स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री भगवान् केर प्राकट्य और बाललीलाक आनन्द
१. योग, लग्न, ग्रह, दिन आ तिथि सब अनुकूल भ’ गेल। जड़ आ चेतन सब हर्ष सँ भरि गेल। कियैक त श्रीराम केर जन्म सुखक मूल थिक। पवित्र चैत के महीना छल, नवमी तिथि छल। शुक्ल पक्ष और भगवान के प्रिय अभिजित् मुहूर्त छल। दुपहरियाक समय छल। नहिये बेसी जाड़ छल आ न गरमी छल। ओ पवित्र समय सब लोक केँ शांति दयवला छल। शीतल, मंद और सुगंधित हवा चलि रहल छल। देवता सब हर्षित छलथि आ संत लोकनिक मोन मे अत्यधिक जिज्ञासा भरल छलन्हि। वन फूलायल छल। पर्वतक समूह मणि सँ जगमगा रहल छल आर सब नदी अमृतक धारा बहा रहल छल।
२. जखन ब्रह्माजी भगवानक प्रकट हेबाक समय बुझलनि त अपना सहित सब देवता लोकनि विमान सजा-सजाकय चलि देलाह। निर्मल आकाश देवता लोकनिक समूह सँ भरि गेल। गंधर्व केर दल गुणक गान करय लगलाह। और सुन्दर अंजलि मे सजा-सजाकर पुष्प बरसाबय लगलाह। आकाश मे घमाघम नगाड़ा बाजय लागल। नाग, मुनि और देवता स्तुति करय लगलाह आर बहुतो तरहें अपन-अपन सेवा उपहार भेंट करय लगलाह।
३. देवता लोकनिक समूह विनती कय केँ अपन-अपन लोक मे चलि गेलाह। समस्त लोक केँ शांति देनिहार जगदाधार प्रभु प्रकट भेलथि।
छन्द :
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥१॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥२॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥३॥
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥४॥
दोहा :
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥१९२॥
दीन पर दया करनिहार, कौसल्याजीक हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट भेलाह। मुनि लोकनिक मन केँ हरयवला अद्भुत रूप केर विचार कय केँ माता हर्ष सँ भरि गेलीह। नेत्र केँ आनंद दयवला मेघ केर समान श्याम शरीर छलन्हि, चारू भुजा मे अपन खास आयुध धारण कएने रहथि, दिव्य आभूषण और वनमाला पहिरने रहथि, बड़का-बड़का आँखि छलन्हि। एहि तरहें शोभाक समुद्र तथा खर राक्षस केँ मारयवला भगवान प्रकट भेलाह।
दुनू हाथ जोड़िकय माता कहय लगलीह – हे अनंत! हम कोन तरहें अहाँक स्तुति करू। वेद और पुराण अहाँ केँ माया, गुण और ज्ञान सँ परे आ परिमाण रहित बतबैत अछि। श्रुति सब मे आ सन्त लोकनि दया और सुखक समुद्र, सब गुणका धाम कहिकय जिनकर गान करैत छथि, वैह भक्त लोकनि केँ प्रेम करयवला लक्ष्मीपति भगवान हमर कल्याण लेल प्रकट भेला अछि।
वेद कहैत अछि जे अहाँक प्रत्येक रोम मे मायाक रचल गेल अनेकों ब्रह्माण्ड केर समूह भरल अछि। से अपने हमर गर्भ मे रहलहुँ – ई हँसीक बात सुनला पर धीर विवेकी पुरुष केर बुद्धि सेहो स्थिर नहि रहैछ, विचलित भ’ जाइत अछि। जखन माता केँ ज्ञान उत्पन्न भेलनि, तखन प्रभु मुस्कुरेलाह। ओ बहुतो तरहक चरित्र करय चाहैत छथि। तेँ ओ पूर्व जन्मक सुन्दर कथा कहिकय माता केँ बुझेलनि, जाहि सँ हुनका पुत्र केर वात्सल्य प्रेम प्राप्त होइन्ह, भगवानक प्रति पुत्र भाव भ’ जाइन्ह।
माता केर ओ बुद्धि बदलि गेलनि, तखन ओ बजलीह – हे तात! ई रूप छोड़िकय अत्यन्त प्रिय बाललीला करू, हमरा लेल ई सुख परम अनुपम होयत। माताक ई वचन सुनिकय देवता लोकनिक स्वामी सुजान भगवान बालक रूप बनिकय कानब शुरू कय देलनि। तुलसीदासजी कहैत छथि – जे एहि चरित्र केर गान करैत अछि, ओ श्री हरि केर पद पबैत अछि आर फेर संसार रूपी कूप मे नहि खसैत अछि।
