स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
मंगलगान कयनिहार ‘भाट’ द्वारा जनकप्रतिज्ञाक घोषणा आ राजा लोकनि सँ धनुष नहि उठब, जनक केर निराशाजनक वाणी
धनुष यज्ञशाला मे सीता जीक प्रवेश उपरान्तः
१. राजा जनक भाट लोकनि केँ बजौलनि। ओ सब वंश केर कीर्ति (विरुदावली) गबिते आबि गेलाह। राजा कहलखिन – जाय केँ हमर प्रण सब केँ बुझा कय कहियौन। भाट सब आनन्द भरल हृदय सँ चललाह। ओ सब श्रेष्ठ वचन बजलाह – हे पृथ्वीक पालना करनिहार सब राजागण! सुनय जाउ। हम अपन हाथ उठाकय जनक जीक विशाल प्रण कहैत छी।
२. राजा लोकनिक भुजाक बल चन्द्रमा छी, शिवजीक धनुष राहु छी, ओ भारी अछि, कठोर अछि, ई सब केँ बुझले अछि। बड भारी योद्धा रावण आर बाणासुर सेहो एहि धनुष केँ देखिकय चुपचाप खिसकि गेलाह, उठेनाय त दूर, छूबय तक के हिम्मत नहि भेलनि। वैह शिवजीक कठोर धनुष केँ आइ एहि राज समाज मे जे तोड़ता, तीनू लोक केर विजय के संग हुनकहि संग जानकीजीक बिना कोनो विचार के हठपूर्वक वरण करतीह।
३. प्रण सुनिकय सब राजा ललचा उठलाह। जे वीरताक अभिमानी रहथि, ओ सब मनहि मन खूब तमतमेलाह। फाँर्ह बान्हिकय अकुलाइत उठलाह आर अपन इष्टदेव केँ सिर नमबैत चलि देलनि। बड़ा ताव सँ शिवजीक धनुष दिश ताकि फेर नजरि जमाकय ओकरा पकड़ैत छथि, करोड़ों भाँति सँ जोर लगबैत छथि, मुदा ओ उठैत नहि छन्हि।
४. जाहि राजाक मोन मे किछु विवेक छन्हि, ओ त धनुष के नजदीको नहि जाइत छथि। एम्हर ओ मूर्ख राजा तमतमाइत (किटकिटाकय) धनुष केँ पकड़ैत छथि, लेकिन जखन नहि उठैत छन्हि त लजाकय चलि जाइत छथि, मानू वीर केर भुजाक बल पाबिकय ओ धनुष आर बेसिये भारी होइत चलि जाइत अछि।
५. तखन दस हजार राजा एक्के बेर मे धनुष केँ उठाबय लगलाह, तैयो ओ हुनका सब सँ कनिक घुसकबो तक नहि करैत छन्हि। शिवजीक ओ धनुष केना नहि डिगैत छल जेना कामी पुरुष केर वचन सँ सतीक मन कथमपि चलायमान नहि होइत अछि।
६. सब राजा उपहास केर योग्य भ’ गेलाह जेना वैराग्य केर बिना संन्यासी उपहासक योग्य भ’ गेल करैत अछि। कीर्ति, विजय, महान वीरता – ई सबटा ओहि धनुष केर हाथे बरबस हारिकय चलि गेल। राजा सब हृदय सँ हारिकय श्रीहीन भ’ गेलाह आर अपन-अपन समाज मे जाय बैसलाह।
७. राजा सब केँ असफल देखिकय राजा जनक अकुला उठलथि आर एहेन वचन ओ बजलथि जे बुझू क्रोध सँ भरल छल – हम जे प्रण ठनने रही से सुनिकय द्वीप-द्वीप केर अनेकों राजा अयलाह। देवता और दैत्य लोकनि सेहो मनुष्यक शरीर धारण कयकेँ अयलाह, आरो बहुतो रास रणधीर वीर अयलाह। मुदा धनुष केँ तोड़िकय मनोहर कन्या, महान विजय एवं अत्यन्त सुन्दर कीर्ति केँ पाबयवला मानू ब्रह्माजी रचनहिये नहि छथि। कहू, ई लाभ किनका नीक नहि लगैत, लेकिन कियो शंकरजीक धनुष नहि चढ़ा सकलाह। अरे भाइ! चढ़ेनाय आ तोड़नाय त दूर, कियो तिल भरि माटियो नहि छोड़ा सकलथि। आब कियो वीरताक अभिमानी नाराज नहि होइथ। हम बुझि गेलहुँ जे पृथ्वी वीर सँ खाली भ’ गेल अछि। आब सबटा आशा छोड़िकय अपन-अपन घर जाउ, ब्रह्माजी सीताक विवाह लिखबे नहि कयलनि। जँ प्रण छोड़ैत छी त पुण्य जाइत अछि, तेँ कि करू, कन्या कुमारिये रहथि। यदि हम जनितहुँ जे पृथ्वी वीर सँ शून्य छथि त प्रण कयकेँ उपहासक पात्र नहि बनितहुँ।
हरिः हरः!!