स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री राम-लक्ष्मण और परशुराम-संवाद
पूर्वक अध्याय मे सीताजी द्वारा श्री रामजीक गला मे स्वयंवरक माला पहिरेबाक आ तदोपरान्त परशुराम जीक प्रवेश आ हुनक कोप केर चर्चा पढ़लहुँ। श्री रामजी द्वारा परशुराम सँ सम्बोधनक आरम्भ आ एहि सँ आगू –
१. हे नाथ! शिवजीक धनुष केँ तोड़यवला अहाँक कियो दासे होयत। कि आज्ञा अछि, हमरा सँ कियैक नहि कहैत छी? ई सुनिकय क्रोधी मुनि खिसियाकय बजलाह – सेवक ओ भेल जे सेवाक काज करय। शत्रुक काज कयकेँ त लड़ाई टा करबाक चाही। हे राम! सुनू, जे शिवजीक धनुष केँ तोड़लनि अछि ओ सहस्रबाहुक समान हमर शत्रु छथि। ओ एहि समाज केँ छोड़िकय अलग भ’ जाइथ, नहि त सब राजा मारल जेताह।
२. मुनिक वचन सुनिकय लक्ष्मणजी हँसलाह आर परशुरामजीक अपमान करैत बजलाह – हे गोसाईं! लड़कपन मे हम सब बहुतो रास धनुही सब तोड़ि देलहुँ लेकिन अहाँ एहेन क्रोध कहियो नहि कयलहुँ। एहि धनुष पर एतेक ममता कोन कारण सँ अछि?
३. ई सुनिकय भृगुवंश केर ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होइत कहय लगलाह – अरे राजपुत्र! काल केर वश भेला सँ तोरा बाजइयो के होश नहि छौक। सारा संसार मे विख्यात शिवजीक ई धनुष कि तोरा धनुही जेकाँ बुझाइत छौक?
४. लक्ष्मणजी हँसिकय कहलखिन – हे देव! सुनू! हमरा हिसाब सँ त सबटा धनुष एक्के समान अछि। पुरान धनुष केँ तोड़य मे कि हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी तँ एकरा नव धोखा सँ देखने रहथि। फेर ई त छुबिते टुटि गेल। एहि मे रघुनाथजी के कोनो दोष नहि छन्हि। मुनि! अहाँ बिना कारण कथी लेल क्रोध करैत छी?
५. परशुरामजी अपन फरसा दिश देखाकय बजलाह – अरे दुष्ट! तूँ हमर स्वभाव नहि सुनने छँ। हम तोरा बालक जानिकय नहि मारैत छी। अरे मूर्ख! कि तूँ हमरा खाली मुनि टा बुझलें, हम बालब्रह्मचारी आर अत्यन्त क्रोधी छी। क्षत्रियकुलक शत्रु त विश्वभरि मे विख्यात छी। अपन भुजाक बल सँ हम पृथ्वी केँ राजा सँ रहित कय देलहुँ आर बहुतो बेर ओकर राज ब्राह्मण केँ दय देलहुँ। अरे राजकुमार! सहस्रबाहु केर भुजा काटयवला हमर एहि फरसा केँ देख! अरे राजा के बालक! तूँ अपन माता-पिता केँ सोच केर वश नहि कर। हमर फरसा बड़ा भयानक अछि, ई गर्भहु केर बच्चा केँ नाश करयवला अछि।
६. लक्ष्मणजी हँसिकय कोमल वाणी सँ बजलाह – अहो, मुनीश्वर तऽ अपना केँ बड़ा भारी योद्धा बुझैत छथि। बेर-बेर हमरा कुरहैर देखबैत छथि। फूँक सँ पहाड़ उड़बय चाहैत छथि। एतय कियो कुम्हड़ के बतिया नहि अछि जे आंगूर (तर्जनी) देखित मरि जाइत अछि। कुठार और धनुष-बाण देखियेकय हम किछुओ बात अभिमान सहित कहने रही। भृगुवंशी बुझिकय आ यज्ञोपवीत देखिकय त जे किछु अपने कहैत छी, ताहि प्रति क्रोध केँ रोकिकय हम सहि लैत छी। देवता, ब्राह्मण, भगवान केर भक्त और गो – एहि पर हमरा सभक कुल मे वीरता नहि देखायल जाइछ। कियैक तँ हिनका सब केँ मारला सँ पाप लगैत अछि आर हिनका सँ हारि गेलापर अपकीर्ति होइत अछि, ताहि लेल अपने मारबो करी त अपनेक पैरे पर पड़बाक चाही। अपनेक एक-एक वचने करोड़ों वज्र केर समान अछि। धनुष-बाण और कुठार त अपने व्यर्थहि धारण करैत छी। ई धनुष-बाण और कुठार केँ देखिकय हम किछु अनुचित कहने होइत त तेकरा हे धीर महामुनि! क्षमा करब।
