रामचरितमानस मोतीः मनु-शतरूपाक तप एवं वरदान

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

मनु-शतरूपा तप एवं वरदान

पैछला अध्याय मे शिवजी द्वारा पार्वतीकेँ सुनायल जा रहल रामचरित याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजीक सोझाँ वर्णन कय रहल छलथि। प्रसंग चलि रहल छल नारदजी केर श्राप वला, विश्वमोहिनी के रूप मे नारदजी भगवानक माया सँ कोना ओझरा गेलाह आ फेर केना हुनका मायाक प्रभाव नचनी-नाच नचेलक… भगवानक अवतार केर प्रसंग के बतबैत ईहो प्रसंग आयल छल, नारदजीक श्राप सेहो एकटा कारक तत्त्व बनल हुनक एहि अवतार केर। आब आगू, मनु आ शतरूपाक तप आ हुनका सब केँ भगवान द्वारा देल गेल वरदान केर। देखूः 

१. हे मुनीश्वर भरद्वाज! हम ओ सब बात कहैत छी, अहाँ ध्यान लगाकय सुनू। श्री रामचन्द्रजीक कथा कलियुग केर पाप सब हरयवला, कल्याण करयवला आ बहुत सुन्दर अछि। स्वायम्भुव मनु और हुनक पत्नी शतरूपा, जिनका सँ मनुष्य केर ई अनुपम सृष्टि भेल, एहि दुनू पति-पत्नीक धर्म और आचरण बहुत नीक छलन्हि। आइयो वेद हिनकर मर्यादाक गान करैत अछि। राजा उत्तानपाद हुनकर पुत्र रहथिन, जिनकर पुत्र (प्रसिद्ध) हरिभक्त ध्रुवजी भेलाह। वैह मनुजीक छोट बेटाक नाम प्रियव्रत छलन्हि, जिनकर प्रशंसा वेद और पुराण करैत अछि। देवहूति हुनक कन्या छलीह, जे कर्दम मुनिक प्रिय पत्नी भेलीह आर जे आदि देव, दीन पर दया करयवला समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिल केँ गर्भ मे धारण कयलीह। तत्वक विचार करय मे अत्यन्त निपुण जाहि (कपिल) भगवान द्वारा सांख्य शास्त्र केँ प्रकट रूप मे वर्णन कयल गेल अछि, वैह (स्वायम्भुव) मनुजी बहुत समय धरि राज्य कयलनि आर सब तरहें भगवानक आज्ञा – शास्त्रक मर्यादाक पालन कयलनि। घर मे रहैत बुढ़ापा आबि गेलनि, मुदा विषय सब सँ वैराग्य नहि होइत अछि से सोचिकय हुनका मोन मे बड भारी दुःख भेलनि जे श्री हरि केर भक्ति बिना जन्म एहिना चलि गेल। तखन मनुजी अपन पुत्र केँ जबर्दस्ती राज्य सौंपिकय वन लेल गमन कयलनि।
२. अत्यन्त पवित्र और साधक लोकनि केँ सिद्धि दयवला तीर्थ मे श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध अछि। ओतय मुनि और सिद्ध लोकनिक समूह बसैत छथि। राजा मनु हृदय मे हर्षित होइत ओतहि जेबाक लेल विदाह भेलाह। ओ धीर बुद्धिक धनी राजा-रानी बाट मे जाइत एना सुशोभित भ’ रहल छलथि मानू ज्ञान और भक्ति दुनू शरीर धारण कय जा रहल हो। चलैत-चलैत ओ सब गोमतीक किनारपर जा पहुँचलाह। हर्षित भ’ कय ओ निर्मल जल मे स्नान कयलनि। हुनका धर्मधुरंधर राजर्षि जानि सिद्ध और ज्ञानी मुनि हुनका सँ भेट करय अयलाह। 
३. जतय-जतय सुन्दर तीर्थ सब छल, मुनि लोकनि आदरपूर्वक सबटा तीर्थ हुनका लोकनि केँ करा देलनि। हुनकर शरीर बहुत दुब्बर भ’ गेल छलन्हि। ओ मुनि समान वल्कल वस्त्र धारण करथि आर संत समाज बीच नित्य पुराण सुनथि। और द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) प्रेम सहित जप करथि। भगवान वासुदेवक चरणकमल मे राजा-रानी केर खूब लगन लागि गेलनि। ओ सब साग, फल आ कन्द केर आहार करथि आ सच्चिदानंद ब्रह्म केँ स्मरण करथि। फेर ओ श्री हरिक लेल तप करय लगलाह आर मूल-फल त्यागिकय केवल जलक आधार पर रहय लगलाह। हृदय मे निरंतर यैह अभिलाषा भेल करनि जे केना