत छथि, ओ हमरा सब केँ विदाह होयबाक लेल पठौलनि अछि। हे माता! प्रसन्न मोन सँ आज्ञा दिअ आर हमरा सबकेँ अपन बालक जानिकय सदैव स्नेह बनेने रहब। ई वचन सुनिते रनिवास उदास भ’ गेल। सासु लोकनि प्रेमवश बाजि नहि सकैत छथि। ओ सब कुमारी लोकनि केँ हृदय सँ लगा लेलीह आर सब केँ हुनकर पति केँ सौंपिकय बहुते विनती कयलीह।

छन्द :
करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥

विनती कयकेँ ओ लोकनि सीताजी केँ श्री रामचन्द्रजी केँ समर्पित कयलथि आर हाथ जोड़िकय बेर-बेर कहैत छथि – हे तात! हे सुजान! हम बलिहारी जाइत छी, अहाँ केँ सभक गति (हाल) पता अछि। परिवार केँ, पुरवासी लोकनि केँ, हमरा सब केँ आर राजा केँ सीता प्राणक समान प्रिय अछि, से बुझब। हे तुलसी के स्वामी! एकर शील और स्नेह केँ देखिकय एकरा अपन दासी जेकाँ मानब। अहाँ पूर्ण काम थिकहुँ, सुजान शिरोमणि थिकहुँ और भावप्रिय छी, अहाँ केँ प्रेम अत्यधिक प्रिय अछि। हे राम! अहाँ भक्त लोकनिक गुण टा केर ग्रहण करयवला, दोष केँ नाश करयवला आ दया केर धाम छी। ‍- एना कहिकय रानी लोकनि चरण केँ पकड़ि चुप भ’ गेलीह मानू हुनका सभक वाणी प्रेम रूपी दलदल मे समाय गेल हो।

४९. स्नेह सँ सानल श्रेष्ठ वाणी सुनिकय श्री रामचन्द्रजी सासु केँ बहुतो प्रकार सँ सम्मान करैत हाथ जोड़िकय विदा मँगैत बेर-बेर प्रणाम कयलनि। आशीर्वाद पाबिकय आर फेर माथ झुकाकय भाइ सभक संग श्री रघुनाथ जी चलि देलाह।

५०. श्री रामजीक सुन्दर मधुर मूर्ति केँ हृदय मे आनि सब रानी स्नेह सँ शिथिल भ’ गेलीह। पुनः धीरज धारण कयकेँ कुमारी लोकनि केँ बजाकय माता लोकनि बेर-बेर हुनका गला लगाबय लगलीह। पुत्री सब केँ हुनकर पतिक संग पहुँचाबैत छथि, फेर घुरि-घुरिकय हुनका सब सँ भावविह्वल होइत भेट करैत छथि, गला लगबैत छथि आ आशीष दैत रहैत छथि। एक-दोसर प्रति प्रीति एतबा बढ़ि गेल अछि जेकर वर्णन करब कोनो कवि सँ संभव नहि। बेर-बेर मिलन करैत माता सब केँ सखी सब अलग कय देलनि। जेना हालहि ब्याअल गाय केँ कियो ओकर बच्छा/बाछी सँ अलग कय देने हो, बिल्कुल तेहने हाल बनि गेल अछि। सब स्त्री-पुरुष और सखी सहित सारा रनिवास प्रेम केर विशेष वश भ’ रहल अछि। एना लगैत अछि मानू जनकपुर मे करुणा और विरह घर बना लेने हो।

५१. जानकीजी जाहि तोता आ मैना केँ पालि-पोसि पैघ कएने रहथि आर सोनाक पिंजड़ा मे राखि ओकरा सब केँ पढ़ौने रहथि, ओहो सब व्याकुल भ’ कय कहि रहल अछि – वैदेही कतय छथि। ओकरा सभक ई वचन सुनिकय केकर धैर्य जवाब नहि देत भला! सब कियो भोकासी पाड़ि चित्कार करैत जानकीक विदाई कय रहल अछि।

५२. जखन पक्षी आर पशु तक एहि तरहें विकल भ’ गेल तखन मनुष्यक दशा केना कहल जा सकैत अछि। तखन भाइ सहित जनकजी ओतय अयलाह। प्रेमक अश्रु हुनको लोकनिक आँखि मे प्रत्यक्ष उमड़ि आयल छल।

