स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
विश्वमोहिनीक स्वयंवर, शिवगण तथा भगवान् केँ श्राप और नारदक मोहभंग
नारद भगवानक माया सँ निर्मित नगरीक राजमहल मे छथि, राजा हुनका खूब स्वागत-सत्कार कय केँ आसन दय बैसौलनि आ आगू राजा राजकुमारी केँ आनिकय नारदजी केँ देखेलनि आ पुछलनि – हे नाथ! अपने अपन हृदय मे विचारिकय एकर सब गुण-दोष कहू।
१. ओहि राजकुमारीक रूप केँ देखिकय मुनि वैराग्य बिसरि गेलाह आ बड़ीकाल धरि ओकरा दिशि तकिते रहि गेलाह। ओकर लक्षण देखिकय मुनि अपना आपकेँ बिसरि गेलाह आ हृदय मे खूब हर्षित भेलाह, धरि प्रकट रूप मे ओ लक्षण सब नहि कहलनि। लक्षण सब सोचिकय ओ मनहि मे कहय लगलाह – जे एकरा ब्याहत ओ अमर भ’ जायत आ रणभूमि मे ओकरा कियो नहि जीत सकत। ई शीलनिधि केर कन्या जेकरा वरण करब, सब चर-अचर जीव ओकर सेवा करत। सब लक्षण केँ विचारिकय मुनि अपन हृदय मे राखि लेलनि आर राजा सँ किछु आरे बात सब अपना दिश सँ बनाकय कहि देलखिन। राजा सँ कन्याक सुलक्षण कहिकय नारदजी चलि देलनि। मुदा हुनकर मोन मे ई चिन्ता रहनि जे – हम जल्दी सँ सोचि-विचारिकय यैह उपाय करी जाहि सँ ई कन्या हमरहि सँ विवाह करय। एहि घड़ी जप-तप सँ त किछु नहि भ’ सकैत अछि। हे विधाता! हमरा ई कन्या कोना भेटत? एहि लेल हमरा बहुत पैघ शोभा आ विशाल (सुन्दर) रूप चाही, जे देखिकय राजकुमारी हमरे पर रिझय आ तखन जयमाल हमरे गला मे पहिरा दियए। एक काज करैत छी! भगवान सँ सुन्दरता माँगि लैत छी। लेकिन अरे भाइ! हुनका लग जाय मे बहुत देरी भ’ जायत, लेकिन हुनका समान दोसर कियो हित-मितो त नहि अछि हमर, एहि घड़ी वैह हमर सहायक होइथ। ताहि समय नारदजी भगवानक बहुतो तरहें विनती कयलनि। तखन लीलामय कृपालु प्रभु ओतहि प्रकट भ’ गेलाह। स्वामी केँ देखिकय नारदजीक नेत्र शीतल भेलनि आ मोन मे अत्यन्त हर्षित होइत सोचलनि जे आब त काज बनिये टा जायत।
२. नारदजी बहुत आर्त (दीन) भाव सँ सब कथा कहि सुनौलनि आर प्रार्थना कयलनि जे हे कृपालु भगवान! कृपा करू और कृपा कयकेँ हमर सहायक बनू। हे प्रभो! अहाँ अपन रूप हमरा दय दिअ, आर कोनो तरीका सँ हम ओहि राजकन्या केँ नहि पाबि सकैत छी। हे नाथ! जाहि तरहें हमर हित हुए से अपने शीघ्र कयल जाउ। हम अहाँक दास छी।
३. अपन मायाक विशाल बल देखिकय दीनदयालु भगवान मनहि-मन हँसैत बजलाह – हे नारदजी! सुनू, जाहि सँ अहाँ परम हित होयत, हम वैह करब। हमर वचन असत्य नहि होइछ। हे योगी मुनि! सुनू! रोग सँ व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगय त वैद्य ओ चीज नहि दैछ। तहिना हमहुँ अहाँक हित करय लेल सोचि लेलहुँ अछि। – एतेक कहिकय भगवान अन्तर्धान भ’ गेलाह।
