मनन करबा योग्य कथाः आचरणभ्रष्टता सँ पतन

स्वाध्याय – एक महत्वपूर्ण नैतिक कथा

– मूल लेख कल्याण सँ संकलित, संकलन एवं मैथिली अनुवाद – प्रवीण नारायण चौधरी

मनन करबा योग्यः आचरणभ्रष्टता सँ पतन

ब्रह्मवैवर्तपुराण मे कथा अबैत छैक, एक बेर देवराज इन्द्र निर्जन वन मे, पक पुष्पोद्यान मे गेल रहथि। ओतय हुनका रम्भा नाम के एक अप्सरा भेट भेलखिन। तदनन्तर ओ दुनू जलविहार करय लगलाह। ताहि बीच मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा वैकुण्ठ सँ कैलास जाइत समय शिष्यमण्डलीसहित ओतय आबि गेलाह। देवराज इन्द्र हुनका प्रणाम कयलनि। मुनि आशीर्वाद देलखिन। फेर भगवान् नारायणक देल एक पारिजात-पुष्प इन्द्र केँ दय मुनि कहलखिन – ‘देवराज! भगवान् नारायणक निवेदित ई पुष्प सब विघ्न केर नाश करयवला छी। ई जेकर मस्तक पर रहत, ओ सर्वत्र विजय प्राप्त करत आर देवता लोकनि मे अग्रगण्य भ’ कय अग्रपूजाक अधिकारी होयत। महालक्ष्मी छाया समान सदैव ओकर संग रहथिन। ओ ज्ञान, तेज, बुद्धि, बल – सब बात मे सब देवता लोकनि सँ श्रेष्ठ और भगवान् श्रीहरिक समाज पराक्रमी होयत। मुदा जे पामर अहंकारवश भगवान् श्रीहरिक निवेदित एहि पुष्प केँ मस्तक पर धारण नहि करत, ओ अपन जातिवला लोकक संगे श्रीभ्रष्ट भ’ जायत।’ एतेक कहिकय दुर्वासाजी शंकरालय लेल चलि गेलाह। इन्द्र ओहि पुष्प केँ अपन सिर पर धारण नहि कय केँ ऐरावत हाथीक मस्तक पर राखि देलनि। एहि सँ इन्द्र श्रीभ्रष्ट भ’ गेलाह। इन्द्र केर श्रीभ्रष्ट देखि रम्भा हुनका छोड़िकय स्वर्ग चलि गेलीह। गजराज इन्द्र केँ नीचाँ खसाकय महान् अरण्य मे चलि गेल आर हथिनीक संग विहार करय लागल। ताहि समय श्रीहरि ओहि हाथीक मस्तक काटिकय बालक गणेश केर सिर पर लगा देलखिन।

ओम्हर रम्भाक संसर्ग सँ जिनकर बुद्धि अत्यन्त मन्द भ’ गेल छलन्हि, श्री सँ भ्रष्ट हेबाक कारण जिनका पर दीनता सवार भ’ गेल छलन्हि आर जिनकर आनन्द सेहो नष्ट भ’ गेल छलन्हि, से इन्द्र गजेन्द्र आर रम्भा सँ पराभूत भ’ अमरावती पहुँचलाह। ओतय ओ देखलनि जे ओहि पुरी मे आनन्द केर नामोनिशान तक नहि छल। ओ दीनता सँ ग्रस्त, बन्धु लोकनि सँ हीन आर शत्रुवर्ग सँ खचाखच भरि गेल छल। तखन दूत के मुंह सँ सब वृत्तान्त सुनिकय ओ गुरु बृहस्पतिक घर गेलाह आर फेर गुरु तथा देवगण लोकनिक संग ओ ब्रह्माक सभा मे पहुँचलाह। ओतय जाय कय देवता लोकनि संग इन्द्र एवं बृहस्पति ब्रह्मा केँ नमस्कार कयलनि आर भक्तिभाव सँ हुनकर स्तुति कयलनि। तत्पश्चात् बृहस्पति प्रजापति ब्रह्मा सँ सब वृत्तान्त कहि सुनौलनि। सब बात सुनिकय ब्रह्मा मुंह नीचा राखिकय कहब आरम्भ कयलनि –

“देवेन्द्र! तूँ हमर प्रपौत्र थिकह आर श्रीसम्पन्न भेला सँ सदिखन प्रज्वलित रहैत छह, लेकिन हे राजन! लक्ष्मीक समान सुन्दरी शची केर पति भेलो पर तूँ आचरणभ्रष्ट भ’ जाइत छह। जे आचरणभ्रष्ट होइत अछि, ओकरा लक्ष्मी अथवा यश केर प्राप्ति कतय सँ भ’ सकैत अछि? ओ पापी त सदा सब सभा आदि मे निन्दाक विषय बनल रहैत अछि। रम्भा तोरा हतबुद्धि बना देने छह। यैह कारण तूँ दुर्वासा द्वारा देल गेल श्रीहरिक नैवेद्य केँ गजराजक माथपर राखि देलहक। जाहि के चलते तोरा लक्ष्मी सँ रहित होमय पड़लह, ओ रम्भा सेहो तोरा क्षणहि भरि मे त्यागिकय चलि गेलह; कियैक तँ वेश्या चंचला होइत छैक। ओ धनवान सब केँ मात्र पसिन करैत छैक, निर्धन सब केँ नहि; मुदा वत्स! जे बीति गेलय से त बीतिये गेलहि; चूँकि बीतल चीज फेर वापस नहि अबैत छैक; आब तूँ लक्ष्मीक प्राप्तिक लेल भक्तिपूर्वक नारायण केर भजन करह।”

एतेक कहिकय ब्रह्माजी इन्द्र केँ जगत्स्रष्टा नारायण केर स्तोत्र, कवच आर मन्त्र देलखिन। तखन इन्द्र देवता लोकनिक संग तथा गुरु बृहस्पतिक संग पुष्कर मे जाय कय अपन अभीप्सित मन्त्र केर जप करय लगलाह आर कवच ग्रहण कय केँ ओहि के द्वारा श्रीहरिक स्तुति मे तत्पर भ’ गेलाह आर हुनकहि कृपा सँ फेरो लक्ष्मी एवं राज्य केर प्राप्ति कयलनि।

एहि तरहें आचरणभ्रष्टता सँ इन्द्र तक के पतन भ’ जाइत छन्हि, तखन साधारण मनुष्य लोकनिक बाते कि अछि!

(स्रोतः कल्याण, अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

हरिः हरः!!