७. ई सुनिकय भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध संग गंभीर वाणी बजलाह – हे विश्वामित्र! सुनू, ई बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल अछि। काल केर वश भ’ कय ई अपन कुल केर घातक बनि रहल अछि। ई सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र केर कलंक थिक। ई बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर अछि। एखन क्षणहि भरि मे ई काल केर ग्रास भ’ जायत। हम चिकरिकय कहि दैत छी, फेर हमर दोष नहि देब। जँ अहाँ एकरा बचबय चाहैत छी त हमर प्रताप, बल और क्रोध बताकय एकरा मना करू।
८. लक्ष्मणजी कहलखिन – हे मुनि! अहाँक सुयश अहाँ रहैत दोसर के वर्णन कय सकैत अछि? अहाँ अपनहि मुँह सँ अपन करनी अनेकों बेर बहुतो प्रकार सँ वर्णन कय चुकल छी। एतबो पर सन्तोष नहि भेल हुए त फेर किछु कहि दिअ। क्रोध रोकिकय असह्य दुःख जुनि सहू। अहाँ वीरताक व्रत धारण करयवला, धैर्यवान आ क्षोभरहित छी। गाइर पढ़ैत शोभा नहि पबैत छी। शूरवीर त युद्ध मे करनी (शूरवीरता के कार्य) करैत अछि, कहिकय अपना केँ नहि चिन्हबैत अछि। शत्रु केँ युद्ध मे उपस्थित पाबि कायर टा अपन प्रताप के डींग मारल करैत अछि। अपने त मानू काल केँ हाक लगाकय बेर-बेर ओकरा हमरा लेल बजबैत छी।
९. लक्ष्मणजीक कठोर वचन सुनिते परशुरामजी अपन भयानक फरसा केँ समधानिकय हाथ मे लय लेलनि। आर बजलाह – आब लोक हमर दोष नहि दियए। ई कड़ू बात बाजयवला बालक मारल जेबाक योग्य अछि। एकरा बच्चा देखिकय हम बहुते बचेलहुँ, मुदा आब ई सचमुच मरहे लेल आयल अछि।
१०. विश्वामित्रजी कहलखिन – अपराध क्षमा कयल जाउ। बालकक दोष और गुण केँ साधु लोक नहि गनैत छथि। परशुरामजी कहलखिन – तीख धार केर कुठार, हम दयारहित और क्रोधी आर ई गुरुद्रोही और अपराधी हमरा सामने उत्तर दय रहल अछि। एतबु पर जँ हम एकरा बिना मारने छोड़ि रहल छी से हे विश्वामित्र! सिर्फ अहाँक शील (प्रेम) सँ। नहि त एकरा ई कठोर कुठार सँ काटिकय कनिकबे परिश्रम सँ गुरु सँ उऋण भ’ जइतहुँ।
११. विश्वामित्रजी हृदय मे हँसिकय बजलाह – मुनि केँ हरियरी सुझा रहल छन्हि। सब तैर विजयी हेबाक कारण ई श्री राम-लक्ष्मण केँ सेहो साधारण क्षत्रिये टा बुझि रहला अछि, लेकिन ई लोहमयी (केवल फौलाद के बनल) खाँड़ (खड्ग) छथि, कुसियारक खाँड़ नहि जे मुँह मे लैत देरी गलि जाइत अछि। दुखद अछि जे मुनि एखनहुँ धरि बेसमझ बनल छथि, हिनकर प्रभाव केँ नहि बुझि रहल छथि।
१२. लक्ष्मणजी कहलखिन – हे मुनि! अहाँक शील केँ के नहि जनैत अछि? ओ संसार भरि मे प्रसिद्ध अछि। अहाँ माता-पिता सँ त नीक जेकाँ उऋण भ’ए गेलहुँ, आब गुरुक ऋण रहल, जाहि लेल अपने सदिखन सोच मे पड़ल रहैत छी। से मानू जे हमरे माथा पर ढारि रहल होइ एखन। बहुत दिन बिति गेल, एहि सँ ब्याज सेहो बहुते बढ़ि गेल होयत। आब कोनो हिसाब जोड़निहार केँ बजा लिअ त हम तुरन्त झोरा खोलिकय दय देब।
