रामचरितमानस मोतीः श्री रामचन्द्र जीक अवतारक कारण

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री रामचन्द्र जीक अवतार केर कारण

निरन्तरता मे अछि शिव-पार्वती संवाद, शिवजी द्वारा पार्वती केर प्रश्न प्रति प्रसन्नता व्यक्त करैत हुनका सम्बन्ध मे मोहजनित प्रश्न के पुछैत अछि ताहि विन्दु पर प्रकाश दैत आगू हुनकर अवतार ‘दशरथनन्दन’ केर रूप मे एहि धराधाम मे कियैक भेल, ताहि पर सविस्तार वर्णन कय रहल छथि।
१. हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस केर ओ मंगलमयी कथा सुनू जे काकभुशुण्डि द्वारा विस्तार सँ कहल गेल आर पक्षीराज गरुड़जी द्वारा सुनल गेल। ओ श्रेष्ठ संवाद जाहि तरहें भेल, से हम आगू कहब। एखन अहाँ श्री रामचन्द्रजीक अवतारक परम सुन्दर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनू। श्री हरि केर गुण, मान, कथा और रूप सब अपार, अगणित और असीम अछि। तैयो हे पार्वती! हम अपन बुद्धि अनुसार कहैत छी, अहाँ आदरपूर्वक सुनू।
२. हे पार्वती! सुनू, वेद-शास्त्र सब श्री हरि केर सुन्दर, विस्तृत और निर्मल चरित्रक गान कयलक अछि। हरि केर अवतार जाहि कारण सँ होइत छन्हि से कारण ‘बस यैह थिक’ एना नहि कहल जा सकैत अछि। अर्थात् अनेको कारण भ’ सकैत अछि आर ईहो भ’ सकैत अछि जे कियो नहि जानि सकैत अछि। हे सयानी! सुनू! हमर मत त यैह अछि जे बुद्धि, मन और वाणी सँ श्री रामचन्द्रजीक तर्कना नहि कयल जा सकैत अछि तैयो संत, मुनि, वेद और पुराण अपन-अपन बुद्धि अनुसार जे किछु कहैत छथि आर जे किछु हमरा बुझय मे अबैत अछि, हे सुमुखि! वैह कारण हम अहाँ केँ सुनबैत छी।
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥३॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥४॥
दोहा :
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥रामचरितमानस, बालकाण्ड – १२१॥
जखन-जखन धर्म केर ह्रास होइत अछि आर नीच अभिमानी राक्षस बढ़ि जाइत अछि और ओ सब एहेन अन्याय करैत अछि जेकर वर्णन नहि भ’ सकैछ, संगहि ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पबैत छथि, तखन-तखन ओ कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति केर (दिव्य) शरीर धारण कय सज्जन लोकनिक पीड़ा हरैत छथि। ओ असुर सब केँ मारिकय देवता लोकनि केँ स्थापित करैत छथि, अपन (श्वास रूप) वेदक मर्यादाक रक्षा करैत छथि आर जगत भरि मे अपन निर्मल यश केर प्रसार करैत छथि। श्री रामचन्द्रजी के अवतार केर यैह कारण थिक।
३. यैह यश केर गाबि-गाबिकय भक्तजन भवसागर सँ तरि जाइत छथि। कृपासागर भगवान भक्त लोकनिक हित लेल शरीर धारण करैत छथि। श्री रामचन्द्रजीक जन्म लेबाक अनेकों कारण अछि जे एक सँ बढ़िकय एक विचित्र अछि। हे सुन्दर बुद्धिवाली भवानी! हम हुनकर एक-दुइ जन्मक विस्तार सँ वर्णन करैत छी, अहाँ सावधान भ’ कय सुनू।
