— उग्रनाथ झा।
मिथिला सदा सँ धर्म , कर्म आ साधना के भूमि रहल अछि । एक सऽ एक वेद वेदान्त , आध्यात्म के साधक रहलाह अछि ।जाहि माटि पर आदिशाक्ति मां पराम्बा अवतरित छथि, श्री नारायण दुलहा रूप धारण केलथि , त श्री शंभु चाकरि बनि भांग , बेलपात लोढ़ने छथि । ताहि धरती पर धार्मिक आ आध्यात्मिक मूल सँ मैथिल पाछु हटता संभव प्रतित नहि होएछ।
हमरा लोकनि जाहि सनातन धर्म के उपासक छि ओ 33 कोटि देवी देवता आ प्रकृति के पूजन मे आस्थाक निवास अछि। एहि क्रम मिथिला में चन्द्र पूजन के विधान छैक । जेकर पाछा शाश्त्रीय मत छैक जे श्री कृष्ण के मिथ्याक कलंक लगानाय आ चन्द्रमा के श्रापित भेनाय। एहि संबंधमे दू तरहक कथा प्रचलित अछि ।पहिल त ई जे प्रथम पूज्य गौड़ी सुत शिव दुलारा के श्री गजानन महाराज के देख अचानक चन्द्रमा के हंसी लागि गेलैन । हंसैत चन्द्रमा के गजानन महराज कुपित भऽ श्राप दय दैत छथिन्ह जे अहाँ केँ हमरा स्वरुप देख हँसी लागल जे अहाँ के रूपवती होएवाक घमंड थिक तऽ जाउ आई सँ अहाँ सुन्दरता के कारण अछि प्रकाश जे विलुप्त भय जाएत ,कियो अहांक दर्शन नहि करत ऽ।एहि शाप सँ मुक्ति हेतु चन्द्रमा के बहुत अनुनय विनय केलाह पर देवतागण द्वारा एकर मुक्ति स्वयं के गणेश के पूजन क प्रसन्न करबाक उपाय बतोलन्हि । तत्पश्चात चंद्रमा गणेश के प्रसन्न केलीह गणेश जी आशिर्वाद देलखिन जे जाउ अहाँ प्रकाश वापस आएत मुदा जहिना धिरे धिरे प्रकाश आएत महिना एक दिन पूर्ण प्रकाश पाएब तत्पश्चात पुनः धिरे धिरे प्रकाश विलुप्त होएत पुनः मास में एक दिन पुर्ण प्रकाश हिन रहब । आजूका दिन जे बिन हमरा अहाँ दूनू के पूजन केने चन्द्र दर्शन करता हुनका मिथ्या के कलंक लगतन्हि ।जाहि दीन चन्द्रमा के श्राप मुक्त कयल गेल छल ओहि भादव शुक्ल चतुर्थी छल । ओहि दिन सँ चौठी चानक पूजा के परंपरा चलल । ताहि हेतु श्रीगणेश पूजन , गौड़ीपूजन संग रोहिणी सहित भाद्र शुक्ल चतुर्थी चन्द्र पूजन के परंपरा चलल । पूजनोपरांत मैथिल परिवार बाले बच्चे नैवेद्य स्वरुप विभिन्न पकवान यथा खिर पूड़ी, टिकरी , पुरूकिया, दहि भरल छाछि ,केरा,मधूर, यथासाध्य डाली पर उत्सर्ग के हाथ में लय चन्द्र दर्शन करैत अछि।
एहि पूजन में महिला व्रती के द्वारा सायंकाल में पूजा कयल जाएत अछि । परंपरा अनुसार पूजा काल में घरमे उपस्थित पुरूष क संख्या के अनुसार खीर पुड़ी अलग अलग ढ़ेरी लागाओल जाएत छैक जे मरर के नाम सँ जानल जाएत छै जेकरा पूजनोपरांत पुरुषही द्वारा भंगबाक विधान छै। शास्त्रीय व्याख्यानुसार कहल जाईत छैक जे एक बेर भगवान श्री कृष्ण जी सेहो मिथ्याक कलंक के भागी बनल छलाह, भेल एहन जे संत्राजीत नामक एकटा यदुवंशी जे सुर्यक अनन्य भक्ति सँ स्यमंतक नामक मणि प्राप्त केलाह जे दिव्य मणि प्रतिदिन स्वर्ण प्रदान करै छल। ओहि