स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री सीताजी केर धनुष यज्ञशाला मे प्रवेश
सुअवसर जानि जनकजी सीताजी केँ बजेबाक लेल आदेश देलनि। सब चतुर आ सुन्दर सखी लोकनि हुनका आरदपूर्वक आनय लेल विदाह भेलीह।
१. रूप आ गुण केर खान जगज्जननी जानकी जीक शोभाक वर्णन नहि कयल जा सकैछ। हुनका लेल कवि तुलसीदासजी केँ सारा उपमा तुच्छ लगैत छन्हि, कियैक तँ ओ लौकिक स्त्री लोकनिक अंग सँ अनुराग राखयवला होइत अछि, अर्थात् ओ एहि जग केर स्त्रीक अंग केँ देल जाइत अछि। काव्यक उपमा सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत सँ लेल गेल रहैछ, ओ भगवानक स्वरूपा शक्ति श्री जानकी जी केँ अप्राकृत, चिन्मय अंग लेल प्रयुक्त करब हुनक अपमान करब आर अपना केँ उपहासास्पद बनायब थिक।
२. सीताजीक वर्णन मे वैह उपमा सब दय के कुकवि कहाय आ अपयश केर भागी बनय! अर्थात् सीताजीक लेल ओहेन उपमा सभक प्रयोग करब सुकवि केर पद सँ अपना केँ अलग करब आ अपकीर्ति मोल लेब थिक, कोनो सुकवि एहेन बेवकूफी (नादानी) एवं अनुचित कार्य नहि करता। जँ कोनो स्त्रीक संग सीताजीक तुलना कयल जायत त जगत मे एहेन सुन्दर युवती अछिये कतय जेकर उपमा हुनका देल जाय!
३. पृथ्वीक स्त्रिगणक त बाते की, देवतो लोकनिक स्त्री केँ जँ देखल जाय आ हम सब अपेक्षा कतहु बेसी दिव्य आ सुन्दर राखब, त ओहि मे सरस्वती अओती मुदा ओ बहुत बाजयवाली मानल जाइत छथि, पार्वती अंर्द्धांगिनी छथि यानि अर्ध-नारीनटेश्वरक रूप मे हुनकर आधा अंग मात्र स्त्रीक छन्हि, शेष आधा अंग पुरुष-शिवजीक छन्हि, कामदेवक स्त्री रति पतिक बिना शरीरक (अनंग) जानि बहुत दुःखी रहैत छथि आर जिनकर विष और मद्य – जेहे समुद्र सँ उत्पन्न होयबाक नाता सँ प्रिय भाइ सब छथिन से लक्ष्मीक समान त जानकी जी केँ कहले कोना जाइन।
४. जाहि लक्ष्मी जीक बात उपर कहल गेल अछि ओ निकलल रहथि खारा समुद्र सँ, जेकरा मथबाक लेल भगवान अति कर्कश पीठ वला कच्छप केर रूप धारण कयलथि, रस्सी बनायल गेल महान विषधर वासुकि नाग केर, मथबाक आधार बनलथि अतिशय कठोर मंदराचल पर्वत आर ओकरा मथलथि सब देवता लोकनि आ दैत्य लोकनि मिलिकय।
५. जाहि लक्ष्मी केँ अतिशय शोभाक खान और अनुपम सुन्दरी कहल जाइत अछि तिनका प्रकट करय मे हेतु बनला ई सब असुन्दर आ स्वभाविके कठोर उपकरण सब। एहेन उपकरण सँ प्रकट भेली लक्ष्मी श्री जानकी जीक समता केँ कोना पाबि सकैत छथि। हाँ, एकर विपरीत यदि छबि रूपी अमृत केर समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो, श्रृंगार (रस) पर्वत हो आर ताहि छबिक समुद्र केँ स्वयं कामदेव अपनहि करकमल सँ मथथि, तेहेन संयोग भेला सँ जखन सुन्दरता आर सुख केर मूल लक्ष्मी उत्पन्न होइथ, तैयो कवि लोकनि ओकरा बहुत संकोच करिते टा सीता जीक समान कहता।
