स्वाध्याय
मनन करय योग्य बात
गीता पाठ केर सत्य स्वरूप
– गोलोकवासी सन्त श्री प्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी
(मैथिली अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
श्री चैतन्य महाप्रभु साँझक समय जंगल दिश घुमय गेल करथि। एक दिन ओ एकटा बगीचा मे गेलाह। ओतय ओ देखलथि जे एक गोट ब्राह्मण आसन लगेने बड़ा प्रेम आ गदगद कंठ सँ गीताक पाठ कय रहल छलाह। हालांकि ओ श्लोक सभक उच्चारण अशुद्ध कय रहल छलथि, मुदा पाठ करैत समय ओ ध्यान मे एना तन्मय रहल करथि जे हुनका बाह्य संसारक कोनो बातक भान तक नहि रहैत छलन्हि। ओ भाव मे मग्न भ’ श्लोक बाजल करथि, ताहि घड़ी हुनकर सम्पूर्ण शरीर मे रोमांच (पुलकावलि ठाढ़) भरि गेल करनि आ आँखि सँ नोर बहय लगैत छलन्हि। महाप्रभु बहुतोकाल तक ठाढ़े-ठाढ़ हुनकर पाठ सुनैत रहला। जखन ओ पाठ कय केँ उठि गेलाह तखन महाप्रभु हुनका सँ अत्यन्त स्नेह सँ पुछलनि, “कि भाइ! अहाँ केँ एहि पाठ मे एहेन कोन आनन्द भेटैत अछि जाहि के कारण अहाँक एहेन अद्भुत अवस्था बनि गेल करैत अछि! एतेक उच्च प्रेम केर भाव तँ नीक-नीक भक्त केर शरीर मे प्रकट नहि होइत छैक, अहाँ अपन प्रसन्न भाव केर सही-सही कारण बताउ त!” ताहि पर ओ ब्राह्मण हुनका सँ कहलनि, “भगवान्! हम एकटा अपठित बुद्धिहीन ब्राह्मण-वंश मे जन्म लेल निरक्षर आ मूर्ख ब्राह्मणबंधु छी। शुद्धाशुद्ध केर कनिको बोध नहि अछि। हमर गुरुदेव हमरा आदेश देने रहथि जे तूँ गीताक नित्यप्रति पाठ कयल करे। भगवान्! हम गीताक अर्थ कि बुझय गेलहुँ! हम त पाठ करैत समय एक्केटा बात के ध्यान करैत छी जे उजरा रंगवला चारि गोट घोड़ा सँ जोतल एक बहुते सुन्दर रथ ठाढ़ अछि, जेकर विशाल ध्वजा पर हनुमानजी विराजमान छथि, खुजल रथ मे अस्त्र-शस्त्र सँ सुसज्जित अर्जुन किछु शोक (चिन्ता) के भाव सँ धनुष केँ नीचाँ राखिकय बैसल अछि आ भगवान् अच्युत सारथिक स्थान पर बैसल कनेक मुस्कीक संग गीताक उपदेश कय रहल छथि। बस, भगवानक एहि रूपमाधुरीक पान करैत-करैत हम स्वयं केँ बिसरि गेल करैत छी। भगवानक ओ त्रिलोकपावनी मूर्ति हमर आँखिक सोझाँ नृत्य करय लगैत अछि। एहि दर्शन सँ हम पागल भ’ गेल करैत छी। लोक हमर पाठ सुनिकय पहिने खूब हँसल करैत छल। बहुतो लोक त हमरा बड बात-कथा सेहो कहि देल करय। आब कहैत अछि या नहि ताहि बात केर त हमरा कोनो जानकारी नहि अछि, मुदा हम केकरो हँसीक कहियो कोनो परवाह नहि कयलहुँ। हम केवल एहि भाव सँ सब दिन पाठ करैत गेलहुँ। आब हमरा एहि पाठ मे एतेक रस (आनन्द) आबय लागल अछि जे हम संसार केँ एकदम्मे बिसरि गेल करैत छी।”
ओकर बात सुनिकय महाप्रभु खूब मीठ स्वर सँ कहय लगलाह – “विप्रवर! अहाँ धन्य छी। यथार्थ मे गीताक असली माने त सिर्फ अहीं टा बुझलहुँ अछि। भगवान् शुद्ध अथवा अशुद्ध पाठ सँ प्रसन्न अथवा असन्तुष्ट नहि होइत छथि। ओ त केवल भावक भूखल छथि। भावग्राही भगवान् सँ केकरहु मोनक बात नुकायल नहि अछि। लाख कियो शुद्ध पाठ करय आ भाव ओकर अशुद्ध हो त ओकर फल सेहो अशुद्धे होयत। यदि भाव शुद्ध छैक आर अक्षर भले अशुद्धे उच्चारण भ’ जाय त ओकर फल शुद्धे होयत। भावहि केर शुद्धि के यथार्थ आवश्यकता होइछ। भाव शुद्ध भेलापर पाठो यदि शुद्ध हुए तखन त आरो नीक बात, सोना मे सुगन्ध होयत। आर जँ पाठ शुद्ध नहियो हो तैयो कोनो हानि नहि। जेना कि कहल गेल अछि –
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
तयोः फलं तु तुल्यं हि भावग्राही जनार्दनः॥
अर्थात् मूर्ख कहैत छैक ‘विष्णाय नमः’ आर पंडित कहैत छैक ‘विष्णवे नमः’ – भाव शुद्ध भेला सँ एहि दुनू के फल समाने होयत। कारण जे भगवान् जनार्दन भावग्राही छथि।
महाप्रभुक मुखारविन्द सँ ई बात सुनिकय ओहि ब्राह्मण केँ बहुत प्रसन्नता भेलैक आर ओ ताहि समय प्रभुकेँ आत्मसमर्पण कय देलनि। जा धरि प्रभु श्रीरंगक्षेत्र मे रहलाह, ता धरि ओ ब्राह्मण महाप्रभुअहि केर संग रहलथि।
हरिः हरः!!