१३. लक्ष्मणजीक कडुआ वचन सुनि परशुरामजी कुठार उठौलनि। सम्पूर्ण सभा हाय-हाय! कय केँ चिकरि उठल। लक्ष्मणजी फेर कहलखिन – हे भृगुश्रेष्ठ! अहाँ हमरा फरसा देखा रहल छी? लेकिन हे राजा लोकनिक शत्रु! हम ब्राह्मण बुझिकय चुप छी। अहाँ केँ कहियो रणधीर बलवान् वीर नहि भेटला अछि। हे ब्राह्मण देवता! अहाँ घरहि टा मे पैघ छी। ई सुनिकय सब ‘अनुचित बात, अनुचित बात’ कहिकय चिकरय लागल।
१४. तखन श्री रघुनाथजी इशारा सँ लक्ष्मणजी केँ रोकि देलनि। लक्ष्मणजीक उत्तर सँ, जे आहुति जेकाँ छल, परशुरामजीक क्रोध रूपी अग्नि केँ बढ़ैत देखि रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्रजी जल समान (शांत करयवला) वचन बजलाह – हे नाथ ! बालक पर कृपा करू। एहि सीधा आर दूधमुँहा बच्चा पर क्रोध जुनि करू। जँ ई अपनेक किछुओ प्रभाव जनितय त कि ई बेसमझ अहाँ बराबरी करितय? बालक जँ किछु चपलतो करैत अछि त गुरु, पिता व माता मन मे आनन्द सँ भरि जाइत छथि। तेँ एहि छोट बच्चा आर सेवक जानिकय कृपा करू। अहाँ त समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि छी।
१५. श्री रामचंद्रजीक वचन सुनिकय ओ किछु ठंढा भेलाह। एतबे मे लक्ष्मणजी फेर किछु कहिकय हँसि देलनि। हुनका हँसैत देखि परशुरामजी केँ फेरो नख सँ शिखा धरि (समूचा शरीर मे) क्रोध आबि गेलनि। ओ कहलखिन – हे राम! अहाँक भाइ त बड़ा भारी पापी अछि। ई देखय मे गोर अछि लेकिन हृदय एकर बड कारी छैक। ई विषमुख अछि, दूधमुँहा नहि। स्वभावहि सँ टेढ़ अछि, अहाँ अनुसरण नहि करैत अछि, अहाँ जेहेन शीलवान नहि अछि। ई नीच हमरा काल जेकाँ नहि देखि रहल अछि।
१६. लक्ष्मणजी हँसिकय कहलखिन – हे मुनि! सुनू, क्रोध पाप केर मूल थिक, जाहि के वश मे भ’कय मनुष्य अनुचित कर्म कय बैसैत अछि आर विश्व भरिक लोकक प्रतिकूल चलैत (सभक अहित करैत) अछि। हे मुनिराज! हम अहाँक दास छी। आब क्रोध त्यागिकय दया करू। टूटल धनुष क्रोध कयला सँ नहि जुड़ि जायत। ठाढ़-ठाढ़ अहाँ पैर दुखाइत होयत, बैसि जाउ। जँ धनुष एतबे प्रिय अछि त कोनो उपाय करू, कोनो गुणी कारीगर केँ बजबाकय जोड़बा लिअ।
१७. लक्ष्मणजी केर एना बजला सँ जनकजी डरा जाइत छथि आर कहैत छथि – बस, चुप रहू, अनुचित बाजब नीक नहि। जनकपुरक स्त्री-पुरुष थर-थर काँपि रहल छथि, आर मने-मन कहि रहल छथि जे ई छोट राजकुमार बड़ा खोट छथि।
१८. लक्ष्मणजीक निर्भय वाणी सुनि-सुनिकय परशुरामजीक शरीर क्रोध सँ जरल जा रहल छन्हि आर हुनकर बल केर हानि भ’ रहल छन्हि। बल घटल जा रहल छन्हि। तखन श्री रामचन्द्रजी पर एहसान जनबैत परशुरामजी बजलाह – अहाँक छोट भाइ बुझि हम एकरा बचा रहल छी। ई मन के मलिन आ शरीर के केहेन सुन्दर अछि जेना विष के रस सँ भरल सोनाक घैला।
