रामचरितमानस मोतीः सीता स्वयंवर व परशुराम क्रोध

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

जयमाला पहिरेनाय, परशुरामक आगमन व क्रोध

पैछला अध्याय मे श्री रामजी द्वारा शिवधनुष केँ क्षणहि मे भंग करबाक प्रकरण पढ़लहुँ। सभक प्रसन्नताक सीमा नहि रहबाक बात हमहुँ-अहाँ बुझि सकैत छी, जतय कियो घुसकइयो नहि सकल रहय आ जनक उदास भ’ गेल रहथि… ताहि ठाम जानकी जीक व्याकुलता केँ नीक सँ निहारैत पुरुषोत्तम राम एकहि क्षण मे ओहि धनुष केँ उठौलनि आ प्रत्यंचा चढ़ा खिंचिते धनुष बिच्चहि सँ टुटि गेल। आब आगू –

१. धीर बुद्धिक भाट, मागध एवं सूत लोकनि विरुदावली (कीर्ति) केर बखान कय रहल छथि। सब कियो घोड़ा, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कय रहल छथि। झाँझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहाओन नगाड़ा आदि बहुतो तरहक सुन्दर बाजा सब बाजि रहल अछि। जहिं-तहिं तरुणी लोकनि मंगल गीत गाबि रहल छथि।

२. सखी सहित रानी अत्यन्त हर्षित भेलीह, मानू सुखायल धान पर पानि पड़ि गेल हुए। जनकजी सब सोच त्यागि खूब सुखी भ’ गेलाह। जेना हेलैत-हेलैत थाकि गेल लोक केँ थाह भेटि गेलाक बाद विश्रामक सुख भेटैत छैक, किछु तहिना जनकजी कठोर संकल्प केँ पूरा भेला पर सुखी होयब स्वाभाविक छल।

३. धनुष टुटि गेलापर राजा सब एना श्रीहीन (निस्तेज) भ’ गेलाह जेना दिन मे दीपक केर शोभा घटि जाइत छैक।

४. सीताजी केर सुख कोना वर्णन कयल जाय, जेना चातकी स्वातीक जल पाबि गेलीह।

५. श्री रामजी केँ लक्ष्मणजी केना देखि रहला अछि जेना चन्द्रमा केँ चकोर केर बच्चा देखि रहल हुए।

६. तखन शतानंदजी आज्ञा देलनि आर सीताजी श्री रामजी लग जेबाक वास्ते चलि देलीह। संग मे सुन्दर चतुर सखी लोकनि मंगलाचारक गीत गाबि रहल छथि, सीताजी बालहंसिनीक चाइल सँ चलि रहल छथि। हुनकर अंग सब मे अपार शोभा छन्हि।

७. सखी लोकनिक बीच मे सीताजी केना शोभित भ’ रहली अछि जेना बहुतो रास छवि के बीच कोनो महाछवि हुए। करकमल मे सुन्दर जयमाल छन्हि जाहि मे विश्व विजय केर शोभा पसरल अछि।

८. सीताजीक शरीर मे संकोच अछि मुदा मोन मे खूब उत्साह छन्हि। हुनकर ई गुप्त प्रेम कियो नहि बुझि पाबि रहल अछि। लग आबिकय श्री रामजीक शोभा देखिकय राजकुमारी सीताजी जेना चित्र मे लिखल जेकाँ रहि गेलीह, यानि स्तब्ध स्थिर रहि गेलीह।

९. चतुर सखी सब ई अवस्था देखि बुझबैत कहय लगलीह – सुन्दर जयमाला पहिराउ। से सुनिकय सीताजी दुनू हाथ सँ माला उठेलीह मुदा प्रेम मे विवश भेलाक कारण पहिरायल नहि होइत छन्हि।

१०. एहि घड़ी हुनकर हाथ एना सुशोभित भ’ रहल अछि मानू डंडी सहित दुइ कमल चन्द्रमा केँ डराइते जयमाला दय रहल हो। एहि छवि केँ देखिकय सखी सब गाबय लगलीह। तखन सीताजी श्री रामजीक गला मे जयमाला पहिरा देलीह।

११. श्री रघुनाथजीक हृदय पर जयमाला देखि देवता लोकनि फूल बरसाबय लगलाह। समस्त राजागण एना सकुचा गेलाह जेना सूर्य केँ देखिकय कुमुदक समूह सिकुड़ि गेल करैत अछि।

१२. नगर आ आकाश मे बाजा बाजय लागल। दुष्ट लोक सब उदास भ’ गेल आर सज्जन लोक सब खूब प्रसन्न भ’ गेल। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार कयकेँ आशीर्वाद दय रहला अछि। देवता लोकनिक स्त्रिगण नाचैत-गबैत छथि। बेर-बेर हाथ सँ पुष्प भरल अंजलि छुटि रहल छन्हि। जहाँ-तहाँ ब्रह्म वेदध्वनि कय रहल छथि आर भाट लोकनि विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानि रहल छथि।