ओहि परम प्रभु केँ आँखि सँ देखब, जे निर्गुण, अखंड, अनंत और अनादि छथि तथा परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोक सब जिनकर चिन्तन कयल करैत छथि। जिनका वेद ‘नेति-नेति’ (ईहो नहि, ईहो नहि) कहिकय निरूपण करैत अछि। जे आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम छथि एवं जिनकर अंश सँ अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होइत छथि। एहेन महान प्रभु सेहो सेवक केर वश मे छथि आर भक्त लेल दिव्य लीला विग्रह धारण करैत छथि। यदि वेद मे कहल गेल ई वचन सत्य अछि त हमरा सभक अभिलाषा सेहो अवश्य पूरा होयत।
४. एहि तरहें जल टा के आहार कय केँ तपस्या करैत छह हजार वर्ष बीति गेल। फेर सात हजार वर्ष ओ वायुक आधार पर रहला। दस हजार वर्ष तक ओ लोकनि वायुक आधार सेहो छोड़ि देलनि। दुनू गोटे एक पैर पर ठाढ़ रहलथि। हुनकर ई अपार तपस्या देखिकय ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कतेको बेर मनुजी लग अयलाह। ओ सब हिनका अनेकों प्रकार सँ लालच देलथि जे अहाँ किछु वर मांगू, लेकिन ओ परम धैर्यवान राजा-रानी अपन तप सँ किनको डिगेला सँ नहि डिगलथि, जखन कि हुनका सभक शरीर आब मात्र हड्डीक ढाँचा बनि गेल छल, तैयो हुनका सभक मोन मे कनिकबो पीड़ा नहि छल।
५. सर्वज्ञ प्रभु अनन्य गति आश्रयवला तपस्वी राजा-रानी केँ ‘निज दास’ के रूप मे जानि गेलथि। तखन परम गंभीर और कृपा रूपी अमृत सँ सनल ई आकाशवाणी भेलैक जे ‘वर माँगू’। मुर्दो केँ जिया दयवला ई सुन्दर वाणी कानक छिद्र सँ जखन हृदय मे एलनि तखन राजा-रानीक शरीर एहेन सुन्दर आ हृष्ट-पुष्ट भ’ गेलनि मानू ओ सब एखनहिं घर सँ आयल होइथ। कान मे अमृत समान वचन सुनिते शरीर पुलकित और प्रफुल्लित भ’ गेलनि। तखन मनुजी दण्डवत प्रणाम करैत बजलाह – प्रेम हुनकर हृदय सँ छलकि रहल छलन्हिः हे प्रभो! सुनू। अहाँ सेवक लेल कल्पवृक्ष और कामधेनु छी। अहाँक चरण रज केँ ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी सेहो वंदना करैत छथि। अपने सेवा करय मे सुलभ छी तथा सब सुख केर दयवला भगवान छी। अहाँ शरणागत केर रक्षक और जड़-चेतन केर स्वामी छी। हे अनाथ केर कल्याण करनिहार! जँ हमरा सब पर अपनेक स्नेह अछि त प्रसन्न भ’ कय यैह वर दिअ जे अपनेक जे स्वरूप शिवजीक मोन मे बसैत अछि आर जेकर पाबय लेल मुनि सब यत्न करैत छथि, जे काकभुशुण्डिक मनरूपी मान सरोवर मे विहार करयवला हंस थिक, सगुण और निर्गुण कहिकय वेद जेकर प्रशंसा करैत अछि, हे शरणागत केर दुःख मेटेनिहार प्रभुजी! एहेन कृपा करू जे हम वैह रूप केँ नेत्र भरिकय देखी।
६. राजा-रानीक कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस सँ युक्त वचन भगवान केँ बहुते नीक लगलनि। भक्तवत्सल, कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्व केर निवास स्थान (या समस्त विश्व मे व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट भ’ गेलाह। भगवानक नीलकमल, नीलमणि और नील (जलयुक्त) मेघ केर समान (कोमल, प्रकाशमय और सरस) श्यामवर्ण (चिन्मय) शरीर केर शोभा देखिकय करोड़ों कामदेव लजा जाइत छथि। हुनकर मुंह शरद (पूर्णिमा) केर चन्द्रमाक समान छबि केर सीमास्वरूप छलन्हि। गाल और ठोड़ बहुत सुन्दर छलन्हि, गला शंख केर समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतार वला) छलन्हि। लाल ओठ, दाँत और नाक अत्यन्त सुन्दर छलन्हि। हँसी चन्द्रमा केर किरणावली केँ नीचा देखबयवला रहनि। नेत्र केर छवि नव (फुलायल) कमल समान बड सुन्दर छलन्हि। मनोहर चितवन जी केँ बहुत प्रिय लगैत छलन्हि। टेढ़ भौंह कामदेवक धनुषक शोभा केँ हरयवला छल। ललाट पटल पर प्रकाशमय तिलक छलन्हि। कान मे मकराकृत (माछक आकार के) कुंडल और सिर पर मुकुट सुशोभित छलन्हि। टेढ़ (घुँघराला) कारी केश एतेक घना रहनि मानू जेना भौंराक झुंड हो। हृदय पर श्रीवत्स, सुन्दर वनमाला, रत्नजड़ित हार और मणीक आभूषण सुशोभित छलन्हि। सिंह जेकाँ गर्दनि छलन्हि, सुन्दर जनेऊ रहनि। बाँहि पर जे गहना रहनि सेहो सुन्दर छलन्हि। हाथीक सूड़ समान उतार-चढाव वला सुन्दर भुजदंड रहनि। डाँर्ह मे तरकस आ हाथ मे बाण व धनुष शोभा पाबि रहल छलन्हि। (स्वर्ण-वर्ण केर प्रकाशमय) पीताम्बर बिजली केँ लजाबयवला रहनि। पेट पर सुन्दर तीन रेखा (त्रिवली) छलन्हि। नाभि एतेक मनोहर रहनि मानू यमुनाजीक भँवर केर छबि केँ छीनि लैत हो। जाहि मे मुनि सभक मन रूपी भौंरा बसैते अछि, भगवान केर ओ चरणकमल केर त वर्णने नहि कयल जा सकैत अछि। भगवानक बामभाग मे सदिखन अनुकूल रहयवाली आ शोभाक राशि तथा जगत केर मूलकारण रूपा आदिशक्ति श्री जानकीजी सुशोभित छन्हि। जिनकर अंश सँ गुण सभक खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेव केर शक्ति लोकनि) उत्पन्न होइत छथि तथा जिनकर भौंह केर इशारा टा सँ जगत केर रचना भ’ जाइत अछि, ताहि भगवान केर स्वरूपा शक्ति श्री सीताजी श्री रामचन्द्रजीक बायाँ दिश स्थित छथि।
७. शोभाक समुद्र श्री हरि केर रूप केँ देखिकय मनु-शतरूपाक आँखिक पलक बिना बन्द भेने एकटक (स्तब्ध) तकैत रहि गेलथि। ओहि अनुपम रूप केँ ओ आदर सहित देखि रहल छलथि, देखैत-देखैत अघाइत नहि रहथि। आनन्द केर अधिकताक वश मे भ’ जेबाक कारण ओ अपन देहक सुइध-बुइध सब बिसरि गेलथि। ओ हाथ सँ भगवानक चरण पकड़िकय दण्ड जेकाँ सीधे जमीन पर खसि पड़लाह। कृपाक राशि प्रभु हुनका अपनहि करकमल सँ माथ स्पर्श करैत अपनहि सँ उठा लेलनि। 
८. फेर कृपानिधान भगवान बजलाह – हमरा अत्यन्त प्रसन्न जानिकय आर बड़ा भारी दानी मानिकय जे अहाँक मोन केँ नीक लागय से वर माँगू। प्रभुक वचन सुनिकय, दुनू हाथ जोड़िकय आ धीरज धरैत राजा कोमल वाणी बजलथि – हे नाथ! अहाँक चरणकमल केँ देखिकय आब हमर सब मनःकामना पूरा भ’ गेल। तैयो मोन मे एकटा बड पैघ लिलसा अछि। ओहो पूरब सहजे अछि, मुदा कठिन सेहो अछि तेँ कहि नहि पाबि रहल छी। हे स्वामी! अपने लेल त ओकरा पूरा करब बहुत सहज अछि, मुदा हमरा अपन कृपणता (दीनता) के कारण ओ बहुत कठिन बुझा रहल अछि। जेना कोनो दरिद्र कल्पवृक्ष केँ पाबियोकय बेसी द्रव्य माँगय मे संकोच करैत अछि, कियैक त’ ओ ओकर प्रभाव केँ नहि जनैत अछि, तहिना हमर हृदय मे संशय भ’ रहल अछि। हे स्वामी! अपने अन्तरयामी छी, तेँ ओहो बात अपने जानिये रहल छी। हमर ओ मनोरथ पूरा करू। 
९. भगवान कहलखिन – हे राजन्‌! संकोच छोड़िकय हमरा सँ माँगू। अहाँ केँ नहि दय सकी तेहेन कोनो चीज हमरा पास नहि अछि। ताहि पर राजा बजलाह – हे दानी सभक शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! हम अपन मोनक सत्य भाव कहैत छी कि हम अपनेक समान पुत्र चाहैत छी। अपने सँ भला कि छुपाबी!