१९. ई सुनिकय लक्ष्मणजी फेर हँसलाह। तखन श्री रामचन्द्रजी हुनका कन्हुआकय देखलाह जाहि सँ लक्ष्मणजी लजाकय विपरीत बाजब छोड़ि गुरुजी लग चलि गेलाह। श्री रामचन्द्रजी दुनू हाथ जोड़िकय अत्यन्त विनय सँ कोमल आर शीतल वाणी बजलाह – हे नाथ! सुनू, अहाँ त स्वभावहि सँ सुजान छी। अहाँ बालक केर वचन पर कान नहि दिअ, ओकर सुनल अनसुना कय दियौक। बिर्हनी आर बालक केर एक्के स्वभाव छैक। संतजन एकरा कखनहुँ दोष नहि लगबैत छथि। फेर ओ (लक्ष्मण) त कोनो काजो नहि बिगाड़लक अछि, हे नाथ! अहाँक अपराधी त हम छी। अतः हे स्वामी! कृपा, क्रोध, वध और बंधन, जे किछु करबाक हो से दास बुझिकय हमरा पर करू। जाहि प्रकार सँ शीघ्र अहाँक क्रोध दूर हुए से हे मुनिराज! कहू, हम ओहिना करब।
२०. मुनि कहलखिन – हे राम! क्रोध केना जाय, एखनहुँ अहाँक छोट भाइ हमरा दिश टेढ़े दृष्टि सँ ताकि रहल अछि। एकरा गर्दनि पर हम कुठार नहि चलेलहुँ त क्रोधे कय केँ कि कयलहुँ? हमर जाहि कुठारक घोर करनी सुनिकय राजा सभक स्त्रीक गर्भ तक खसि पड़ैत भछि ताहि फरसाक रहैत हम एहि शत्रु राजपुत्र केँ जीवित देखि रहल छी। हाथ चलैत नहि अछि, क्रोध सँ छाती जरल जा रहल अछि। ओह! राजा सभक घातक ई कुठार सेहो कुण्ठित भ’ गेल। विधाता विपरीत भ’ गेलाह। एहि सँ हमर स्वभाव बदलि गेल। नहि त भला! हमर हृदय मे कोनो समय कृपा केहेन? आइ दया हमरा ई दुःसह दुःख सहा रहल अछि।
२१. एतेक सुनिकय लक्ष्मणजी फेरो हँसलाह, सिर नमौलनि आर कहलनि – अहाँक कृपा रूपी वायु सेहो अहाँक मूर्ति केर अनुकूल अछि, वचन बजैत छी मानू फूल झड़ि रहल हो। हे मुनि ! यदि कृपा कयला सँ अहाँक शरीर जरैत अछि त क्रोध भेला पर त शरीरक रक्षा विधाते करता।
२२. परशुरामजी कहलखिन – हे जनक! देखू, ई मूर्ख बालक हठ कयकेँ यमपुरी मे निवास करय चाहैत अछि। एकरा तुरन्त हमरा आँखिक आगाँ सँ हंटबैत कियैक नहि छी? ई राजपुत्र देखय मे छोट अछि, मुदा ई बड़ा भारी खोट अछि।
२३. लक्ष्मणजी हँसिकय मनहि-मन कहलखिन – आँखि मूँदि लेला पर कतहु कियो नहि देखायत। ताहिपर परशुरामजी हृदय मे अत्यन्त क्रोध भरिकय श्री रामजी सँ कहलाह – अरे शठ! तूँ शिवजीक धनुष तोड़िकय उलटा हमरे ज्ञान सिखबैत छँ? तोहर ई भाइ तोरे सम्मति सँ कटु वचन बजैत अछि आर तूँ छल सँ हाथ जोड़िकय विनय करैत छँ। या त युद्ध मे हमरा संतुष्ट कर, नहि त राम कहेनाय छोड़ि दे। अरे शिवद्रोही! छल त्यागिकय हमरा सँ युद्ध कर। नहि त भाइ सहित तोरो मारि देबउ। एतेक कहिकय परशुरामजी कुठार उठेने बकबक केने जा रहल छथि आर श्री रामचन्द्रजी सिर झुकेने मनहि-मन मुस्कुरा रहल छथि।
२४. श्री रामचन्द्रजी मनहि-मन कहलखिन – गुनाह (दोष) त लक्ष्मण केर आर क्रोध हमरा पर करैत छथि। कतहु-कतहु सीधापन मे सेहो बड दोष होइत छैक। टेढ़ जानिकय सब लोक केकरहु वन्दना करैत अछि, टेढ़ चन्द्रमा केँ राहु सेहो नहि ग्रसैत अछि। फेर श्री रामचन्द्रजी प्रकटरूप मे कहलखिन – हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़ू। अहाँक हाथ मे कुठार अछि आर हमर ई माथ आगू अछि, जाहि प्रकार सँ अहाँक क्रोध जाय, हे स्वामी! वैह करू। हमरा अपन अनुचर (दास) जानू। स्वामी और सेवक मे युद्ध केहेन? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! क्रोधक त्याग करू। अहाँक वीर समान वेष देखियेकय बालक किछु कहि देने छल, वास्तव मे ओकर कोनो दोष नहि छैक। अहाँ केँ कुठार, बाण और धनुष धारण कएने देखि और वीर बुझिकय बालक केँ क्रोध आबि गेलैक। ओ अहाँक नाम त जनैत छल मुदा ओकरा अहाँक पहिचान नहि छलैक। अपन वंश (रघुवंश) केर स्वभावक अनुसार ओ उत्तर देलक। जँ अहाँ मुनि जेकाँ अबितहुँ, त हे स्वामी! बालक अहाँक चरणकी धूलि माथ पर रखितय। अनजान के गलती केँ क्षमा कय दियौक। ब्राह्मण केर हृदय मे बहुत अधिक दया रहबाक चाही। हे नाथ! हमर और अहाँक बराबरी केहेन? कहू त, कतय चरण और कतय मस्तक! कतय हमर राम मात्र छोट सन नाम और कतय अहाँ परशुसहित पैघ राम। हे देव! हमर एक्के टा गुण धनुष अछि आर अहाँक परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता सब मिलाकय) नौ गुण अछि। हम त सब प्रकार सँ अहाँ सँ हारल छी। हे विप्र! हमर अपराध केँ क्षमा करू।
२५. श्री रामचन्द्रजी परशुरामजी केँ बेर-बेर ‘मुनि’ और ‘विप्रवर’ कहलनि। तखन भृगुपति परशुरामजी कुपित भ’ कय हँसैत बजलाह – तोंहूँ अपन भाइये जेकाँ टेढ़ बुझाइत छँ। तूँ हमरा खाली ब्राह्मणे टा बुझैत छँ? हम जेहेन विप्र छी, से तोरा सुनबैत छी। धनुष केँ सुरुवा, बाण केँ आहुति और हमर क्रोध केँ अत्यन्त भयंकर आइग बुझे। चतुरंगिणी सेना सुन्दर समिधा (यज्ञ मे जरबयवला लकड़ी) थिक। बड़का-बड़का राजा ओहि मे आबिकय बलि के पशु भेल अछि, जेकरा हम एहि फरसा सँ काटिकय बलि देने छी। एहेन करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ हम कएने छी। जेना मंत्रोच्चारण पूर्वक ‘स्वाहा’ शब्द के संग आहुति देल जाइत छैक, तहिना हम चिकरि-चिकरिकय राजा सभक बलि देने छी। हमर प्रभाव तोरा नहि पता छौक, एहि सँ तूँ ब्राह्मणक धोखा मे हमर निरादर कयकेँ बाजि रहल छँ। धनुष तोड़ि देलें ताहि सँ तोहर घमंड बहुत बढ़ि गेल छौक। एहेन अहंकार छौक माने जेना संसारे केँ जीतिकय ठाढ़ छँ।
२६. श्री रामचन्द्रजी कहलखिन – हे मुनि! विचारिकय बाजू। अहाँक क्रोध बहुत पैघ अछि आर हमर गलती बहुत छोट अछि। पुरान धनुष छल, छुबिते टुटि गेल। हम कोन कारण सँ अभिमान करू? हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहिकय निरादर करैत छी त ई सत्य सुनू आ तखन संसार मे एहेन कोन योद्धा अछि जेकरा सँ हम डरक मारे मस्तक नमाबी? देवता, दैत्य, राजा या और बहुतो रास योद्धा, ओ चाहे बल मे हमर बराबर हो चाहे अधिक बलवान हो, यदि रण मे हमरा कियो ललकारय त हम ओकरा सँ सुखपूर्वक लड़ब, चाहे कालहि कियैक नहि हो। क्षत्रिय केर शरीर धयकय जे युद्ध मे डरा गेल, ओ नीच अपन कुल पर कलंक लगा देलक। हम स्वभावहि सँ कहैत छी, कुल केर प्रशंसा कयकेँ नहि जे रघुवंशी रण मे कालहु सँ नहि डराइछ। ब्राह्मणवंश केर एहेन प्रभुता (महिमा) छैक जे अहाँ सँ डराइत अछि, ओ सब सँ निर्भय भ’ जाइत अछि। जे भयरहित होइत अछि, ओहो अहाँ सँ डराइत अछि।