४. ब्राह्मण, गो, देवता और सन्तक लेल भगवान मनुष्य केर अवतार लेलनि। ओ अज्ञानमयी, मलिना माया और ओकर गुण सत्, रज, तम आ बाहरी तथा भीतरी इन्द्रिय सँ परे अछि। हुनक दिव्य शरीर अपन इच्छा सँ मात्र बनल अछि, कोनो कर्म बंधन सँ परवश भ’ कय त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थ केर द्वारा नहि।
५. जन्म उपरान्त बच्चाक कनबाक अति प्रिय ध्वनि सुनिकय सब रानी उतावली भ’ दौड़िकय आबि गेलीह। दासी लोकनि हर्षित भ’ जहाँ-तहाँ दौड़य लगलीह। सारा पुरवासी आनन्द मे मग्न भ’ गेल। राजा दशरथजी पुत्र केर जन्म कान सँ सुनिकय मानू ब्रह्मानंद मे समा गेलाह। मन मे अतिशय प्रेम अछि, शरीर पुलकित भ’ गेल। आनंद मे अधीर भेल बुद्धि केँ धीरज दयकय आर प्रेम मे शिथिल भेल शरीर केँ सम्हारिकय ओ उठय चाहैत छथि। जिनकर नाम सुनला सँ मात्र कल्याण होइत अछि से प्रभु हमर घर अयलाह अछि। ई सोचिकय राजाक मन परम आनंद सँ पूर्ण भ’ गेलनि। ओ बाजावला केँ बजाकय कहलनि जे बाजा बजाउ।
६. गुरु वशिष्ठजीक पास बुलावा गेलनि। ओ ब्राह्मण लोकनि केँ संग लेने राजद्वार पर एलाह। ओ जाय केँ अनुपम बालक केँ देखलनि, जे रूप केर राशि रहथि आर जिनकर गुण कहला सँ समाप्त नहि होयत।
७. फेर राजा द्वारा नांदीमुख श्राद्ध करैत सब जातकर्म-संस्कार आदि कयल गेल आर ब्राह्मण लोकनि केँ सोना, गो, वस्त्र और मणि आदिक दान देल गेल। ध्वजा, पताका और तोरण सँ नगर छारल गेल। जाहि तरहें ओ सजायल गेल तेकर त वर्णने नहि भ’ सकैत अछि। आकाश सँ फूल केर वर्षा भ’ रहल अछि, सब कियो ब्रह्मानंद मे मग्न अछि। स्त्रीगण झुंड के झुंड मिलिकय चलि देलीह। स्वाभाविक श्रृंगार कयनहिये ओ सब उठि दौड़लीह। सोनाक कलश लय कय आर थारी मे मंगल द्रव्य भरिकय गबैत ओ सब राजद्वार मे प्रवेश करैत छथि। ओ सब आरती कय केँ निछावर करैत छथि आ बेर-बेर बच्चाक पैर पर खसैत छथि। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैया रघुकुल केर स्वामीक पवित्र गुण सभक गान करैत छथि। राजा सब गोटे केँ भरपूर दान देलनि। जे पबैत अछि सेहो नहि रखैत अछि, अर्थात ओहो सब लुटा देलक। नगर केर सब गलीक बीच-बीच मे कस्तूरी, चंदन और केसर बँटा रहल छल। घर-घर मंगलमय बधावा बाजय लागल कियैक त शोभाक मूल भगवान प्रकट भेला अछि। नगरक स्त्री-पुरुष लोकनि झुंडक झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न भ’ रहल छथि।
८. कैकेयी और सुमित्रा – ईहो लोकनि सुन्दर पुत्र लोकनि केँ जन्म देलनि। ओहि सुख, सम्पत्ति, समय और समाज केर वर्णन सरस्वती और सर्प केर राजा शेषजी सेहो नहि कय सकैत छथि।
९. अवधपुरी एहि प्रकार सुशोभित भ रहल अछि मानू रात्रि प्रभु सँ भेटय आयल हो और सूर्य केँ देखिकय मानू मन मे सकुचा गेल हो, लेकिन तैयो मोन मे विचार कय केँ मानू जेना साँझ बनिकय रहि गेल हो। अगर केर धूपक बहुतो रास धुआँ मानू (संध्याक) अंधकार हो आर जे अबीर उड़ि रहल अछि से ओकर लालिमा हो। महल मे जे मणिक समूह अछि से मानू तारागण थिक। राजमहल केर जे कलश अचि, वैह मानू श्रेष्ठ चन्द्रमा थिक। राजभवन मे जे अति कोमल वाणी सँ वेदध्वनि भ’ रहल अछि ओ मानू समय सँ मिलि गेल चिड़ै-चुनमुनीक चहचहाहट थिक। ई कौतुक देखिकय सूर्य सेहो अपन चालि बिसरि गेलाह। एक महीना धरि हुनका जाइतो गेल नहि भेलनि, अर्थात हुनका एक महीना ओतहि बीति गेलनि। महीना भरिक दिन भ’ गेल। एहि रहस्य केँ कियो नहि जनैत अछि। सूर्य अपन रथ सहित ओतहि रुकि गेलाह, फेर राति कोन तरहें होइतय!