१०. राजाक प्रीति देखिकय आर हुनक अमूल्य वचन सुनिकय करुणानिधान भगवान बजलाह – एहिना हो। हे राजन्‌! हम अपना समान दोसर कतय जाय केँ ताकब! तेँ स्वयं आबिकय अहाँक पुत्र बनब। शतरूपाजी केँ हाथ जोड़ने देखि भगवान कहलखिन – हे देवी! अहाँक जे इच्छा हुए से वर माँगि लिअ। शतरूपा कहलखिन – हे नाथ! चतुर राजा जे वर माँगलनि, हे कृपालु! से हमरा बहुते प्रिय लागल, मुदा हे प्रभु! बहुत ढिठाई भ’ रहल अछि, तैयो हे भक्तक हित करनिहार प्रभुजी! ओ ढिठाई सेहो अपने केँ नीके लगैत अछि। अपने ब्रह्मादिक सेहो पिता, जगतक स्वामी आ सभक हृदयक भीतर के बात जननिहार ब्रह्म थिकहुँ। एना बुझलापर मोन मे सन्देह होइत अछि, तैयो अपने जे कहलहुँ तेकरे प्रमाण अछि। हम यैह मंगैत छी जे हे नाथ! अहाँक जे निज जन सब छथि, ओ जे अलौकिक, अखंड सुख पबैत छथि आ जाहि परम गति केँ प्राप्त होइत छथि, हे प्रभो! वैह सुख, वैह गति, वैह भक्ति, वैह अपनेक चरण मे प्रेम, वैह ज्ञान और वैह रहन-सहन कृपा कयकेँ हमरा दिअ।
११. रानीक कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनिकय कृपाक समुद्र भगवान कोमल वचन बजलाह – अहाँक मोन मे जे किछु इच्छा अछि, ओ सब किछु अहाँ केँ हम देलहुँ, एहि मे कोनो सन्देह नहि बुझब। हे माता! हमर कृपा सँ अहाँक अलौकिक ज्ञान कहियो नष्ट नहि होयत।
१२. तखन मनु भगवान केर चरणक वन्दना कयकेँ फेर बजलाह – हे प्रभु! हमर एकटा आरो विनती अछि – अपनेक चरण मे हमर ओहने प्रीति हुए जेना पुत्र लेल पिताक होइत अछि, चाहे हमरा कियो बड़ा भारी मूर्खे कियैक न कहय। जेना मणि के बिना साँप और जल के बिना माछ (नहि रहि सकैत अछि), तहिना हमर जीवनक अपनेक अधीन रहय, अहाँ बिना नहि रहि सकय। एहेन वर माँगि राजा भगवान केर चरण पकड़ने रहि गेलाह। तखन दयाक निधान भगवान कहलखिन – एहिना हुए! आब अहाँ हमर आज्ञा मानिकय देवराज इन्द्र केर राजधानी अमरावती जे जाय कय निवास करू। हे तात! ओतय (स्वर्ग केर) बहुतो रास भोग भोगिकय किछु समय बीत गेलाक बाद अहाँ अवध केर राजा बनब। तखन हम अहाँ पुत्र होयब। इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजिकय हम अहाँक घर प्रकट होयब। हे तात! हम अपन अंश सहित देह धारण कयकेँ भक्त सब केँ सुख दयवला चरित्र करब। जाहि चरित्र केँ भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनिकय, ममता और मद त्याग करैत, भवसागर सँ तरि जायत। आदिशक्ति ई हमर (स्वरूपभूता) माया सेहो, जे समस्त जगत केँ उत्पन्न कयलीह अचि, ईहो अवतार लेती। एहि तरहें हम अहाँक अभिलाषा पूरा करब। हमर प्रण सत्य अछि, सत्य अछि, सत्य अछि। कृपानिधान भगवान बेर-बेर एतेक कहिकय अन्तरधान भ’ गेलाह।
१३. ओ स्त्री-पुरुष (राजा-रानी) भक्त पर कृपा करनिहार भगवान केँ हृदय मे धारण कय केँ किछु समय धरि ओहि आश्रम मे रहलथि। फेर समय पाबि सहजहि, बिना कोनो कष्ट के ई शरीर छोड़िकय अमरावती (इन्द्रक पुरी) मे जाय कय निवास कयलनि। याज्ञवल्क्यजी कहैत छथि – हे भरद्वाज! एहि अत्यन्त पवित्र इतिहास केँ शिवजी द्वारा पार्वती सँ कहल गेल छल। आब श्रीराम केर अवतार लेबाक दोसर कारण सुनू। 
क्रमशः….
हरिः हरः!!