२७. श्री रघुनाथजीक कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनिकय परशुरामजीक बुद्धि केर परदा खुजि गेलनि। तखन ओ बजलाह – हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष केँ हाथ मे (अथवा लक्ष्मीपति विष्णु केर धनुष) लियऽ आर एकरा खींचू, जाहि सँ हमर सन्देह मेटा जाय। परशुरामजी धनुष देबय लगलाह, ताबत ओ स्वयं श्री रामचन्द्रजी लग चलि गेल। तखन परशुरामजीक मन मे बड़ा आश्चर्य भेलनि। ओ श्री रामजीक प्रभाव जानि गेलाह, जाहि कारण हुनकर शरीर पुलकित और प्रफुल्लित भ’ गेलनि। ओ हाथ जोड़िकय वचन बजलाह – प्रेम हुनकर हृदय मे समाइत नहि छलन्हि – हे रघुकुल रूपी कमल वन केर सूर्य! हे राक्षस सभक कुल रूपी घना जंगल केँ जरबयवला आइग! अहाँक जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो केर हित करनिहार! अहाँक जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम केर हरयवला! अहाँक जय हो। हे विनय, शील, कृपा आदि गुणक समुद्र और वचनक रचना मे अत्यन्त चतुर! अहाँक जय हो। हे सेवक सबकेँ सुख देनिहार, सब अंग सँ सुन्दर और शरीर मे करोड़ों कामदेवक छबि धारण करनिहार! अहाँक जय हो। हम एक मुख सँ अहाँक कि प्रशंसा करू? हे महादेवजीक मनरूपी मानसरोवर केर हंस! अहाँक जय हो। हम अनजाने मे अहाँ केँ बहुतो रास अनुचित वचन कहि देलहुँ। हे क्षमा के मंदिर दुनू भाइ! हमरा क्षमा करू। हे रघुकुल केर पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! अहाँक जय हो, जय हो, जय हो।
२८. एतेक कहिकय परशुरामजी तपस्या लेल वन लेल गमन कय गेलाह। ई देखि दुष्ट राजा सब बिना कारणे अपनहि मनःकल्पित डर सँ ई सोचैत जे रामचन्द्रजी सँ त परशुरामजी सेहो हारि गेलाह आ हम सब हिनकर अपमान कएने छलहुँ, आब कतहु ई बदला नहि लेथि, ताहि व्यर्थ डर सँ डराइत ओ कायर राजा सब चुपचाप जहिं-तहिं भागि गेलाह। देवता सब नगाड़ा बजौलनि। ओ सब प्रभुक उपर फूल बरसाबय लगलाह।
२९. जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित भ’ गेलथि। हुनका लोकनि केँ मोहमय (अज्ञान सँ उत्पन्न) शूल मेटा गेलनि। खूब जोर सँ बाजा बाजय लागल। सब कियो मनोहर मंगल साज साजय लगलथि। सुन्दर मुख आर सुन्दर नयनवाली कोयल समान मधुर बजनिहाइर स्त्रिगण लोकनि झुंडक झुंड मिलिकय सुन्दरगान करय लगलीह।
३०. जनकजीक सुखक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि, मानू जन्मो-जनम केर दरिद्र केँ धनक खजाना भेटि गेल होइक! सीताजीक भय बिला गेलनि, ओ एहेन सुखी भेलीह जेना चन्द्रमाक उदय भेला सँ चकोर केर कन्या सुखी भ’ जाइत अछि। जनकजी विश्वामित्रजी केँ प्रणाम कयलनि आर कहलखिन – प्रभु अपनहि केर कृपा सँ श्री रामचन्द्रजी धनुष तोड़लनि अछि। दुनू भाइ हमरा कृतार्थ कय देलनि। हे स्वामी! आब जे उचित हो से कहू।
३१. मुनि कहलखिन – हे चतुर नरेश! सुनू, ओना त विवाह धनुष केर अधीन छल, धनुष के टूटिते विवाह भ’ गेल। देवता, मनुष्य और नाग सब केँ ई बात बुझल छन्हि।