६. जाहि सुन्दरताक समुद्र केँ कामदेव मथता सेहो सुन्दरता प्राकृत, लौकिक सुन्दरते होयत, कियैक तँ कामदेव स्वयं सेहो त्रिगुणमयी प्रकृति केर विकार सँ युक्त छथि। तेँ ओहि सुन्दरता केँ मथिकय प्रकट भेली लक्ष्मी सेहो उपर्युक्त लक्ष्मीक अपेक्षा बेसी सुन्दर आ दिव्य भेलो पर हेती प्राकृत मात्र, तेँ हुनका संग जानकी जीक तुलना करब कवि लेल अत्यन्त संकोचहि केर बात होयत।
७. जाहि सुन्दरता सँ जानकी जीक दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बनल अछि ओ सुन्दरता उपर्युक्त सुन्दरता सब सँ भिन्न आ अप्राकृत अछि – वस्तुतः लक्ष्मी जीक अप्राकृत रूप सेहो यैह छन्हि। ओ कामदेव केर मथला सँ नहि आबि सकैत अछि आर ओ जानकीये जीक स्वरूप मात्र अछि, तेँ हुनका सँ भिन्न नहि, जखन कि उपमा देल जाइत अछि भिन्न वस्तुक संग। एकर अतिरिक्त जानकी जी प्रकट भेली अछि स्वयं अपनहि महिमा सँ, हुनका प्रकट करबाक लेल कोनो भिन्न उपकरण केर अपेक्षा नहि अछि। अर्थात शक्ति शक्तिमान सँ अभिन्न, अद्वैत तत्व थिक, अतएव अनुपमेय अछि, यैह गूढ़ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि एहि अभूतोपमालंकार केर द्वारा बड़ा सुन्दरता सँ व्यक्त कयलनि अछि।
८. सुन्दर-सयानी सखी सब सीता जी केँ संग लेने सुन्दर-मनोहर वाणी सँ गीत गबैत चललीह। सीता जीक नवल शरीर पर सुन्दर साड़ी सुशोभित अछि। जगज्जननीक महान छबि अतुलनीय अछि। सब आभूषण अपन-अपन जगह पर शोभित अछि, जेकरा सखी लोकनि अंग-अंग मे नीक सँ सजाकय पहिरौने छथि। जखन सीताजी रंगभूमि मे पैर रखलीह, तखन हुनकर दिव्य रूप देखिकय स्त्री, पुरुष सब मोहित भ’ गेल। देवता लोकनि हर्षित भ’ कय नगाड़ा बजबय लगलाह आ पुष्प केर बरसात करैत अप्सरा सब सेहो गाबय लगलीह।
९. सीता जीक करकमल मे जयमाला सुशोभित छन्हि। सब राजा चकित भ’ कय अचानक हुनका दिशि देखय लगलाह। सीताजी चकित चित्त सँ श्री रामजी केँ देखय लगलीह, तखन सब राजा लोकनि मोह केर वश भ’ गेलथि। सीता जी मुनि लग बैसल दुनू भाइ केँ देखलनि त हुनकर नेत्र अपन खजाना पाबिकय ललचाकय ओतहि श्री रामजी मे जाय लागल, स्थिर भ’ गेल। मुदा गुरुजन लोकनिक लाज सँ तथा बहुत पैघ समाज केँ देखिकय सीताजी सकुचा गेलीह। ओ श्री रामचन्द्रजी केँ हृदय मे आनिकय सखी सभक दिशि देखय लगलीह।
१०. श्री रामचन्द्र जीक रूप और सीता जीक छबि देखिकय स्त्री-पुरुष पलक झपकनाय सेहो छोड़ि देलनि, सब एकटक हुनके सब केँ देखय लगलाह। सब कियो अपन मोन मे सोचैत छथि मुदा कहैत लजाइत छथि, मनहि-मन ओ सब विधाता सँ विनय करैत छथि – हे विधाता! जनक केर मूढ़ता केँ शीघ्र हरि लिऔन आर हमरे सब जेकाँ सुन्दर बुद्धि हुनको दिऔन जाहि सँ बिना विचार कएने राजा अपन प्रण छोड़िकय सीता जीक विवाह राम जी सँ कय देथि। संसार हुनका नीक कहतनि, कियैक त ई बात सब केँ नीक लागि रहल छैक। जिद्द कयला सँ अन्त मे पर्यन्त हृदय मे दाह हेतनि। सब लोक एहि लिलसा मे मगन भ’ रहल छथि जे जानकी जीक योग्य वर त वैह साँवला मात्र छथि।
हरिः हरः!!