रामचरितमानस मोतीः राम-जानकी विवाह आ जनकपुर मे बरियातीक स्वागत प्रसंग

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

अयोध्या सँ बरियातीक आयब आ स्वागतादिक अद्भुत कथा

प्रसंग चलि रहल छल जे राजा जनक श्री रामजी द्वारा धनुष भंग करबाक आ आगू जानकीजी संग विवाह होयबाक सूचना दूत मार्फत राजा दशरथजी लग पठौलनि आ राजा दशरथ ई समाचार पाबि अत्यन्त गदगद भाव सँ भरिकय बरियाती साजि जनकपुर आबि रहल छथि, समीप अयला उपरान्त राजा जनकजी के तरफ सँ हुनका सभक स्वागत केना कयल जाइत अछि तेकर विवरण देखू आगू –

१. जनकपुर नजदीक बरियाती पहुँचबाक सूचना पबिते हुनका सभक स्वागतार्थ दूध, शर्बत, ठंढई, जल आदि सँ भरिकय सोनाक कलश आर जेकर वर्णन नहि भ’ सकैत अछि तेहेन अमृत समान भाँति-भाँति के पकवान सँ भरल परात, थाल आदि अनेकों प्रकारक सुन्दर बर्तन, उत्तम फल एवं अनेकों सुन्दर वस्तु राजा हर्षित भ’ बरियाती लेल भेंट (उपहार) पठौलनि। गहना, कपड़ा, नाना प्रकारक मूल्यवान मणि (रत्न), पक्षी, पशु, घोड़ा, हाथी आर बहुतो तरहक सवारी तथा बहुतो प्रकारक सुगन्धित-सुहाओन मंगल द्रव्य शगुनक पदार्थ राजा पठेलनि।

२. दही, चुड़ा आ अगणित उपहार केर चीज सब भरिकय भार-भरिया सहित अगवानी करनिहार सब जखन बरियाती केँ देखलनि त हुनका सभक हृदय मे आनन्द भरि गेल आ शरीर सेहो रोमांचित भ’ गेलनि। बरियाती सब सेहो खूब प्रसन्न भ’ नगाड़ा आरो जोर-जोर सँ बजाबय लगलाह। बरियाती आ अगवान लोकनि मे किछु लोकनि आपस मे भेंट करबाक लेल हर्ष सँ भरि सीधे दौड़ि पड़लाह आ एना मिलन कयलनि मानू आनन्द केर दुइ समुद्र मर्यादा छोड़िकय आपस मे मिलन कएने हो।

३. देवसुन्दरी लोकनि फूल बरसाकय गीत गाबि रहल छथि आ देवता सब आनन्दित भ’ नगाड़ा बजा रहल छलथि। अगवानी कयनिहार ओ सब उपहारक वस्तु सब राजा दशरथजीक आगाँ राखि देलनि आर अत्यन्त प्रेम सँ विनती कयलनि। राजा दशरथजी प्रेम सहित सब वस्तु लय लेलनि आर फेर हुनका सब केँ अपना तरफ सँ बख्शीश सेहो देलनि। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बड़ाई कयकेँ अगवान लोकनि हुनका सब केँ जनवासा दिश लय चललाह। विलक्षण वस्त्र सँ सुसज्जित जनवासा बनल छल, जे देखि कुबेर सेहो अपन धनक अभिमान छोड़ि देने छलाह। बड़ा सुन्दर जनवासा सब केँ देल गेलनि जाहि मे सब तरहक सुविधा उपलब्ध छल।

४. सीताजी बरियाती जनकपुर मे आयल सुनिते अपन किछु महिमा प्रकट कयकेँ देखौलीह। हृदय मे स्मरण करैत सब सिद्धि केँ बजौलीह आर हुनका सब केँ राजा दशरथजीक खातिर विशेष पहुनाई लेल पठा देलीह। सीताजीक आज्ञा सुनि सब सिद्धि लोकनि जनवासा लग सब तरहक सम्पदा, सुख आर इन्द्रपुरीक भोग-विलास लेने पहुँचि गेलीह।

५. बरियाती सब अपन-अपन रुकबाक स्थान देखलनि त ओतय देवता लोकनिक सब सुख सुलभ देखि आत्ममुग्ध भ’ गेलाह। एहि ऐश्वर्यक भेद कियो नहि जानि सकलथि। सब खाली जनकजीक बड़ाई कय रहल छलथि।

