स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
विश्वामित्रक राजा दशरथ सँ राम-लक्ष्मण केँ माँगब आ ताड़का वध
जे व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण छथि आ जिनकर न नाम छन्हि न रूप, वैह भगवान भक्त वास्ते नाना प्रकारक अनुपम (अलौकिक) चरित्र करैत छथि। ई सब चरित्र हम गाबिकय (बखान करैत) कहलहुँ अछि। आब आगूक कथा मोन लगाकय सुनू। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन मे शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानिकय रहैत छलाह, जतय मुनि जप, यज्ञ और योग करैत छलथि, मुदा मारीच और सुबाहु सँ बहुते डराइत रहथि। यज्ञ देखिते देरी राक्षस दौड़ि पड़ैत छल आर उपद्रव मचबैत छल, जाहि सँ मुनि (बहुत) दुःखी होइत छलथि। गाधि के पुत्र विश्वामित्रजीक मन मे चिन्ता बैसि गेलनि जे ई पापी राक्षस भगवान के मारने बिना नहि मरत। तखन श्रेष्ठ मुनि मन मे विचार कयलनि जे प्रभु पृथ्वीक भार हरबाक लेल अवतार लेलनि अछि। यैह बहाने जाकय हम हुनकर चरणक दर्शन करब आर विनती कय केँ दुनू भाइ केँ लय आनब।
१. अहा! जे ज्ञान, वैराग्य और सब गुणक धाम छथि, ताहि प्रभु केँ हम नयन भरिकय देखब! बहुतो प्रकार सँ मनोरथ करैत जाय मे सेहो देरी नहि लगलनि। सरयूजीक जल मे स्नान कयकेँ ओ राजाक दरबजा पर पहुँचि गेलथि। राजा जखन मुनिक एबाक सूचना सुनलनि, तखन ओ ब्राह्मणक समाज केँ संग लय हुनका सँ भेटय गेलथि आर दण्डवत् प्रणाम कय केँ मुनि केँ सम्मान करैत हुनका अपन आसन पर बैसौलनि दरबार मे। चरण पखारैत बहुत पूजा कयलनि आर कहलनि – हमरा समान धन्य आइ दोसर कियो नहि अछि। फेर अनेकों प्रकार के भोजन करबेलनि, एहि सब स्वागत-सत्कार-सम्मान सँ मुनि हृदय मे बहुत हर्ष प्राप्त कयलनि।
२. पुनः राजा अपन चारू पुत्र केँ मुनिक चरण पकड़ि प्रणाम करबौलनि। श्री रामचन्द्रजी केँ देखिकय मुनि अपन देहक सुधि बिसरि गेलाह। ओ श्री रामजीक मुख केर शोभा देखिते एना मग्न भ’ गेलाह मानू चकोर पूर्ण चन्द्रमा केँ देखिकय लोभा गेल हुए। तखन राजा मन मे हर्षित होइत ई वचन कहलखिन – हे मुनि! एहि तरहक कृपा तँ अपने कहियो नहि कएने रही। आइ कोन कारण सँ अपनेक शुभागमन भेल? कहू, हम ओकरा पूरा करय मे देरी नहि लगायब।
३. मुनि कहलखिन – हे राजन्! राक्षस सभक समूह हमरा बहुत सतबैत अछि तेँ हम अहाँ सँ किछु माँगय आयल छी। छोट भाइ सहित श्री रघुनाथजी केँ हमरा दी। राक्षस सब केँ मारल गेलापर हम सनाथ (सुरक्षित) भ’ जायब। हे राजन्! प्रसन्न मन सँ हिनका लोकनि केँ हमरा सौंपि दिअ, मोह और अज्ञान केँ छोड़ि दिअ। हे स्वामी! एहि सँ अहाँ केँ धर्म आ सुयश केर प्राप्ति होयत आर हिनका सभक परम कल्याण हेतनि।
४. एहि अत्यन्त अप्रिय वाणी केँ सुनिकय राजाक हृदय काँपि उठलनि आर हुनकर मुखक कान्ति सेहो हेरा गेलनि। ओ कहलखिन – हे ब्राह्मण! हम एहि बुढापा मे ई चारि गो बेटा प्राप्त कयलहुँ अछि, अपने विचारिकय बात नहि कहलहुँ। हे मुनि! अहाँ पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँगि लिअ, हम आइ बड़ा हर्ष संग अपन सर्वस्व दय देब। देह आर प्राण सँ बेसी प्यारा किछु नहि होइत छैक, हम ओहो एक पल मे दय देब। सब पुत्र हमरा प्राणक समान प्यारा अछि, ओहू मे हे प्रभो! राम केँ तँ कोनो तरहें दैत नहि बनैत अछि। कतय ओ अत्यन्त डरावना आ क्रूर राक्षस और कतय परम किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) हमर सुन्दर पुत्र!
५. प्रेम रस मे सनल राजाक वाणी सुनिकय ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी हृदय मे बड़ा हर्ष मानलनि। तखन वशिष्ठजी राजा केँ बहुतो प्रकार सँ समझेलखिन, जाहि सँ राजाक सन्देह समाप्त भेलनि। राजा तखन बड़ा आदर सँ दुनू पुत्र केँ बजेलनि आर हृदय सँ लगाकय बहुतो प्रकार सँ हुनका शिक्षा देलनि। फेर कहलखिन – हे नाथ! ई दुनू पुत्र हमर प्राण थिक। हे मुनि! आब अहीं हिनकर पिता भेलियनि, दोसर कियो नहि।
६. राजा अनेकों प्रकार सँ आशीर्वाद दयकय पुत्र लोकनि केँ ऋषि के संग कय देलथि। फेर प्रभु माताक महल मे गेलाह आर हुनकर चरण मे सिर नमाकय विदाह भ’ गेलाह। पुरुष मे सिंह रूप दुनू भाइ (राम-लक्ष्मण) मुनिक भय हरबाक लेल प्रसन्न भ’कय चललाह। ओ कृपाक समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व केर कारणहु केर कारण छथि। भगवानक लाल नेत्र छन्हि, चौड़ा छाती और विशाल भुजा छन्हि, नील कमल और तमालक वृक्ष जेकाँ श्याम शरीर छन्हि, कमर में पीताम्बर (पहिरने) और सुन्दर तरकस कसल छन्हि। दुनू हाथ मे क्रमशः सुन्दर धनुष आ बाण छन्हि। श्याम और गौर वर्ण के दुनू भाइ परम सुन्दर छथि।
७. विश्वामित्रजी केँ महान निधि प्राप्त भ’ गेलनि। ओ सोचय लगलाह – हम जानि गेलहुँ जे प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणक भक्त) छथि। हमरा लेल भगवान अपन पिता तक केँ छोड़ि देलनि। मार्ग मे जाइते समय मुनि ताड़का केँ देखौलनि। आवाज सुनिते ओ क्रोध करैत दौड़ल। श्री रामजी एक्कहि बाण सँ ओकर प्राण हरि लेलनि आर दीन जानिकय ओकरा निजपद (अपन दिव्य स्वरूप) देलनि। तखन ऋषि विश्वामित्र प्रभु केँ मन मे विद्याक भंडार बुझितो (लीला केँ पूर्ण करबाक वास्ते) एहेन विद्या देलखिन जाहि सँ भूख-प्यास नहि लागय आर शरीर मे अतुलित बल आ तेज केर प्रकाश हमेशा बनल रहय।