५३. ओ सब परम वैराग्यवान कहबैत छलाह, मुदा सीताजी केँ देखिकय हुनको लोकनिक धीरज भागि गेल। राजा जानकीजी केँ हृदय सँ लगा लेलनि। प्रेम केर प्रभाव सँ ज्ञान केर महान मर्यादा मेटा गेल। अर्थात ज्ञानक बाँध टूटि गेल।

५४. सब बुद्धिमान मंत्री सब हुनका सब केँ बुझबैत छथि, तखन राजा विषाद करबाक समय नहि होयबाक विचार कयलनि। बेर-बेर पुत्री सब केँ हृदय सँ लगाकय सुन्दर ढंग सँ सजायल पालकी मंगबेलनि।

५५. सारा परिवार प्रेम मे विवश अछि। राजा सुन्दर मुहूर्त जानिकय सिद्धि सहित गणेशजी केर स्मरण कयकेँ कन्या सबकेँ पालकी पर बैसेलनि। पुत्री सब केँ खूब बढियाँ सँ बुझेलनि आ हुनका सब केँ स्त्रीक धर्म आ कुल केर रीति सिखौलनि। बहुतो रास दासी-दास जे सब सीताजीक प्रिय व विश्वासपात्र सेवक सब रहथि तिनका सब केँ संग कय देलनि।

५६. सीताजीक चलैत समय जनकपुरवासी व्याकुल भ’ गेलाह। मंगलक राशि शुभ शकुन भ’ रहल अछि। ब्राह्मण आर मंत्री लोकनिक समाज सहित राजा जनकजी हुनका अरियातय लेल संग चललाह। समय देखिकय बाजा बाजय लागल। उदासीक धुन स्वाभाविके सीताजीक जेबाक समय प्रेमाश्रु बहा रहल छल।

५७. बरियाती लोकनिक रथ, हाथी और घोड़ा सजायल गेल। दशरथजी सब ब्राह्मण लोकनि केँ पुनः बजौलनि आर हुनका सब केँ दान आ सम्मान सँ परिपूर्ण कय देलनि। हुनका लोकनिक चरणकमल केर धूलकण माथपर धारण कय आर आशीष पाबिकय राजा आनन्दित भेलथि, पुनः गणेशजीक स्मरण कयकेँ ओहो प्रस्थान कयलनि।

५८. मंगल केर मूल अनेको शकुन भेल। देवता हर्षित भ’ कय फूल बरसा रहल छथि आर अप्सरा सब गान कय रहली अछि। अवधपति दशरथजी नगाड़ा बजाकय आनन्दपूर्वक अयोध्यापुरी चलि देलाह। राजा दशरथजी विनती कयकेँ प्रतिष्ठित जन (अरियातय लेल आयल लोक सबकेँ) लौटेलनि आर आदर सँ सब मँगनिहार केँ बजाकय हुनका सबकेँ गहना-कपड़ा, घोड़ा-हाथी देलनि आर प्रेम से पुष्ट कयकेँ सबकेँ सम्पन्न अर्थात् बलयुक्त कय देलनि। ओहो सब बेर बेर विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानिकय आर श्री रामचन्द्रजी केँ हृदय मे राखिकय लौटि गेलाह।

५९. कोसलाधीश दशरथजी बेर-बेर लौटबाक लेल कहैत छथि मुदा जनकजी प्रेमवश लौटय नहि चाहैत छथि। दशरथजी हुनका सँ परम सुहाओन बात कहलथि – हे राजन्‌! बहुत दूर आबि गेलहुँ, आब घुरि जाउ। फेर राजा दशरथजी रथ सँ उतरिकय ठाढ़ भ’ गेलाह। हुनकर नेत्र मे प्रेमक प्रवाह बढ़ि गेलनि, यानि प्रेमाश्रु केर धारा बहय लगलनि। तखन जनकजी हाथ जोड़िकय मानू स्नेहरूपी अमृत मे डुबायल गेल वचन कहलखिन – हम कोन तरहें बना-सोनाकय विनती करू! अपने हमरा बहुत पैघ बड़ाई देलहुँ अछि। अयोध्यानाथ दशरथजी अपन स्वजन समधि केँ सब तरहें सम्मान कयलनि। हुनका लोकनिक आपस केर मिलन मे अत्यन्त विनय भरल छल आर एतबा प्रीति छल जे हृदय मे अँटि नहि रहल छल।