६. श्री रघुनाथजी ई सबटा सीताजीक महिमा जानिकय हुनकर प्रेम केँ अनुभव करैत हृदय मे हर्षित भेलथि। पिता दशरथजीक अयबाक समाचार सुनिकय दुनू भाइ के हृदय मे महान आनन्द भरि गेल छल। संकोचवश ओ सब गुरु विश्वामित्रजी सँ कहि नहि सकैत छलथि, लेकिन मोन मे पिताजीक दर्शनक लालसा छलन्हि। विश्वामित्रजी हुनकर ई नम्रता देखलनि त हुनकर हृदय मे खूब सन्तोष भेलनि। प्रसन्न भ’ कय ओ दुनू भाइ केँ हृदय सँ लगा लेलनि आ पुलकित शरीर आ नेत्र मे प्रेमाश्रु भरने ओ सब ओहि जनवासा लेल चलि पड़लाह जतय दशरथजी रहथि। ओ सब एना चललथि मानू सरोवर प्यासा दिश स्वयं चलि पड़ल हुए।

७. जखन राजा दशरथजी पुत्र लोकनि संग मुनि केँ अबैत देखलथि त ओ हर्ष सँ भरि गेलाह आ समुद्र मे थाह पेबाक सुख पाबि पृथ्वीपति दशरथजी मुनिक चरणधूलि केँ बेर-बेर माथ मे लगौलनि, हुनका दण्डवत्‌ प्रणाम कयलनि। विश्वामित्रजी राजा केँ उठा अपन छाती सँ लगा लेलनि आ खूब आशीर्वाद दैत हुनकर कुशल-क्षेम पुछलनि। पुनः दुनू भाइ केँ दण्डवत्‌ प्रणाम करैत देखिकय राजाक हृदय मे असीम सुख भेलनि। बेटा सबकेँ उठाकय ओ गला लगा लेलनि। एहि तरहें वियोगजनित दुःसह दुःख केँ राजा मेटौलनि, मानू मृत शरीर मे प्राण आबि गेल हुए। फेर ओ वशिष्ठजीक चरण मे सिर नमेलनि। मुनि श्रेष्ठ प्रेम केर आनंद मे भरि हुनका दुनू गोटे (राम आ लखन) केँ हृदय सँ लगा लेलनि। दुनू भाइ पुनः ब्राह्मण लोकनिक वन्दना कयलाह आ मनचाहल आशीर्वाद पेलाह।

८. भरतजी छोट भाइ शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी केँ प्रणाम कयलनि। श्री रामजी हुनका लोकनि केँ उठा अपन छाती सँ लगौलनि। लक्ष्मणजी दुनू भाइ केँ देखिकय खूब हर्षित भेलाह आर प्रेम सँ परिपूर्ण भ्रातृ-मिलन कयलनि। तेकर बाद परम कृपालु और विनयी श्री रामचन्द्रजी अयोध्यावासी, कुटुम्ब लोकनि, जाति के लोक, याचक, मंत्री लोकनि आर मित्र सब सँ यथा योग्य मिलन कयलथि। श्री रामचन्द्रजी केँ देखिकय बरियात सब शीतल भ’ गेलथि, रामक वियोग मे सभक हृदय मे जे आगि जरि रहल छल, से शान्त भ’ गेल। प्रीति केर रीतिक बखान नहि भ’ सकैछ। राजा लग चारू पुत्र एना शोभा पाबि रहल छथि मानू अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष शरीर धारण कएने ठाढ़ होइथ। पुत्र सहित दशरथजी केँ देखिकय नगरक स्त्री-पुरुष बहुते प्रसन्न भ’ रहल छथि। आकाश सँ देवता लोकनि फूलक वर्षा कयकेँ नगाड़ा बजा रहल छथि आर अप्सरा सब गाबि-गाबिकय नाचि रहल छथि।

९. अगवानी मे आयल शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मंत्रीगण, मागध, सूत, विद्वान ओ भाट लोकनि बरियाती सहित राजा दशरथजीक आदर-सत्कार कयलनि। फेर ओ सब आज्ञा लयकय वापस लौटि गेलाह। बरियाती लग्नक दिन सँ पहिनहि आबि गेल छल, जाहि सँ जनकपुर मे खूब आनन्द मचि गेल छल। सब कियो ब्रह्मानंद प्राप्त कय रहल छलथि आर विधाता सँ मनबैत कहैत छलथि जे दिन-राति खूब पैघ भ जाय जाहि सँ ई आनन्दक अनुभूति एहिना बनल रहय।