मणि के प्रभाव सँ ओहि क्षेत्र रोग , चोरि , पाप, अग्नि , अकाल, सुखाड़, दहाड़ नहि होएत छल । भेल एहन जे संत्राजीत एक दिन राजा उग्रसेन के दरबार में गेल श्री कृष्ण दरवार में उपस्थित छलाह । श्री कृष्ण के पारखी नजरि मणि के चिन्ह गेल ओ सोचलनि जे य़दि ई मणि राजा उग्रसेन के दरबार में रहतै त कतेक निक होईत । श्री कृष्ण के एहि सोच के बारे में भनकी संत्राजित के लागि गेल ओ एहि मणि के अपन भाई प्रसेन के दऽ देवकी। एक दिन प्रसेन किछु काज सँ जंगल गेल त ओतय सामना सिंह सँ भय गेल । सिंह प्रसेन के मारि देलक । ओ स्यमंतक मणि सिंह ल लेलक। जहन जंगल में सिंह के सामना जाम्बबान सँ भेल त स्यमंतक मणि देख जाम्बबान सिंह के मारि प्राप्त केलाह । ओ ओहि मणि के आनि अपन पुत्रि जाम्बवति के देल। एमहर संत्राजित प्रसेन के मारि स्यमंतक मणि छिनबाक आरोप कृष्ण पर लगादेलक ।श्रीकृष्ण अपना पर लागल ई मिथ्या कलंक के मेटेबा लेल फिरिशान सुत्र ताकय लगलाह । भजियाबैत भजियाबैत जखन जंगल में जाम्बवान के खोलि (गुफा) में प्रवेश केलाह त मणि देख खुब क्रोधित भेलाह ।ओकर मांग केलन्हि त जाम्बवान युद्ध ठानि देल ।लगातार 21 दिन तक युद्धोपरांत जाम्बवान के अनुभव भेल जे इ साधारण मानव नहि तहन योगबल सऽ ज्ञान भेल जे त्रेता युगीन हमर स्वामी श्रीराम छलाह जे वर्तमान में श्री कृष्ण छथि। तखन खुशी खुशी श्री कृष्ण के स्यमंतक मणि फिरौलन्हि आ विशेष अनुनय पर श्री कृष्ण जाम्बवान के पुत्री जाम्बवती सँ विवाह केलाह । तदोपरांत स्यमंतक मणि संत्राजित के फिरौलन्हि ।एहि सत्यता के जानि संत्राजित अति प्रसन्न भेलाह आ अपन पुत्री सत्यभामा सँ श्री कृष्ण के विवाह कय देलाह।ताहि हेतु चन्द्रदर्शन डाली हाथ में लय एहि घटना के रेखांकित करैत मंत्र पढल जाए छैक
सिंह: प्रसेन मण्वधीत्सिहो जाम्बवता हत:।
सुकुमार मां रोदीस्तवह्येष: स्यमंतक: ।।
दिव्य शंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम् ।
नमामि शशिनं भक्त्या शंभोर्मुकुट भूषणम ।
एहि मंत्रे प्रार्थना करैत दर्शन क पूजा के पूर्णाहुति कयल जाएत छैक ।
एहि शास्त्र सम्मत पूजा आ लोकाचार सँ पता चलैत छैक जे मिथिला के धार्मिक आ आध्यात्मिक परंपरा कतेक सुदृढ़ छल। पुर्वज कतेको अग्रसोचि आ धर्मज्ञ छलाह जे पाबनि तिहार के लोकाचार सँ जोड़ि देने छलाह ताकी आबय बला संतति धर्म विमुख नहि हो । एकटा उत्सव के रूप में मनाबैति अनादि काल तक धर्म धारण केने रहय । आई हमरा लोकनि कतबो आधुनिक भ गेलौ मुदा वास में होए वा प्रवास में मुदा एहि तरहक जे पाबनि निश्चित रूपे करैत छि । घर घर में उमंग सँ मनाओल जाएत छैक । जौ बूजूर्ग आस्था सँ करैथ छथि,त बच्चा निकनिकूत पकवान लोभे , आस्थाक जड़िसँ जुड़ल रहबाक प्रेरणा त बनल रहैत छैक।
ताहि लेल कहवी छै-
उगह चान की लपकह पुआ