४. श्री हरि केर जय और विजय दुइ गोट प्रिय द्वारपाल छल जेकरा सब कियो जनैत अछि। ओ दुनू भाइ ब्राह्मण (सनकादि) केर श्राप सँ असुर केर तामसी शरीर प्राप्त कयलक। एक केर नाम छल हिरण्यकशिपु और दोसर केर नाम हिरण्याक्ष। ओ देवराज इन्द्र केर गर्व केँ छोड़ेनिहार सम्पूर्ण जगत मे प्रसिद्ध भेल। ओ युद्ध मे विजय प्राप्त करयवला विख्यात वीर छल। एहि मे सँ एक (हिरण्याक्ष) केँ भगवान वराह (सूअर) केर शरीर धारण कय केँ मारलनि, फेर दोसर हिरण्यकशिपु केँ नरसिंह रूप धारण कय केँ वध कयलनि और अपन भक्त प्रह्लाद केर सुन्दर यश केर प्रसार कयलनि।
५. फेर वैह दुनू आगाँ जा कय देवता लोकनि केँ जीतयवला आ बड़ा भारी योद्धा रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़ा बलवान और महावीर राक्षस भेल, जेकरा समस्त संसार जनैत अछि।
६. भगवान के द्वारा मारल गेलाक बादो ओ हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु एहि कारण मुक्त नहि भेल जे ब्राह्मणक वचन (श्राप) केर प्रमाण तीन जन्म धरि लेल होइत छैक। तेँ एक बेर ओकर कल्याणक लेल भक्तप्रेमी भगवान फेर अवतार लेलनि। ओहि अवतार मे कश्यप और अदिति हुनकर माता-पिता भेलथि, जे दशरथ और कौसल्याक नाम सँ प्रसिद्ध छलाह। एक कल्प मे एहि तरहें अवतार लय कय ओ संसार मे पवित्र लीला कयलनि।
७. एक कल्प मे सब देवता केँ जलन्धर दैत्य सँ युद्ध मे हारि गेलाक कारण दुःखी देखिकय शिवजी सेहो ओकरा संग बड़ा घोर युद्ध कयलनि मुदा ओ महाबली दैत्य मारलो पर नहि मरैत छल। ओहि दैत्यराज केर स्त्री परम सती (बड पैघ पतिव्रता) रहथि। हुनकहि प्रताप सँ त्रिपुरासुर (जेहेन अजेय शत्रु) केर विनाश करयवला शिवजी सेहो ओहि दैत्य केँ नहि जीति सकलथि। तखन प्रभु छल सँ ओहि स्त्रीक व्रत भंग कय देवता लोकनिक काज कयलनि। जखन ओ स्त्री ई भेद जनलीह तखन ओ क्रोध कय केँ भगवान केँ श्राप देलीह। लीलाक भंडार कृपालु हरि ओहि स्त्रीक शाप को प्रामाण्य देलनि, यानि स्वीकार कयलनि। वैह जलन्धर ओहि कल्प मे रावण भेल, जेकरा श्री रामचन्द्रजी युद्ध मे मारिकय परमपद देलनि। एक जन्म केर कारण यैह छल जाहि सँ श्री रामचन्द्रजी मनुष्य देह धारण कयलनि।
८. हे भरद्वाज मुनि! सुनू, प्रभु केर प्रत्येक अवतारक कथा केँ कवि लोकनि नाना प्रकार सँ वर्णन कयलनि अछि। एक बेर नारदजी श्राप देलनि, तेँ एक कल्प मे हुनका लेल अवतार भेलनि। ई बात सुनिकय पार्वतीजी बड़ा चकित भेलीह। ओ कहलखिन जे नारदजी त भगवान विष्णु केर भक्त आ परम ज्ञानी छथि। मुनि भगवान केँ श्राप कोन कारण सँ देलनि? लक्ष्मीपति भगवान हुनकर कोन अपराध कयने रहथि? हे पुरारि (शंकरजी)! ई कथा हमरा सँ कहू। मुनि नारद केर मोन मे मोह होयब बड़ा आश्चर्य केर बात भेल।
९. तखन महादेवजी हँसिकय कहलखिन – नहि कियो ज्ञानी अछि आ नहिये मूर्ख। श्री रघुनाथजी जखन जेकरा जेना करता, ओ ताहि क्षण ओहने बनि जाइत अछि।
१०. याज्ञवल्क्यजी कहैत छथि – हे भरद्वाज! हम श्री रामचन्द्रजी केर गुणक कथा कहैत छी, अहाँ आदर सँ सुनू। तुलसीदासजी कहैत छथि – मान और मद केँ छोड़िकय आवागमन केँ नाश करयवला रघुनाथजी केँ भजू।