१०. ई रहस्य कियो नहि जनलक। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजीक) गुणगान करैते चललाह। ई महोत्सव देखिकय देवता, मुनि और नाग अपन भाग्यक सराहना करिते अपन-अपन घर चललाह। हे पार्वती! अहाँक बुद्धि (श्री रामजीक चरण मे) बहुत दृढ़ अछि, ताहि लेल हम आरो अपन एक चोरी (छिपाव) केर बात कहैत छी, सुनू। काकभुशुण्डि और हम दुनू ओतय संगे-संगे रही, मुदा मनुष्य रूप मे हेबाक कारण हमरा कियो नहि चिन्ह सकल। परम आनंद और प्रेम केर सुख मे डूबल हम दुनू मगन मोन सँ मस्त भेल गली सब मे तन-मन केर सुधि बिसरि घुमैत-फिरैत छलहुँ, मुदा ई शुभ चरित्र वैह टा जानि सकैत अछि जेकरा उपर श्रीरामजीक कृपा होइ।
११. ताहि अवसर पर जे जाहि तरहें आयल आर जेकर मोन केँ जे नीकल लगलैक, राजा ओकरा वैह सब देलखिन्ह। हाथी, रथ, घोड़ा, सोना, गाय, हीरा और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा देलखिन्ह। राजा सभक मोन केँ संतुष्ट कयलथि। ताहि सँ सब कियो जतय-ततय आशीर्वाद दय रहल छलथि जे तुलसीदास केर स्वामी सब पुत्र चारू राजकुमार चिरंजीवी (दीर्घायु) होइथ।
११. एहि तरहें किछु दिन बीति गेल। दिन और राति बितैत बुझाइयो नहि पड़ल। तखन नामकरण संस्कारक समय जानि राजा ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठजी केँ बोलाहट पठौलनि। मुनिक पूजा कयकेँ राजा कहलखिन – हे मुनि! अपने मोन मे जे विचारि रखने होइ वैह नाम राखू। मुनि कहलखिन – हे राजन्! हिनका लोकनिक अनुपम नाम छन्हि तैयो हम अपन बुद्धि अनुसार कहब। ई जे आनन्द केर समुद्र और सुख केर राशि छथि, जेहि (आनंदसिंधु) केर एक कण सँ तीनू लोक सुखी होइत अछि, तिनकर (अपनेक सबसँ जेठ पुत्रक) नाम ‘राम’ छन्हि, जे सुखक भवन और सम्पूर्ण लोक केँ शांति दयवला छथि। जे संसारक भरण-पोषण करैत छथि, तिनकर (अपनेक दोसर पुत्रक) नाम ‘भरत’ हेतनि, जिनकर स्मरण मात्र सँ शत्रुक नाश होइत अछि, हुनकर वेद मे प्रसिद्ध ‘शत्रुघ्न’ नाम छन्हि। जे शुभ लक्षण केर धाम, श्री रामजीक प्यारा और सारा जगत केर आधार छथि, गुरु वशिष्ठजी हुनका ‘लक्ष्मण’ एहेन श्रेष्ठ नाम रखने छथि।
१२. गुरुजी हृदय मे विचारिकय ई नाम सब रखलनि आ कहलनि – हे राजन्! अहाँक चारू पुत्र वेद केर तत्त्व (साक्षात् परात्पर भगवान) थिकाह। जे मुनि लोकनिक धन, भक्तक सर्वस्व और शिवजीक प्राण छथि, से सब (एहि समय अहाँ लोकनिक प्रेमवश) बाल लीलाक रस मे सुख मानलनि अछि।
१३. बचपने सँ श्री रामचन्द्रजी केँ अपन परम हितैषी स्वामी जानि लक्ष्मणजी हुनकर चरण मे प्रीति जोड़ि लेलनि। भरत और शत्रुघ्न दुनू भाइ मे स्वामी और सेवकक जाहि प्रीति केर प्रशंसा छैक, वैह प्रीति भ’ गेलनि। श्याम और गौर शरीर वाली दुनू सुन्दर जोड़ीक शोभा केँ देखिकय माता लोकनि टोटमा सब करैत छथि जाहि सँ केकरो नजरि नहि लागि जाय। ओना त चारू पुत्र शील, रूप और गुण केर धाम छथि, तैयो सुखक समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसँ बेसी छथि। हुनकर हृदय मे कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित अछि। हुनक मोन केँ हरयवला हँसी ओहि (कृपा रूपी चन्द्रमा) केर किरण हेबाक संकेत करैत अछि। कखनहुँ कोरा मे लय कय आर कखनहुँ झुला मे सुताकय माता ‘प्रिय ललन’ कहि-कहि दुलार करैत छथि।