१०. श्री रामचन्द्रजी और सीताजी सुन्दरताक सीमा छथि आर दुनू राजा पुण्य केर सीमा छथि। जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुष लोकनिक समूह जमा भ’ कय यैह कहि रहल छथि। जनकजीक सुकृत (पुण्य) केर मूर्ति जानकीजी छथि और दशरथजी के सुकृत देह धारण कएने श्री रामजी छथि। दुनू राजाक समान कियो शिवजीक आराधना नहि कयलनि आर हिनका लोकनिक समान किनको फल सेहो नहि भेटलनि। हिनका समान जगत मे नहि कियो भेल, नहि कतहु अछि, आ नहिये होइवला अछि। हम सब सेहो सम्पूर्ण पुण्य केर राशि छी जे जगत मे जन्म लयकय जनकपुरक निवासी भेलहुँ, आर जे सब जानकीजी और श्री रामचन्द्रजीक छबि देखने छथि, तिनका जेकाँ विशेष पुण्यात्मा के होयत! आ, आब हम सब श्री रघुनाथजीक विवाह देखब जे एहि आँखिक असल लाभ सिद्ध होयत।

११. कोयलीक समान मीठ बजनिहाइर स्त्रीगण लोकनि एक-दोसर सँ कहैत छथि जे हे सुन्दर नेत्रवाली सखी-बहिन लोकनि, एहि विवाह मे बहुत लाभ अछि। बहुत भाग्य सँ विधाता सब काज सिद्ध कयलनि अछि। ई दुनू भाइ हमरा सभक नेत्रक अतिथि होइत रहता। जनकजी स्नेहवश बेर-बेर सीताजी केँ नैहर बजाओल करता आ करोड़ों कामदेव केर समान सुन्दर दुनू भाइ सीताजी केँ फेर विदागरी कराबय आयल करता। तखन हुनका लोकनिक अनेकों प्रकार सँ पहुनाई होयत। सखी! एहेन सासुर केकरा प्रिय नहि होयत! तखन-तखन हम सब नगर निवासी श्री राम-लक्ष्मण केँ देखि-देखि अत्यन्त सुखी होयब। हे सखी! जेहेन श्री राम-लक्ष्मण केर जोड़ा अछि, ओहने दु गोट कुमार राजाक संग आरो छथि। ओहो सब एक श्याम और दोसर गौर वर्ण के छथि, हुनको लोकनिक सब अंग बहुत सुन्दर अछि। जे लोक हुनका सब केँ देखि अयलाह अछि ओ सब यैह कहैत छथि। एक गोटे कहलखिन – हम त आइये हुनका देखलहुँ अछि, एतेक सुन्दर छथि मानू ब्रह्माजी अपनहि हाथे बनेने होइथ। भरत त श्री रामचन्द्रजी जेकाँ शकल-सूरत के छथि। स्त्री-पुरुष हिनका दुनू मे के राम आ के भरत छथि से चिन्हि नहि सकैत छथि। लक्ष्मण आर शत्रुघ्न दुनू के एक रूप छन्हि। दुनू के नख सँ शिखा धरि सब अंग अनुपम छन्हि। मोन केँ बहुत नीक लगैत अछि मुदा मुंह सँ ओकर वर्णन नहि भ’ सकैत अछि। हुनकर उपमा योग्य एहि तीनू लोक मे कियो नहि अछि।

१२. छन्द :

उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥

दास तुलसी कहैत छथि जे कवि और कोविद (विद्वान) लग हिनका सभक लेल कोनो उपमा कतहु नहि अछि। बल, विनय, विद्या, शील और शोभाक समुद्र – एहि सभक समान यैह टा छथि। जनकपुरक सब स्त्री आँचर पसारिकय विधाताक केँ वचन (विनती) सुनबैत छथि जे चारू भाइ केर विवाह एहि नगर मे हो आर हम सब सुन्दर मंगल गाबी।

नेत्र मे प्रेमाश्रु केर जल भरिकय पुलकित शरीर सँ स्त्री लोकनि आपस मे कहि रहल छथि जे हे सखी! दुनू राजा पुण्यक समुद्र छथि, त्रिपुरारी शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करता।

१३. एहि प्रकारे सब मनोरथ कय रहल छथि आ हृदय केँ उत्साहपूर्वक आनन्द सँ भरि रहल छथि। सीताजीक स्वयंवर मे जे राजा लोकनि आयल छलथि ओहो लोकनि चारू भाइ केँ देखि खूब सुख पेलनि। श्री रामचन्द्रजीक निर्मल और महान यश कहैत राजा लोकनि अपन-अपन घर गेलाह।