४. भगवानक मायाक वशीभूत भेल मुनि एहेन मूढ़ भ’ गेल रहथि जे ओ भगवानक अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी केँ सेहो नहि बुझि सकलथि। ऋषिराज नारदजी तुरंत ओतय गेलाह जतय स्वयंवर केर स्थान बनायल गेल छल। राजा लोकनि खूब सजि-धजिकय समाज सहित अपन-अपन आसन पर बैसल रहथि। मुनि नारद सेहो मनहि-मन प्रसन्न भ’ रहल छलथि जे हमर रूप बड सुन्दर अछि, हमरा छोड़ि ई कन्या दोसर केँ वरण कइये नहि सकैत अछि।
५. कृपानिधान भगवान मुनिक कल्याण वास्ते हुनका एहेन कुरूप बना देलनि जेकर वर्णन नहि भ’ सकैछ, लेकिन ई सब बात कियो नहि बुझि सकल। सब हुनका नारदे बुझिकय प्रणाम कयलनि। ओहिठाम शिवजीक दुइ गोट गण सेहो छलथि। ओ सबटा भेद जनैत रहथि और ब्राह्मणक वेष बनाकय सबटा लीला देखैत फिरि रहल छलथि। ओहो सब बड़ा मजा लुटनिहार रहथि। नारदजी अपना हृदय मे रूप केर बड़ा अभिमान लयकय जाहि समाज (पंक्ति) मे जायकय बैसल रहथि, ई शिवजीक दुनू गण सेहो ओतहि बैसि गेलथि। ब्राह्मणक वेष मे होयबाक कारण हुनकर एहि चाइल केँ कियो नहि जानि सकल। ओ सब नारदजी केँ सुना-सुनाकय, व्यंग्य वचन कहथि – भगवान जे हिनका एतेक भारी सुन्दरता देलनि अछि, ई शोभा देखिकय राजकुमारी जरूर रिझि जयतीह और ‘हरि’ (वानर) जानिकय हिनकहि टा वरण करतीह।
६. नारद मुनि केँ मोह भ’ रहल छलन्हि, कियैक तँ हुनकर मोन दोसरक हाथ (मायाक वश) मे रहनि। शिवजीक गण सब बहुत प्रसन्न भ’ कय मजा लय रहल छलाह। हालांकि मुनि हुनका लोकनिक अटपटा बात सब सुनि रहल छलाह, तैयो बुद्धि भ्रम मे सना जेबाक कारण ओ बात सब हुनका समझ मे नहि आबि रहल छलन्हि, ओहि सब बात केँ सेहो ओ अपन प्रशंसा बुझि रहल छलथि।
७. एहि विशेष चरित्र केँ और कियो नहि बुझि सकल, मात्र राजकन्या नारदजीक ओ रूप देखलथि। हुनकर बंदर जेहेन मुँह और भयंकर शरीर देखित देरी कन्याक हृदय मे क्रोध उत्पन्न भ’ गेलनि। राजकुमारी सखी लोकनि केँ संग लय एना चलली मानू राजहंसिनी चलि रहल होइथ। ओ अपन कमल जेहेन हाथ मे जयमाला लेने सब राजा सब केँ देखैत घूमय लगलीह। जेम्हर नारदजी अपन रूप केर गर्व मे चूर भ’ बैसल रहथि, ताहि दिश ओ बिसरियोकय एको बेर नहि तकलीह। नारद मुनि बेर-बेर उचकैथ आ छटपटाइथ। हुनकर ई सब दशा देखिकय शिवजीक गण विहुँसि रहल छलाह।
८. कृपालु भगवान सेहो राजाक शरीर धारण कय ओतय आबि गेलाह। राजकुमारी हर्षित भ’ कय हुनकर गला मे जयमाला पहिरा देलीह। लक्ष्मीनिवास भगवान दुल्हिन केँ लय गेलाह। समस्त राजमंडली निराश भ’ गेलथि।
९. मोह केर कारण मुनिक बुद्धि नष्ट भ’ गेल रहनि। एहि सँ ओ राजकुमारी केँ गेल देखि अत्यन्त विकल भ’ गेलाह। मानू गेठरी सँ छुटिकय मणि कतहु खसि पड़ल हो! तखन शिवजीक गण सब हँसैत कहलखिन – जा कय आईना मे अपन मुंह त देखू। एतेक कहिकय ओ दुनू गोटे मुनिक कोपभाजन बनय के डर सँ भयभीत भ’ कय भगलाह। मुनि जल मे झाँकिकय अपन मुँह देखलनि। अपन रूप देखिकय हुनका बहुत तामश चढ़ि गेलनि। ओ तुरन्त शिवजीक ओहि दुनू गण केँ अत्यन्त कठोर श्राप देलनि – तूँ दुनू कपटी और पापी जाकय राक्षस बनि जो। तूँ हमर हँसी उड़ेलें, तेकर फल चाखे। आब कोनो मुनिक फेर हँसी करिहें!