१४. जे सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मा ब्रह्म छथि, वैह प्रेम और भक्तिक वश भ’ कौसल्याजीक कोरा मे (खेला रहल) छथि। हुनकर नीलकमल और गंभीर (जल सँ भरल) मेघ केर समान श्याम शरीर मे करोड़ों कामदेव केर शोभा छन्हि। लाल-लाल चरण कमल केर नख केर (शुभ्र) ज्योति एना बुझि पड़ैत अछि जेना लाल कमल केर पत्ता पर मोती स्थिर भ’ गेल हो। तरबा (चरणतल मे) वज्र, ध्वजा और अंकुश केर चिह्न शोभित छन्हि। नूपुर (पैजनियाँ) केर ध्वनि सुनिकय मुनि लोकनिक सेहो मन मोहित भ’ जाइत छन्हि। डाँर्ह मे डरकस आ पेट पर तीन रेखा वला त्रिवली छन्हि। नाभि केर गंभीरता केँ ओ जनैत छथि जे ओ देखलनि अछि। बहुतो तरहक आभूषण सँ सुशोभित विशाल भुजा छन्हि। हृदय पर बाघ केर नख केर बहुते सुन्दर छटा छन्हि। छाती पर रत्न सँ युक्त मणि केर हार केर शोभा और ब्राह्मण (भृगु) केँ चरण चिह्न देखिते मोन लोभा जाइत छन्हि। कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाव वला, तीन रेखा सँ सुशोभित) छन्हि आर ठोड़ बहुते सुन्दर छन्हि। मुख पर असंख्य कामदेव केर छटा निखरि रहल छन्हि। दुइ-दुइ गोट सुन्दर दँतुली छन्हि, लाल-लाल ओठ छन्हि। नासिका और तिलक (केर सौंदर्य) केर त वर्णने के कय सकैत अछि! सुन्दर कान और बहुते सुन्दर गाल छन्हि। मधुर तोतला शब्द बहुते प्यारा लगैत अछि। जन्महि के समय सँ रखने रहल चिक्कन और घुँघराला केश छन्हि, जिनका माता बहुतो नीक सँ बान्हिकय सम्हारि देने छथि। शरीर पर पियर कुर्ता पहिरने छथि। हुनकर ठेहुन आ हाथ केर बल चलब हमरा बहुत नीक लगैत अछि। हुनकर रूप केर वर्णन वेद आ शेषजी सेहो नहि कय सकैत छथि। ई वैह जनैत अछि जे कहियो सपनहुँ मे हुनका देखने हुए।
१५. जे सुख केर पुंज, मोह सँ परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रिय सँ अतीत छथि, से भगवान दशरथ-कौसल्याक अत्यन्त प्रेम केर वश भ’ कय पवित्र बाललीला करैत छथि।
१६. एहि प्रकारे (सम्पूर्ण) जगत केर माता-पिता श्री रामजी अवधपुरक निवासी सब केँ सुख दैत छथि। जे श्री रामचन्द्रजी के चरण मे प्रीति जोड़ने अछि, हे भवानी! ओकर यैह प्रत्यक्ष गति छैक जे भगवान ओकर प्रेमवश बाललीला कयकेँ ओकरा आनन्द दय रहला अछि। श्री रघुनाथजी सँ विमुख रहिकय मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करय, लेकिन ओकर संसार बंधन केँ कियो नहि छोड़ा सकैत अछि। जे सब चराचर जीव केँ अपना वश मे कय रखने छथि, ओ माया सेहो प्रभु सँ डराइत अछि। भगवान ओहि माया केँ भौंह के इशारा पर नचाबैत छथि। एहेन प्रभु केँ छोड़िकय कहू, (और) केकर भजन कयल जाय! मन, वचन और कर्म सँ चतुराई छोड़िकय भजिते देरी श्री रघुनाथजी कृपा करता।