१४. एहि तरहें किछु दिन आर बीति गेल। जनकपुर निवासी और बरियाती सब खूब आनन्दित छथि। मंगल केर मूल लग्न केर दिन आबि गेल।

१५. हेमन्त ऋतु आर सुहाओन अगहन केर महीना छल। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ छल। लग्न (मुहूर्त) शोधिकय ब्रह्माजी ओहि पर विचार कयलनि, और ओहि (लग्न पत्रिका) केँ नारदजीक हाथ (जनकजी ओतय) पठौलनि। जनकजीक ज्योतिषी लोकनि सेहो वैह गणना कय केँ रखने रहथि। जखन सब कियो ई बात सुनलनि त कहय लगलाह – एहि ठामक ज्योतिषी सेहो ब्रह्मे सब छथि।

१६. निर्मल एवं समस्त सुन्दर मंगल केर मूल गोधूलिक पवित्र बेला आबि गेल। सब अनुकूल शकुन होबय लागल। ई देखिते ब्राह्मण लोकनि जनकजी सँ बेरक बेगड़ता कहलाह। राजा जनक तखन पुरोहित शतानंदजी सँ कहला जे आब देरी कथी के। पुनः शतानंदजी मंत्री लोकनि केँ बजौलनि। ओ सब गोटे मंगल केर सामान साजिकय लय अनलाह।

१७. शंख, नगाड़ा, ढोल और बहुतो तरहक बाजा सब बाजय लागल। मंगल कलश आ शुभ शकुन केर वस्तु (यथा दधि, दुर्वा, आदि) सजायल गेल। सुन्दर सुहागिन स्त्रीगण सब गीत गाबि रहल छथि आ पवित्र ब्राह्मण लोकनि वेदक ऋचा पाठ-ध्वनि कय रहल छथि। सब मिलिजुलि एहि तरहें आदरपूर्वक बरियाती आनय चलि देलनि।

१८. अवधपति दशरथजीक समाज ई सारा वैभव देखलनि त हुनका सब केँ देवराज इन्द्र सेहो एहि इन्तजामक आगाँ छोट नजरि आबय लगलखिन। सब कियो राजा दशरथ आ बरियाती लोकनि सँ निवेदनपूर्वक विनती करैत कहलखिन्ह – समय भ’ गेल, आब चलय चलू। ई सुनैत देरी बरियाती पक्ष नगाड़ा पर मारलनि चोट। गुरु वशिष्ठजी सँ पुछिकय आ कुल केर सम्पूर्ण रीति केँ पूरा करैत दशरथजी मुनि व साधु लोकनिक समाजक संग चलि पड़लाह।

१८. अवध नरेश दशरथजीक भाग्य और वैभव देखि स्वयं केर जन्म पर्यन्त ओहि तुल्य नहि बुझि ब्रह्माजी आदि देवता लोकनि हजारों मुंह सँ हुनकर सराहना करय लगलाह। देवगण सुन्दर मंगल केर अवसर जानि, नगाड़ा बजा-बजाकय फूल बरसाबैत छथि। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द लोकनि टोली बना-बनाकय विमान पर जाय चढ़लथि। प्रेम सँ पुलकित शरीर व हृदय मे उत्साह भरने ओ सब श्री रामचन्द्रजीक विवाह देखय चलि देलनि।

१९. जनकपुर केँ देखिकय देवता सब एतबा अनुरक्त भ’ गेलाह जे हुनको सब केँ अपन-अपन लोक एकदम तुच्छ बुझि पड़लनि। विचित्र मंडप केँ तथा नाना प्रकारक अलौकिक रचना सबकेँ ओ सब चकित भ’ देखि रहला अछि। नगर केर स्त्री-पुरुष रूप केर भंडार, सुन्दर, सुलझल, श्रेष्ठ, धर्मात्मा, सुशील आ सुजान सब देखाइत छथि। हुनका सब केँ देखिकय समस्त देवता और देवांगना एना प्रभाहीन भ’ गेलथि जेना चन्द्रमाक उज्याला मे तारागण फीका भ’ गेल करैत अछि।