६०. जनकजी मुनि मंडली केँ सिर नमौलनि आ सब सँ आशीर्वाद पेलनि। फेर आदर के संग ओ रूप, शील और गुणक निधान सब भाइ लोकनि सँ, अपन जमाय सब सँ भेटलाह, आर सुन्दर कमल समान हाथ केँ जोड़िकय एहेन वचन बजलाह मानू प्रेमहि सँ ओकर जन्म भेल छलैक। “हे रामजी! हम कोन तरहें अहाँक प्रशंसा करू! अहाँ मुनि आर महादेवजीक मनरूपी मानसरोवर के हंस छी। योगी सब जिनका लेल क्रोध, मोह, ममता और मद केँ त्यागिकय योग साधन करैत छथि, जे सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त, अविनाशी, चिदानंद, निर्गुण और गुणक राशि छथि, जिनकर मोन सहित वाणी नहि जनैत अछि आ सब जिनकर अनुमान टा करैत अछि, कोनो तर्कना नहि कय सकैत अछि, जिनकर महिमा केँ वेद ‘नेति’ कहिकय वर्णन करैत अछि ओ सच्चिदानन्द तीनू काल मे एकरस – सर्वदा आ सर्वथा निर्विकार रहैत छथि, वैह समस्त सुखक मूल अहाँ हमर नेत्र केर विषय भेलहुँ। ईश्वर के अनुकूल भेलापर जगत मे जीव केँ सबटा लाभे लाभ छैक। अहाँ हमरा सब तरहें बड़ाई देलहुँ आर अपन जन जानिकय अपना लेलहुँ। यदि दस हजार सरस्वती और शेष होइथ आर करोड़ों कल्पों तक गणना करैत रहथि तैयो हे रघुनाजी! सुनू, हमर सौभाग्य और अहाँक गुणक कथा कहिकय समाप्त नहि कयल जा सकत। हम जे किछु कहि रहल छी ओ अपन एक्के टा बल पर जे अहाँ एकदम थोड़ प्रेम सँ प्रसन्न भ’ जाइत छी। हम बेर-बेर हाथ जोड़िकय यैह मँगैत छी जे हमर मोन बिसरियोकय अहाँ चरण केँ नहि छोड़य।”

६१. जनकजीक श्रेष्ठ वचन केँ सुनिकय, जे मानू प्रेम सँ पुष्ट छल, पूर्ण काम श्री रामचन्द्रजी पूर्ण सन्तुष्ट भेलाह। ओहो सुन्दर विनती कयकेँ पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्रजी और कुलगुरु वशिष्ठजीक समान जानि ससुर जनकजी केर सम्मान कयलनि। फेर जनकजी भरतजी सँ विनती कयलनि आर प्रेमक संग मिलैत पुनः आशीर्वाद देलनि। तखन फेर राजा लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी सँ भेटलाह आर हुनको सब केँ आशीर्वाद देलनि। ओ परस्पर प्रेम केर वश भ’ कय बेर-बेर आपस मे सिर नमावय लगलाह। जनकजीक बेर-बेर विनती और बड़ाई कयकेँ श्री रघुनाथजी सब भाइ सहित चलि देलाह।

६२. अन्त मे जनकजी विश्वामित्रजीक चरण पकड़ि लेलनि आ हुनकर चरणक रज अपन माथ व नेत्र मे लगबैत कहलखिन – हे मुनीश्वर! अपनेक सुन्दर दर्शन सँ किछुओ दुर्लभ नहि अछि। हमर मोन मे एहेन विश्वास अछि जे सुख आ सुयश जे सब लोकपाल सब चाहैत छथि, मुदा से सब असम्भव बुझि ओहो सब मनोरथ करैत बड सकुचाइत छथि से सबटा हे स्वामी, सबटा सुख और सुयश हमरा सुलभ भ’ गेल अछि। सारा सिद्धि अपनेक दर्शन केर अनुगामिनी अर्थात् पाछू-पाछू चलयवाली अछि। – एहि तरहें बेर-बेर विनती कयलनि आर माथ झुकाकय हुनका सँ आशीर्वाद पाबि राजा जनक लौटि गेलाह।

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