१३. पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनू लोक मे यश पसैर गेल जे श्री रामचन्द्रजी द्वारा धनुष तोड़ि देल गेल आर सीताजी केँ वरण कय लेल गेल। नगरक नर-नारी आरती कय रहल छथि आर अपन-अपन हैसियत (पूँजी) मुताबिक सब कियो सामर्थ्य सँ बहुत बेसी निछावर कय रहल छथि।

१४. श्री सीता-रामजीक जोड़ी एना सुशोभित भ’ रहल अछि मानू सुन्दरता आ श्रृंगार दुनू रस एकत्रित भ’ गेल हुए। सखी सब कहि रहल छथि – सीते! स्वामीक चरण छुबू, लेकिन सीताजी अत्यन्त भयभीत भेल हुनकर चरण नहि छुबैत छथि।

१५. गौतमजीक स्त्री अहल्याक गति केँ स्मरण कयकेँ सीताजी श्री रामजीक चरण केँ हाथ सँ स्पर्श नहि कय रहल छथि। सीताजीक अलौकिक प्रीति जानि रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मोन मे हँसैत छथि।

१६. ताहि समय सीताजी केँ देखिकय किछु राजा बड़ी ललचा गेलाह। ओ दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मोन मे खूब तमतमेलाह। ओ अभागल सब उठि-उठिकय, कवच पहिरि यत्र-तत्र कौचर्य करय लगलाह। कियो कहैत छथि, सीता केँ छिन लिय आ दुनू राजकुमार केँ पकड़िकय बान्हि लिय। धनुषे टा तोड़ला चाह पूरा नहि हेतनि। हमरा सभक जिबैत राजकुमारी केँ के ब्याहि सकैत अछि? यदि जनक किछु मदति करथि त युद्ध मे दुनू भाइ सहित हुनकहु जीति लिय।

१७. ई वचन सुनि साधु राजा बजलाह –

*एहि निर्लज्ज राज समाज केँ देखिकय त लाजो लजा गेल।

*अरे! तोरा लोकनिक बल, प्रताप, वीरता, बड़ाई और नाक (प्रतिष्ठा) त धनुषे संग चलि गेलौक। वैह वीरता रहौक या आब नव पर कतहु सँ भेटलौक अछि?

*एहेन दुष्ट बुद्धि छँ तखन त विधाता तोरा सभक मुंह पर कारी पोति देलखुन।

*ईर्ष्या, घमंड आ क्रोध छोड़िकय जी भरिकय श्री रामजीक छबि देखि ले।

*लक्ष्मण केँ क्रोधक प्रबल अग्नि बुझि ओहि मे कीट-पतंग बनबाक चेष्टा नहि कर।

*जेना गरुड़ केर भाग कौआ चाहय, सिंह केर भाग खर्हिया चाहय, बिना कारणे क्रोध करयवला अपन कुशल चाहय, शिवजी सँ विरोध करयवला सब प्रकारक सम्पत्ति चाहय, लोभी-लालची सुन्दर कीर्ति चाहय, कामी मनुष्य निष्कलंकता चाहय त कि ओ सब पाबि सकैत अछि?

*आर जेना श्री हरि केर चरण सँ विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहय, त हे राजागण! सीता लेल तोहर लालच सेहो ओहिना व्यर्थ हेतौक।

१८. हल्ला-गुल्ला सुनि सीताजी शंकित भ’ गेलीह। सखी सब हुनका माताक पास लय गेलीह। श्री रामचन्द्रजी मोन मे सीताजीक प्रेम केर बखान करैत स्वाभाविक गति सँ गुरुजी लग गेलाह। रानी सहित सीताजी दुष्ट राजा लोकनिक दुर्वचन सुनिकय सोचय लगलीह जे नहि जानि विधाता आब कि करयवला छथि।

१९. राजा लोकनिक वचन सुनिकय लक्ष्मणजी एम्हर-ओम्हर तकैत छथि, लेकिन श्री रामचन्द्रजी के डर सँ किछु बाजि नहि पबैत छथि। हुनकर नेत्र लाल आर भौंह टेढ़ भ’ गेलनि आर ओ क्रोध सँ राजा सब दिश देखय लगलाह, मानू मतवाला हाथीक झुंड देखिकय सिंह केर बच्चा केँ जोश आबि गेल हो।

२०. खलबली देखि जनकपुरीक स्त्रिगण सब व्याकुल भ’ गेलीह आर सब मिलिकय ओहि फसादी राजा सब केँ गारि दियए लगलीह।