२०. ब्रह्माजी केँ विशेष आश्चर्य भेलनि। कियैक तँ ओतय ओ अपन कोनो रचना कतहु नहि देखलनि। तथापि एतेक उत्कृष्ट साज-सज्जा आ व्यवस्था सँ अति सन्तुष्ट आ प्रसन्न रहथि। ताहि पर शिवजी सब देवता केँ बुझबैत कहलनि जे अहाँ सब आश्चर्य मे ई जुनि बिसरय जाउ जे भगवानक महामहिमामयी निजशक्ति श्री सीताजी के आ अखिल ब्रह्माण्ड केर परम ईश्वर साक्षात् भगवान् श्री रामचन्द्रजीक विवाह थिकनि। हृदय मे धीरज धयकय एहि चेत केँ बेर-बेर स्मरण करू। एहि मे आश्चर्यक कोनो बात कतय! जिनकर नाम लैते जग भरिक अमंगल केर जड़ि कटि गेल करैत अछि आर चारू पदार्थ अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष मुट्ठी मे आबि जाइत अछि, ई वैह जगत केर माता-पिता श्री सीतारामजी थिकाह। काम केर शत्रु शिवजी सब केँ बुझबैत ई महासत्य बयान कयलनि। एहि प्रकारें शिवजी देवता लोकनि केँ बुझौलनि आर फेर अपन श्रेष्ठ बसहा नंदीश्वर केँ आगू बढ़ेलनि।

२१. देवता सब देखलथि जे दशरथजी मोन मे खूब गदगद आ हुनकर शरीर बेर-बेर पुलकित भ’ रहल छन्हि। हुनका संग परम हर्षयुक्त साधु व ब्राह्मण लोकनिक मंडली एना शोभा दय रहल अछि मानू समस्त सुख स्वयं शरीर धारण कय केँ हुनकर सेवा कय रहल छल। चारू सुन्दर पुत्र संग मे एना सुशोभित छथि मानू जेना सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण कएने हो। मरकतमणि और सुवर्ण केर रंग वला सुन्दर जोड़ी केँ देखिकय देवता सब अथाह प्रीति मे डूबि गेलाह। फेर रामचन्द्रजी केँ देखिकय ओ सब हृदय मे अत्यन्त हर्षित भेलथि आ राजाक सराहना कयकेँ खूब फूल बरसौलनि। नख सँ शिखा तक श्री रामचन्द्रजीक सुन्दर रूप केँ बेर-बेर देखैत पार्वतीजी सहित श्री शिवजी केर शरीर सेहो पुलकित भ’ गेलनि आर हुनका लोकनिक नयन मे प्रेमक नोर भरि गेलनि।

२२. रामजीक मोरक कंठ समान कांति (हरिताभ) श्याम शरीर छन्हि। बिजली केँ सेहो निरादर करयवला प्रकाशमय सुन्दर पियर रंगक वस्त्र छन्हि। सब मंगल रूप और सब प्रकार के सुन्दर भाँति-भाँति के विवाहक आभूषण सब शरीर पर सजल छन्हि। हुनकर सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमाक निर्मल चन्द्रमा समान और मनोहर नेत्र नवीन कमल केँ लजबयवला छन्हि। सम्पूर्ण सुन्दरता अलौकिक छन्हि। माया केर बनल दिखाबटी सुन्दरता नहि अपितु दिव्य सच्चिदानन्दमयी सुन्दरता जेकर वर्णन कियो नहि कय सकैत अछि, बल्कि मोन केँ बहुत प्रिय लगैत अछि।

२३. संग मे मनोहर भाइ लोकनि शोभित छथि जे चंचल घोड़ा सब पर बैसल ओकरा नचबैत चलल जा रहल छथि। राजकुमार लोकनि श्रेष्ठ घोड़ा सभक विशिष्ट चालि देखा रहल छथि। वंश केर प्रशंसा करयवला मागध-भाट लोकनि विरुदावली सुना रहल छथि।

२४. जाहि घोड़ा पर श्री रामजी विराजमान छथि ओकर तेज गति देखि गरुड़जी सेहो लजा जाइत छथि, ओकर त वर्णन संभवे नहि अछि, ओ सब तरहें सुन्दर अछि मानू कामदेव अपने घोड़ाक रूप धारण कय लेने होइथ।

छन्द :
जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥

मानू जे श्री रामचन्द्रजी लेल कामदेव घोड़ाक वेश बनाकय अत्यन्त शोभित भ’ रहल छथि। ओ अपन अवस्था, बल, रूप, गुण और चालि सँ समस्त लोक केँ मोहित कय रहल छथि। ओहि मे सुन्दर घुँघरू लागल ललित लगाम देखि देवता, मनुष्य आ मुनि सब ठकायल रहि जाइत छथि, माने जे देखिते रहि जाइत छथि।

