दृष्टि आ समझ सभक अलग होइत छैक – दार्शनिक दृष्टान्त

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

यात्री

हम सब जीवन यात्रा मे छी। ई यात्रा पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न जीवरूप मे प्राप्त अछि। ठीक तहिना एहि ब्रह्माण्डक अनन्त संरचना मे अनन्त पृथ्वीक परिकल्पना आ अनन्त जीवनयात्राक कल्पना यथार्थ सत्य थिक। बुझनिहार बुझैत छथि। अबुझ भटैक रहल छथि। बुझ-अबुझ केर स्थिति सेहो महान सत्य थिक। जरूरी नहि जे ‘दर्शन’ सब बुझय, सब पढ़य आ सब अनुकरण करय। लेकिन जे ज्ञानी अछि ओ ज्ञानक खोज मे निरन्तर यात्रा कय रहल अछि। आउ, आजुक दिन एकटा विशिष्ट दर्शन पर नजरि दीः

श्रीभगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥१३-१॥
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥१३-२॥

श्री भगवान् बजलाह –

कुन्तीनन्दन! मन, बुद्धि आर इन्द्रिय आदि सहित जे स्थूल शरीर देखय मे अबैत अछि, ई ‘क्षेत्र’ कहल जाइत अछि। [अर्थात् क्षेत्र परिवर्तनशील, क्षयिष्णु (क्षीण होयवला) एवं नाशवान् अछि।] एहि क्षेत्र केँ जे जनैत अछि, ओकरा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ केर तत्त्व केँ जानयवला महापुरुष ‘क्षेत्रज्ञ’ केर नाम सँ कहैत छथि आर हे भरतवंशोद्भव (भरतवंश मे उत्पन्न)! सम्पूर्ण क्षेत्र मे जे क्षेत्रज्ञ अछि, सेहो हमरे जानब, हमरे स्वरूप बुझू। अर्थात् ओ क्षेत्रज्ञ हमरा सँ भिन्न नहि अछि। एहि तरहें हमरा सँ अभिन्न क्षेत्रज्ञ आ ताहि सँ भिन्न क्षेत्र – एहि दुनू केँ जे ज्ञान अछि, वैह हमर मतानुसार ज्ञान थिक। तात्पर्य ई जे सम्पूर्ण नाशवान् पदार्थ सँ विमुख भ’ कय एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा मे अभिन्नभाव सँ स्थित भेनाय ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञक वास्तविक ज्ञान’ थिक।

अन्वयः

“कौन्तेय, इदम्, शरीरम्, क्षेत्रम्, इति अभिधीयते। यः, एतत्, (क्षेत्रम्), वेत्ति, तम्, तद्विदः, क्षेत्रज्ञः, इति, प्राहुः। च, भारत, सर्वक्षेत्रेषु, क्षेत्रज्ञम्, अपि, माम्, विद्धि, यत्, क्षेत्रक्षेत्रज्ञोः, ज्ञानम्, तत्, ज्ञानम्, मम, मतम्।”

गीताक १३म् अध्याय मे भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा एहि दुइ महान वाक्य संग शरणागत शिष्य अर्जुन केँ मानव कर्तव्य आ सर्वोच्च ज्ञान प्राप्तिक सन्देश देल गेल अछि। प्रस्तुत श्लोक आ भावानुवाद संग अन्वय ‘गीताक ज्ञानयोग’ पुस्तक सँ लेल गेल अछि। स्वामी रामसुखदास जी महाराज केर लिखल एहि पुस्तक मे मात्र एहि दुइ श्लोक केर आधार पर सम्पूर्ण ज्ञान केर व्याख्या कय देल गेल अछि। लेकिन ई ज्ञान प्राप्तकर्ता के भ’ सकैत अछि? कोन पाठक एकरा एहि रूप मे बुझि जायत? चुनौती ओतय छैक। हम मनुष्य कोनो ज्ञान (जानकारी) हासिल करय लेल अन्ततः अपन सीमित बौद्धिक सामर्थ्य प्रयोग मे लबैत छी। आर एहि तरहें सौंसे संसार मे, संसार सँ पार अनन्त आकाश व ब्रह्माण्ड मे ज्ञानक अनेकों भंडार उपलब्ध अछि जेकरा हम-अहाँ अपन-अपन सीमित दृष्टि सँ बुझैत ओ जनैत छी, किंवा बुझबाक-जनबाक प्रयत्न करैत छी। एहि ठाम ‘साधना’ यथा ‘स्वाध्याय’ आ निरन्तर अभ्यास यानि योग (ज्ञानक जोड़) करैत जे सब बढैत अछि, ओकर दृष्टि नित्य फरिच्छ होइत चलि जाइत छैक आर ओ अनन्त आकाश – ब्रह्माण्डक यात्रा मे सदैव आनन्दित यात्री बनिकय बढैत रहैत अछि। चरैवेति-चरैवेति!!

हरिः हरः!!