२१. ताहि समय शिवजीक धनुष टुटबाक खबर सुनि भृगुकुल रूपी कमलक सूर्य परशुरामजी आबि गेलाह। हिनका देखिकय सब राजा सकुचा गेलाह, मानू बाज के झपटला पर बटेर नुका गेल हुए।

२२. गोर शरीर पर विभूति (भस्म) बड़ा फबि रहल अछि आर विशाल ललाट पर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दय रहल अछि। सिर पर जटा अछि, सुन्दर मुखचन्द्र क्रोधक कारण किछु लाल भ’ गेल अछि। भौंह टेढ़ आर आँखि क्रोध सँ लाल अछि। सहजो रूप मे देखैत छथि त एना लगैछ मानू क्रोध कय रहल छथि। बरद जेकाँ ऊँच और पुष्ट कंधा छन्हि, छाती और भुजा सब विशाल छन्हि। सुन्दर यज्ञोपवीत धारण कयने, माला पहिरने और मृगचर्म लेने छथि। डाँर्ह मे मुनिक वस्त्र (वल्कल) और दुइ तरकस बन्हने छथि। हाथ मे धनुष-बाण और सुन्दर कंधा पर फरसा धारण कयने छथि।

२३. शांत वेष अछि, लेकिन करनी बड़ी कठोर अछि। स्वरूपक वर्णन नहि कयल जा सकैछ। मानू वीर रस स्वयं मुनिक शरीर धारण कयकेँ ओतय आबि गेलथि जतय सब राजा लोकनि रहथि।

२४. परशुरामजीक भयानक वेष देखिकय सब राजा भय सँ व्याकुल होइत उठिकय ठाढ़ भ’ गेलाह आ पिता सहित अपन-अपन नाम कहि-कहि सब दंडवत प्रणाम करय लगलाह। परशुरामजी हितो बुझि जेकरा दिश देखैत छथि ओ बुझैत छथि मानू हुनकर आयु पूरा भ’ गेलनि।

२५. फेर जनकजी आबिकय सिर नमेलनि आर सीताजी केँ बजाकय प्रणाम करबौलनि। परशुरामजी सीताजी केँ आशीर्वाद देलनि। सखी सब हर्षित भेलीह आर ओतय आब बेसी काल रुकब ठीक नहि बुझि ओ सब हुनका अपन मंडली मे लय गेलीह।

२६. फेर विश्वामित्रजी आबिकय भेटलथि आर ओहो दुनू भाइ केँ हुनकर चरणकमल पर प्रणाम करय लेल कहलनि। कहलखिन ई राम और लक्ष्मण राजा दशरथ केर पुत्र छथि। हुनकर सुन्दर जोड़ी देखिकय परशुरामजी आशीर्वाद देलखिन।

२७. कामदेवहु केर मद केँ छोड़बयवला श्री रामचन्द्रजीक अपार रूप केँ देखिकय हुनकर नेत्र थकित (स्तम्भित) भ’ रहल छन्हि। फेर सब देखिकय, सब किछु बुझितो अनजान जेकाँ जनकजी सँ पुछैत छथिन जे ई कहू कि एतेक भारी भीड़ कथी के अछि? हुनकर शरीर मे क्रोध आबि गेलनि।

२८. जाहि कारण सब राजा आयल रहथि, राजा जनक से सबटा समाचार कहि सुनौलनि। जनकक वचन सुनिकय परशुरामजी घुमिकय दोसर दिश देखलथि त धनुषक टुकड़ा पृथ्वी पर खसल देखायल। अत्यन्त क्रोध मे भरिकय ओ कठोर वचन बजलाह – रे मूर्ख जनक! बता, धनुष के तोड़लक? ओकरा तुरन्त देखा, नहि तऽ अरे मूढ़! आइ हम जतय धरि तोहर राज्य छौक, ओतय धरिक पृथ्वी के उलटि देब।

२९. राजा केँ बहुते भय भेलनि जाहि के चलते ओ उत्तर नहि दैत छथि। से देखिकय कुटिल राजा सभक मोन मे खूब प्रसन्नता भेलैक। देवता, मुनि, नाग और नगरक स्त्री-पुरुष सब सोचय लगलाह, सभक हृदय मे बहुते भय छन्हि।

३०. सीताजीक माता मोन मे पछता रहल छथि जे विधाता सबटा बनल-बनायल काज बिगाड़ि देलनि। परशुरामजीक स्वभाव सुनिकय सीताजी केँ आधा क्षण सेहो कल्प समान बितय लगलनि। तखन श्री रामचन्द्रजी सबकेँ भयभीत देखि आर सीताजी केँ सेहो डरायल बुझि कहलनि – हुनकर हृदय मे नहि कोनो हर्ष रहनि आ न विषाद – क्रमशः ऐगला अध्याय मे।

हरिः हरः!!