२५. प्रभुक इच्छा मे अपन मोन केँ लीन कएने चलैत ओ घोड़ा सब खूबे शोभा पाबि रहल अछि। मानू तारागण आ बिजली सँ अलंकृत मेघ सुन्दर मोर केँ नचा रहल हो।

२६. जाहि श्रेष्ठ घोड़ा पर श्री रामचन्द्रजी सवार छथि ओकर वर्णन सरस्वतीजी सेहो नहि कय सकैत छथि। शंकरजी श्री रामचन्द्रजीक रूप मे एना अनुरक्त भेलाह जे हुनका अपन पन्द्रह नेत्र एहि समय बहुते नीक लागय लगलन्हि। भगवान विष्णु जखन प्रेम सहित श्री राम केँ देखलाह त ओ रमणीयताक मूर्ति श्री लक्ष्मीजी के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित भ’ गेलाह। श्री रामचन्द्रजीक शोभा देखिकय ब्रह्माजी बड़ा प्रसन्न भेलाह लेकिन अपना पास आठहि टा आँखि भेला सँ पछताबा करय लगलाह। देवता लोकनिक सेनापति स्वामि कार्तिक केर हृदय मे बड़ा उत्साह अछि कियैक तँ ओ ब्रह्माजी सँ डेढ़-गुना यानि कि बारह नेत्र सँ रामदर्शनक सुन्दर लाभ उठा रहल छलथि। सुजान इन्द्र अपन हजारों आँखि सँ श्री रामचन्द्रजी केँ देखि रहल छलथि आर गौतमजीक श्राप केँ अपना लेल परम हितकर मानि रहल छलथि। सब गोटे देवता देवराज इन्द्र सँ ईर्षा कय रहल छथि आर कहि रहल छथि जे आइ इन्द्र के समान भाग्यवान दोसर कियो नहि अछि। श्री रामचन्द्रजी केँ देखिकय देवगण प्रसन्न छथि आर दुनू राजा केर समाज मे विशेष हर्ष के माहौल अछि।

छन्द :
अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥

दुनू दिश सँ राजसमाज मे अत्यन्त हर्ष पसरल अछि आर खूब जोर-जोर सँ बाजा सब बाजि रहल अछि। देवता लोकनि प्रसन्न भ’ कय ‘रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो’ कहैत फूल बरसा रहल छथि। एहि तरहें बरियाती केँ अबैत जानि बहुतो प्रकारक बाजा सब बाजय लागल आर रानी लोकनि सुहागिन स्त्रीगण सब केँ बजाकय परिछन लेल मंगल द्रव्य सब सजाबय लगलीह।

२७. अनेकों प्रकार सँ आरती सजाकय और समस्त मंगल द्रव्य केँ यथायोग्य सजाकय गजगामिनी (हाथी सन चालि वाली) उत्तम स्त्रीगण सब आनन्दपूर्वक परिछन लेल चलि देलीह। सब स्त्रीगण चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुंहवाली) आर सब मृगलोचनी (हरिण केर समान आँखि वाली) छथि आर सब अपन शरीर केर शोभा सँ रति के गौरव छोड़ेनिहाइर छथि। रंग-बिरंगक सुन्दर साड़ी पहिरने आर शरीर पर सब तरहक आभूषण (गहना) सजौने छथि। समस्त अंग केँ सुन्दर मंगल पदार्थ सँ सजेने ओ कोयलियो केँ लजबैत अति मधुर स्वर सँ गान कय रहली अछि। कंगन, करधनी और नूपुर बाजि रहल अछि। स्त्रीगणक चलाय देखि कामदेवहु केर हाथी लजा गेल छल। अनेकों तरहक बाजा सब बाजि रहल अछि। आकाश आ नगर दुनू स्थान मे सुन्दर मंगलाचार भ’ रहल अछि।

२८. शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती आर जे स्वभावहि सँ पवित्र आ सुन्दर-सयानी देवांगना लोकनि छलीह ओ सब भेष बदलि सुन्दर स्त्री केर वेश बनाकय रनिवास मे जाय मिलि गेलीह आर मनोहर वाणी सँ मंगलगान करय लगलीह। सब कियो हर्षक विशेष वश मे रहथि, तेँ कियो हुनका सब केँ नहि चिन्हलक।