११. हिमालय पर्वत मे एकटा अत्यन्त पवित्र गुफा छल। ताहि के समीपहि सुन्दर गंगाजी बहैत छलीह। ओ परम पवित्र सुन्दर आश्रम देखलापर नारदजीक मोन केँ बहुते सोहाओन लगलनि। पर्वत, नदी और वन केर (सुन्दर) विभाग सब देखिकय नादरजी केँ लक्ष्मीकांत भगवान केर चरण मे प्रेमक भाव आबि गेलनि। भगवान केँ स्मरण करिते नारद मुनि केँ दक्ष प्रजापतिक देल ओ श्राप जाहि के कारण ओ कोनो स्थान पर बेसीकाल रुकि नहि सकैत छलाह, ताहि श्रापक गति रुकि गेलनि आर मोन स्वाभाविकहि निर्मल भेला सँ हुनका समाधि लागि गेलनि। नारद मुनि केर ई तपोमयी स्थिति देखिकय देवराज इन्द्र डरा गेलाह। ओ कामदेव केँ बजाकय हुनकर खूब आदर-सत्कार कय केँ कहलखिन जे हमर हित वास्ते अहाँ अपन सहायक सहित नारदजीक समाधि केँ भंग करय जाउ। ई सुनि मीनध्वजधारी कामदेव मोन मे प्रसन्न भ’ कय चललाह। इन्द्र केर मोन मे ई डर भेलनि जे देवर्षि नारद हमर पुरी अमरावतीक निवास (राज्य) चाहैत छथि। जग भरि मे जे कामी आ लोभी होइत अछि, ओ कुटिल कौआ जेकाँ सब सँ डेराइत अछि। जेना मूर्ख कुत्ता सिंह केँ देखिकय सूखल हड्डी लयकय भागय आर ओ मूर्ख ई बुझय जे कतहु ओ हड्डी केँ सिंह छीनि नहि लियए, तहिना इन्द्र केँ (नारदजी हमर राज्य छीनि लेता, एहेन सोचैत) लाज तक नहि भेलनि। जखन कामदेव ओहि आश्रम मे गेलाह तखन ओ अपन माया सँ ओतय वसन्त ऋतु केँ उत्पन्न कयलनि। तरह-तरह के गाछ आ ताहि पर रंग-बिरंगक फूल फुला गेल, ओहि पर कोयली कूकय लागल आ भँवरा सेहो गुंजार करय लागल। कामाग्नि भड़काबयवला तीन तरहक सोहाओन हवा (शीतल, मंद और सुगंध) चलय लागल। रम्भा आदि नवयुवती देवांगना लोकनि जे सब कामकला मे निपुण छलीह, ओ लोकनि बहुतो प्रकारक तान केर तरंगक संग गाबय लगलीह आर हाथ मे गेंद लय कय नाना प्रकारक खेल खेलाय लगलीह। कामदेव अपन एहि सहायक सबकेँ देखिकय खूब प्रसन्न भेलथि आर फेर ओ नाना प्रकारक मायाजाल पसारि देलथि। लेकिन कामदेव केर कोनो कला मुनि पर असर नहि कय सकल। तखन त पापी कामदेव अपनहि नाश केर भय सँ भयभीत भ’ गेलाह। लक्ष्मीपति भगवान जेकर रक्षक होइथ, भले, ओकर सीमा (मर्यादा) केँ कियो दबा सकैत अछि की? तखन अपन सहायक समेत कामदेव बहुते डेराकय अपन मोन मे हारि मानिकय अत्यन्त दीनभाव (आर्त) स्वर मे मुनिक चरण पकड़ि लेलनि। नारदजीक मोन मे कनिकबो क्रोध नहि एलनि। ओ प्रिय वचन कहिकय कामदेव केँ बुझौलनि। तखन मुनिक चरण मे सिर नमाकय हुनकर आज्ञा पाबि कामदेव अपन सहायक लोकनि सहित लौटि गेलाह। देवराज इन्द्र केर सभा मे जाकय ओ मुनिक सुशीलता और अपन करतूत सब कहलखिन जे सुनिकय सभक मोन मे बड़ा आश्चर्य भेलनि आर मुनिक बड़ाई कय केँ सब कियो श्री हरि केँ प्रणाम कयलनि। तखन नारदजी शिवजी लग गेलाह। हुनका मोन मे एहि बातक अहंकार भ’ गेलनि जे हम कामदेव केँ जीति लेलहुँ। ओ कामदेवक सारा चरित्र शिवजी केँ सुनेलनि आ महादेवजी हुनका अत्यन्त प्रिय जानिकय एहि तरहें एक महत्वपूर्ण शिक्षा देलखिन – हे मुनि! हम अहाँ सँ बेर-बेर विनती करैत छी जे जेना ई कथा अहाँ हमरा सुनेलहुँ, तेना भगवान श्री हरि केँ कथमपि नहि सुनायब। जँ चर्चो चलय तँ एकरा नुका लेब।
क्रमशः….
हरिः हरः!!