१०. मुनि फेर जल मे देखलनि त हुनका अपन असली रूप प्राप्त भ’ गेलनि, तखनहुँ हुनका संतोष नहि भेलनि। तामशे हुनकर ठोर फड़फड़ा रहल छलन्हि। मोन मे क्रोध भरि गेल छलन्हि। तुरन्त ओतय सँ ओ भगवान कमलापति लग चलि देलाह। मोन मे सोचैत जाइथ, जाकय या त’ श्राप देबनि या अपन प्राणे दय देबनि। ओ जग भरि मे हमर हँसी करौलनि अछि। दैत्य सभक शत्रु भगवान हुनका बीच रस्ते मे भेट गेलखिन। संग मे लक्ष्मीजी आर वैह राजकुमारी छलीह।
११. देवता लोकनिक स्वामी भगवान हुनका मीठ वाणी मे कहलखिन – हे मुनि! व्याकुल जेकाँ कतय चललहुँ अछि अहाँ? ई शब्द सुनैत देरी नारद केँ बड़ा भारी तामश उठि गेलनि, मायाक वशीभूत हेबाक कारण मोन मे चेत नहि रहि गेलनि। मुनि कहलखिन – अहाँ दोसरक सम्पदा नहि देखि सकैत छी, अहाँ मे ईर्ष्या आ कपट बहुत अछि। समुद्र मथैत काल अहाँ शिवजी केँ बावला बना देलहुँ आ देवता सब केँ प्रेरित कय केँ हुनका विषपान करा देलहुँ। असुर सब केँ मदिरा आ शिवजी केँ विष दयकय अहाँ स्वयं लक्ष्मी और सुन्दर (कौस्तुभ) मणि लय लेलहुँ। अहाँ बड पैघ धोखेबाज आ मतलबी छी। सदिखन कपटहि केर व्यवहार करैत छी। अहाँ परम स्वतंत्र छी, माथ पर त कियो अछि नहि, एहि सँ जखन जे मोन मे भावैत अछि, स्वच्छन्दता सँ वैह सबटा करैत छी। नीक केँ बेजाय आ बेजाय केँ नीक कय दैत छी। हृदय मे हर्ष-विषाद किछुओ नहि आनैत छी। सब केँ ठकि-ठकिकय परकि गेल छी आर बिल्कुल निडर भ’ गेल छी, ताहि सँ ठकइये के काज मे मोन मे सदिखन उत्साह रहैत अछि। शुभ-अशुभ कर्म अहाँ केँ बाधा नहि दैत अछि। आइ धरि अहाँ केँ कियो ठीक नहि कयने छल। एहि बेर अहाँ बड़ा नीक स्थान पर बेन देलहुँ अछि, हमरा सनक लोक केँ उकसेलहुँ अछि। एहि बेर अपन केलहा के फल अवश्य पायब। जाहि शरीर केँ धारण कराकय अहाँ हमरा ठकलहुँ अछि, अहाँ सेहो वैह शरीर धारण करू, यैह हमर श्राप अछि। अहाँ हमर रूप बानर जेहेन बना देने छलहुँ, ताहि बानरे अहाँक सहायता करत। हम जाहि स्त्री केँ चाहैत छलहुँ, ओकरा सँ हमर वियोग कराकय अहाँ हमर भारी अहित कयलहुँ अछि, ताहि सँ अहाँ सेहो स्त्रीक वियोग मे दुःखी होयब।
१२. मुनि नारदक भावावेश मे देल उपरोक्त श्राप केँ माथ चढ़ाकय, हृदय मे हर्षित होइत प्रभु नारदजी सँ बहुतो प्रकारे विनती कयलनि आर पुनः कृपानिधान भगवान अपन मायाक प्रबलता खींचि लेलनि।
१३. जखन भगवान अपन माया केँ हंटा लेलनि, तखन ओतय नहि त लक्ष्मी रहली आ नहिये ओ राजकुमारी। तखन मुनि अत्यन्त भयभीत भ’ कय श्री हरि केर चरण पकड़ि लेलाह आ कहला – हे शरणागत केर दुःख केँ हरयवला! हमर रक्षा करू। हे कृपालु! हमर शाप मिथ्या भ’ जाय।
१४. तखन दीन पर दया करयवला भगवान कहलखिन्ह जे ई सब हमरहि इच्छा सँ भेल अछि। मुनि कहलखिन – हम अहाँ केँ अनेकों खोट वचन कहलहुँ अछि प्रभु, हमर पाप केना मेटायत? भगवान कहलखिन, जाकय शंकरजीक शतनाम केर जप करू, एहि सँ हृदय मे तुरंत शांति भेटत। शिवजीक समान हमरा कियो प्रिय नहि छथि। एहि विश्वास केँ बिसरियोकय कतहु नहि छोड़ब। हे मुनि ! पुरारि (शिवजी) जेकरा पर कृपा नहि करता, ओ हमर भक्ति नहि पाओत। हृदय मे एना निश्चय कयकेँ जाकय पृथ्वी पर विचरू। आब हमर माया अहाँ लग नहि आओत।
१५. बहुतो प्रकार सँ मुनि केँ समझा-बुझाकय, ढाँढस दयकय प्रभु अंतर्द्धान भ’ गेलाह आ नारदजी श्री रामचन्द्रजीक गुण केर गान करित सत्य लोक (ब्रह्मलोक) लेल चलि देलाह।