छन्द :
को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥

के केकरा चिन्हय-बुझय! आनन्द केर वश भेल सब दूल्हा बनल ब्रह्म केर परिछन करय चललीह। मनोहर गान भ’ रहल अछि। मधुर-मधुर नगाड़ा बाजि रहल अछि। देवता सब फूल बरसा रहल छथि। बड़ा भारी शोभा पसरल अछि। आनन्दकन्द दूल्हा केँ देखिकय सब स्त्रि लोकनि हृदय मे हर्षित छथि। हुनका लोकनिक कमल समान नेत्र मे प्रेमाश्रुक जल उमड़ि गेल अछि, अंग मे पुलकावली (रोमांच) बेर-बेर उठि रहल अछि।

२९. श्री रामचन्द्रजीक वरक वेश देखि सीताजीक माता सुनयनाजीक मोन मे जे सुख भेटलनि से हजारों सरस्वती और शेषजी सौओ कल्प धरिक समय मे नहि कहि सकैत छथि। अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्प मे पर्यन्त नहि कहि सकैत छथि। मंगल अवसर बुझि नेत्र केर जल केँ रोकने रानी प्रसन्न मोन सँ परिछन कय रहल छथि। वेद मे कहल गेल आ कुलाचार मुताबिक सब व्यवहार रानी खूब नीक जेकाँ पूरा कयलीह।

३०. पंचशब्द (तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा आर तुरही – एहि पाँच प्रकार के बाजाक शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मंगलगान भ’ रहल छल। नाना प्रकार के वस्त्र सभक पाँवड़ (चलयवला मार्ग पर बिछायल जायवला कार्पेट) पड़ि रहल छल।

३१. रानी आरती कयकेँ अर्घ्य देलनि तखन श्री रामजी विवाह मंडप मे गमन कयलथि। दशरथजी अपन मंडली सहित विराजमान भेलथि। हुनकर वैभव केँ देखिकय लोकपाल सेहो लजा गेलथि। समय-समय पर देवता सब फूल बरसाबैत रहैत छथि आर भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करैत छथि। आकाश और नगर मे शोर मचि रहल अछि। अपना-पराया कियो किछु नहि सुनैत अछि।

३२. एहि तरहें श्री रामचन्द्रजी मंडप मे अयलाह आर अर्घ्य दयकय आसन पर बैसायल गेलाह। आसन पर बैसाकय, आरती कयकेँ दूल्हा केँ देखिकय स्त्रीगण सब खूब सुखी भ’ रहल छथि। ओ सब ढेर-के-ढेर मणि, वस्त्र आर गहना निछावर करैत मंगलगीत गाबि रहल छथि। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मणक वेश बनाकय तमाशा सब देखि रहला अछि। ओ सब रघुकुल रूपी कमल केँ प्रफुल्लित करयवला सूर्य श्री रामचन्द्रजीक छबि देखिकय अपन जीवन सफल बुझि रहल छथि।

३३. नौआ, बारी (सेवादार), भाट और नट श्री रामचन्द्रजीक निछावर पाबि खूब आनन्दित भ’ रहल छथि। ओ सब माथ बेर-बेर झुकबैत आ आशीष दैत रहैत छथि। हर्ष सँ हुनका लोकनिक हृदय भरि गेल छन्हि।

३४. वैदिक और लौकिक – सब विध (रीति) पूरा कय समधिद्वय जनकजी और दशरथजी खूब प्रेम सँ गला मिला रहल छथि। दुनू महाराज मिलन करैत एना शोभित भेलथि जे देखि कवि लोकनि उपमा दैत लजा जाइथ। जखन कोनो उपमा नहि भेटलनि, तखन हृदय मे हारि मानि ओ मोन मे यैह उपमा निश्चित कयलनि जे हिनका लोकनिक समान यैह टा छथि। समधि लोकनिक मिलाप या परस्पर संबंध देखि देवता अनुरक्त भ’ गेलथि आ फूल बरसाकय हुनकर यश गाबय लगलथि। ओ सब कहय लगलथि जे जहिया सँ ब्रह्माजी एहि जगत केँ उत्पन्न कयलनि तहिये सँ हम सब बहुतो विवाह देखलहुँ-सुनलहुँ, लेकिन सब प्रकार सँ समान साज-समाज और बराबरीक (पूर्ण समतायुक्त) समधि त आइये टा देखलहुँ अछि।

३५. देवता लोकनिक सुन्दर सत्यवाणी सुनिकय दुनू दिश अलौकिक प्रीति पसैर गेल। सुन्दर पाँवड़ व अर्घ्य दैत जनकजी दशरथजी केँ आदरपूर्वक मंडप तक लय अनलनि।