१७. एहि तरहें प्रभु श्री रामचन्द्रजी बालक्रीड़ा कयलनि आर समस्त नगर निवासी सब केँ सुख देलनि। कौसल्याजी कखनहुँ कोरा मे लयकय झुलबैत-डोलबैत छथि, कखनहुँ पालना मे सुताकय झुलबैत छथि। प्रेम मे मग्न कौसल्याजी राति और दिन केर बितब तक नहि बुझि पबैत छथि। पुत्रक स्नेहवश माता हुनकर बालचरित्रक गान कयल करैत छथि।
१८. एक बेर माता श्री रामचन्द्रजी केँ स्नान करेलीह आ श्रृंगार कय केँ पालना पर पाड़ि देलीह। फेर अपन कुल केर इष्टदेव भगवानक पूजा लेल स्नान कयलीह। पूजा कयकेँ नैवेद्य चढ़ेलीह आ स्वयं ओतय गेलीह जतय खाना बनायल गेल छल। पुनः लौटिकय पूजा जतय कएने रहथि ओतय गेलीह, ओतय गेलापर बेटा केँ इष्टदेव भगवान लेल चढायल ओ नैवेद्य खाइत देखलीह। माता भयभीत होइत जे पालना मे सुतल छलय, एतय के आनिकय बैसा देलकय, से सोचि डर सँ पुत्रक समीप गेलीह त ओ पुनः पालना मे सुतल देखलीह। फेर घुमि पूजा घर मे देखलीह त ओतय पुनः ओ नैवेद्य खा रहल देखेलाह। माताक हृदय मे कम्पन होबय लगलन्हि, मोन मे धैर्य नहि होइत छन्हि। ओ सोचय लगलीह जे एतय आ ओतय हम दुइ बालक देखलहुँ। ई हमर बुद्धि के भ्रम छी या और कोनो विशेष कारण अछि? प्रभु श्री रामचन्द्रजी माता केँ घबड़ायल देखलथि त मधुर मुस्कान दैत हँसि देलाह। फेर ओ माता केँ अपन अखंड अद्भुत रूप देखेलनि, जिनकर एक-एक रोम मे करोड़ों ब्रह्माण्ड लागल अछि। अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुतो रास पर्वत, नदी, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखलनि आर ओहो पदार्थ सब देखलथि जे कहियो सुनने तक नहि रहथि। सब प्रकार सँ बलवती माया केँ देखिकय ओ भगवानक सामने अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़ि ठाढ़ रहलीह। जीव केँ देखलनि, जेकरा ओ माया नचबैत अछि आर फेर भक्ति केँ देखलनि, जे ओहि जीव केँ (माया सँ) मुक्ति दैत अछि। माताक शरीर पुलकित भ’ गेलनि, मुंह सँ बोली तक नहि निकलैत छन्हि। तखन आँखि मुनिकय ओ श्री रामचन्द्रजी केर चरण मे सिर नमेलनि। माता केँ आश्चर्यचकित देखिकय खर के शत्रु श्री रामजी फेर बाल रूप मे आबि गेलाह। माता सँ स्तुति तक नहि कयल जाइत छन्हि। ओ डरा गेलीह जे हम जगत्पिता परमात्मा केँ बेटा जेकाँ बुझलहुँ। श्री हरि माता केँ बहुतो प्रकार सँ बुझबैत कहलखिन – हे माता! सुनू, ई बात कतहु कहबय नहि। कौसल्याजी बेर-बेर हाथ जोड़िकय विनय करैत छथि जे हे प्रभु! हमरा अहाँक माया आब फेर कहियो नहि व्यापय।