१६. शिवजीक गण सब जखन मुनि केँ मोहरहित और मोन मे बहुत प्रसन्न भ’ कय रस्ता पर जाइत देखलथि तखन ओहो सब अत्यन्त भयभीत भ’ नारदजी लग अयलाह आर हुनकर चरण पकड़िकय दीन वचन बजलाह – हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहि छी, हम सब शिवजीक गण छी। हम सब भारी अपराध कयलहुँ, जेकर फल हम सब पाबि गेलहुँ। हे कृपालु! आब श्राप दूर करबाक कृपा करू।
१७. दीन पर दया करयवला नारदजी कहलखिन – अहाँ दुनू राक्षस होउ, अहाँ सब केँ महान ऐश्वर्य, तेज और बल केर प्राप्ति हुए। अहाँ अपन भुजाक बल सँ जखन सम्पूर्ण विश्व केँ जीति लेब, तखन भगवान विष्णु मनुष्यक शरीर धारण करता। युद्ध मे श्री हरि केर हाथ सँ अहाँ लोकनिक मृत्यु होयत, ताहि सँ अहाँ सब मुक्त भ’ जायबा आर फेर संसार मे जन्म नहि लेब। ओ दुनू गोटे मुनिक चरण मे सिर नमाकय चलि देलाह आ समय पाबिकय राक्षस बनलाह। देवता सबकेँ प्रसन्न करनिहार, सज्जन सबकेँ सुख देनिहार आर पृथ्वीक भार हरण करनिहार भगवान एक कल्प मे एहि कारण मनुष्य केर अवतार लेने रहथि।
१८. एहि तरहें भगवान केर अनेकों सुन्दर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म छन्हि। प्रत्येक कल्प मे जखन-जखन भगवान अवतार लैत छथि आर नाना प्रकारक सुन्दर लीला सब करैत छथि, तखन-तखन मुनीश्वर लोकनि परम पवित्र काव्य रचना कयकेँ हुनकर कथा सभक गान कयलनि अछि आर भाँति-भाँति केर अनुपम प्रसंगक वर्णन कयलनि अछि, जेकरा सुनिकय बुझयवला (विवेकी) लोक आश्चर्य नहि करैत अछि।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥३॥
श्री हरि अनन्त छथि। हुनकर कियो पार नहि पाबि सकैत अछि। आर हुनकर कथा सेहो अनन्त अछि। सब संत लोकनि ई कथा सब बहुतो तरहें कहैत-सुनैत छथि। श्री रामचन्द्रजी केर सुन्दर चरित्र करोड़ों कल्पहु मे नहि गायल जा सकैत अछि।
१९. शिवजी कहैत छथिन, “हे पार्वती! हम ई बतेबाक लेल ई प्रसंग कहलहुँ जे ज्ञानी मुनि सेहो भगवान केर माया सँ मोहित भ’ जाइत छथि। प्रभु कौतुकी (लीलामय) छथि आर शरणागतक हित करयवला छथि। ओ सेवा करय मे बहुत सुलभ और सब दुःख केँ हरयवला छथि। देवता, मनुष्य और मुनि मे एहेन कियो नहि अछि जेकरा भगवानक महान बलवती माया महित नहि कय दियए। मोन मे एना विचारिकय ओहि महामायाक स्वामी (प्रेरक) श्री भगवान केर भजन करबाक चाही। हे गिरिराजकुमारी! आब भगवानक अवतार केर ओ दोसर कारण सुनू – हम ओ विचित्र कथा विस्तारपूर्वक कहैत छी – जाहि कारण सँ जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित (अव्यक्त सच्चिदानंदघन) ब्रह्म अयोध्यापुरी केर राजा भेलाह। जे प्रभु श्री रामचन्द्रजी केँ अहाँ भाइ लक्ष्मणजीक संग मुनि जेहेन वेष धारण कयने वन मे बौआइत देखने रही आर हे भवानी! जिनकर चरित्र देखिकय सतीक शरीर मे अहाँ एहेन बावली भ’ गेल छलहुँ जे एखनहुँ धरि अहाँ पर सँ ओहि बावलापन केर छाया नहि मेटा रहल अछि, हुनकहि भ्रम रूपी रोग केर हरण करयवला चरित्र सुनू। ओहि अवतार मे भगवान जे-जे लीला कयलनि, ओ सब हम अपन बुद्धि अनुसार अहाँ केँ कहब।”
२०. याज्ञवल्क्यजी कहलखिन – हे भरद्वाज! शंकरजी केर वचन सुनिकय पार्वतीजी लजाइत प्रेमसहित मुस्कुरेलीह। फेर वृषकेतु शिवजी जाहि कारण सँ भगवान केर ओ अवतार भेल छलन्हि, तेकर वर्णन करय लगलाह।
हरिः हरः!!