छन्द :
मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥

मंडप केँ देखि ओकर विचित्र रचना और सुन्दरता सँ मुनिक मोन सेहो मोहित भ’ गेलनि। सुजान जनकजी अपनहि हाथ सँ सभक लेल सिंहासन लगौलनि। ओ अपन कुल केर इष्टदेवताक समान वशिष्ठजी केर पूजा कयलनि आर विनय कय केँ आशीर्वाद प्राप्त कयलनि। विश्वामित्रजीक पूजा करैत समय केर परम प्रीति केर रीति त कहितो नहि बनैत अछि।

३६. राजा जनक वामदेव आदि ऋषि लोकनिक खूब प्रसन्न मोन सँ पूजा कयलनि। सब गोटे केँ दिव्य आसन देलनि आर सबसँ आशीर्वाद प्राप्त कयलनि। फेर ओ कोसलाधीश राजा दशरथजीक पूजा ईश महादेवहि केर समान कयलनि, आन कोनो भाव नहि छलन्हि। तदनन्तर हुनका संग सम्बन्ध केँ अपन भाग्य आ वैभव विस्तार केर सराहना कय हाथ जोड़ि विनती आ बड़ाई कयलनि।

३७. राजा जनकजी सब बरियाती लोकनि केँ सेहो समधि दशरथेजी जेकाँ खूब आदरपूर्वक पूजन कयलनि आर सब केँ उचित आसन देलनि। हम एक मुंह सँ एहि उत्साह के कि वर्णन करू! राजा जनक दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी सँ सब बरियाती केर सम्मान कयलथि।

३८. ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य, जे-जे श्री रघुनाथजीक प्रभाव केँ जनैत छलाह ओहो सब रूप बदलि-बदलि ब्राह्मणक वेश बना खूब सुख पबैत ई सारा लीला देखि रहल छलथि। जनकजी हुनको सब केँ देवता समान बुझि पूजन कयलनि आर बिना चिन्हने सब केँ सुन्दर आसन देलनि।

छन्द :
पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥

के केकरा चिन्हय-जानय! सब कियो अपनहुँ सुधि बिसरि गेल छल। आनन्दकन्द दूल्हा केँ देखिकय दुनू दिश आनन्दमयी स्थिति बनल छल। सुजान सर्वज्ञ श्री रामचन्द्रजी सब देवता लोकनि केँ चिन्हि गेलाह आर हुनका सभक मानसिक पूजा कय केँ मानसिक आसन प्रदान कयलनि। प्रभुक शील-स्वभाव देखि देवगण मनहि-मन खूब आनन्दित भेलाह। श्री रामचन्द्रजीक मुख रूपी चन्द्रमाक छबि केँ सभक सुन्दर नेत्र रूपी चकोर आदरपूर्वक पान कय रहल अछि आ प्रेम ओ आनन्दक कोनो कमी नहि अछि, सब आनन्दमग्न अवस्था मे देखल जा रहल छथि।

३९. समय देखि वशिष्ठजी शतानंदजी केँ आदरपूर्वक बजौलनि। ओ हुनका लग आदर संग अयलाह। वशिष्ठजी कहलखिन – आब जाउ आ राजकुमारी केँ आनि लियौन। मुनिक आज्ञा पाबि प्रसन्नतापूर्वक शतानंदजी जानकीजी केँ विवाह मंडप मे अनबाक वास्ते अन्दर चलि गेलाह। बुद्धिमती रानी पुरोहित केर वाणी सुनि सखी सभक संग अत्यन्त प्रसन्नता सँ भरि ब्राह्मणक स्त्रीगण आ कुल केर बूढ़-पुरान स्त्रीगण सहित कुलरीति पूरा कय सुन्दर-सुन्दर मंगलगीत गाबय लगलीह।

४०. श्रेष्ठ देवांगना लोकनि सेहो सुन्दर मनुष्य-स्त्रीक वेश मे छलीह, सब कियो स्वभावहि सँ सुन्दरी आर श्यामा (सोलह वर्ष केर अवस्था वाली) छलीह। हुनका सब केँ देखि रनिवासक स्त्रीगण खूब सुख पबैत छथि आर बिना चिन्हने ओ लोकनि सब केँ अति प्रिय लागि रहल छथि। हुनका सब केँ पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती समान जानि रानी बेर-बेर सम्मान करैत छथि। रनिवासक स्त्रीगण और सखी लोकनि सीताजी केर श्रृंगार कयकेँ मंडली बनाकय प्रसन्न भ’ हुनका मंडम मे लय चललीह।

हरिः हरः!!