१९. भगवान बहुत प्रकार सँ बाललीला सब कयलनि आर अपन सेवक सब केँ अत्यन्त आनन्द देलनि। किछु समय बितला पर चारू भाइ पैघ भ’ कुटुम्ब लोकनि केँ सुख दयवला भेलाह। तखन गुरुजी हुनका लोकनिक चूड़ाकर्म-संस्कार कयलनि। ब्राह्मण लोकनि केँ फेरो बहुतो रास दक्षिणा भेटलनि। चारू सुन्दर राजकुमार बहुते मनोहर अपार चरित्र करैत फिरैत छथि। जे मन, वचन और कर्म सँ अगोचर छथि, वैह प्रभु दशरथजीक आँगन मे विचरि रहल छथि। भोजन करबाक समय जखन राजा बजबैत छथि तखन ओ अपन बाल सखाक समाज केँ छोड़िकय आबय नहि चाहैत छथि। कौसल्या जखन बजबय जाइत छथिन तखन प्रभु ठुमैक-ठुमैक कय भागि जाइत छथि। जिनका वेद ‘नेति’ (एतबी नहि) कहिकय निरूपण करैत छथि और शिवजी जिनकर अन्त नहि पेलनि, माता हुनका हठपूर्वक पकड़य लेल दौड़ैत छथि। ओ शरीर मे धूरा लगौने अयलाह आ राजा हँसिकय हुनका अपन कोरा मे बैसा लेलनि। भोजन करैत छथि, मुदा चित चंचल छन्हि। अवसर पाबिकय मुँह मे दही-भात लपेटने किलकारी मारि-मारि एम्हर-ओम्हर भगैत रहैत छथि।
२०. श्री रामचन्द्रजीक बहुते सरल और सुन्दर (मनभावनी) बाललीला सब सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेद सब गान कयने छथि। जिनकर मोन मे एहि लीला सब मे अनुरक्त नहि भेल, विधाता ओहि मनुष्य केँ वंचित कय देलनि, नितान्त भाग्यहीन बना देलनि बुझू।
२१. जखनहि सब भाइ कुमारावस्था के भेलाह, तखनहि गुरु, पिता और माता हुनका सभक यज्ञोपवीत संस्कार कय देलखिन। श्री रघुनाथजी (भाइ सहित) गुरु के घर मे विद्या पढ़य गेलाह आ थोड़बे समय मे हुनका सबटा विद्या सेहो आबि गेलनि। चारू वेद जिनकर स्वाभाविक श्वास छन्हि, से भगवान पढ़थि, ई बड़ा कौतुक (अचरज) के बात भेल। चारू भाइ विद्या, विनय, गुण और शील मे खूब निपुण छथि आर सब राजा केर लीला वला खेल सब सेहो खेलाइत छथि। हाथ मे बाण और धनुष बहुते शोभा दैत छन्हि। रूप देखिते चराचर (जड़-चेतन) मोहित भ’ जाइत छन्हि। ओ सब भाइ जाहि गली मे खेलाइत निकलैत छथि, ताहि गलीक सब स्त्री-पुरुष हुनका सब केँ देखिकय स्नेह सँ शिथिल भ’ जाइत छथि, ठिठकिकय रुकि-रुकिकय सब देखिते रहैत छथि। कोसलपुर के रहयवला स्त्री, पुरुष, बूढ़ और बालक सब केँ कृपालु श्री रामचन्द्रजी प्राणो सँ बढ़िकय प्रिय लगैत छथि।
२२. श्री रामचन्द्रजी भाइ आ इष्ट मित्र केँ बजाकय संग लैत नित्य वन मे जाय कय शिकार खेलाइत छथि। मन मे पवित्र बुझिकय मृग केँ मारैत छथि आर प्रतिदिन शिकार मे मारल मृग राजा (दशरथजी) केँ देखबैत छथि। जे मृग श्री रामजी के बाण सँ मारल जाइत छल, ओ शरीर छोड़िकय देवलोक केँ चलि जाइत छल। श्री रामचन्द्रजी अपन छोट भाइ व सखा के संग भोजन करैत छथि और माता-पिताक आज्ञा केर पालन करैत छथि। जाहि प्रकार नगर के लोक सुखी होयत, कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी वैह संयोग (लीला) करैत छथि। ओ मन लगाकय वेद-पुराण सुनैत छथि और फेर स्वयं छोट भाइ केँ बुझाकय कहैत छथि।
२३. श्री रघुनाथजी प्रातःकाल उठिकय माता-पिता और गुरु केँ मस्तक नमबैत छथि और आज्ञा लयकय नगर के काज करैत छथि। हुनकर चरित्र देखि-देखिकय राजा मनहि-मन खूब हर्षित होइत छथि।