स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
शिव-पार्वती संवाद
चर्चा चलि रहल छल शिव-पार्वती विवाह उपरान्त कैलाश पहुँचबाक आ एकटा अति विशिष्ट बरगद केर गाछ केर नीचाँ शिवजीक आगमन हेबाक। एकर बाद –
१. शिवजीक स्वरूप केर वर्णनः हुनकर माथपर जटाक मुकुट आ गंगाजी शोभायमान रहथि। कमल समान पैघ-पैघ आँखि छलन्हि। नील कंठ सहित शिव सुन्दरताक भंडार रहथि। हुनक मस्तक पर द्वितीया के चन्द्रमा शोभित छल। कामदेव केर शत्रु शिवजी ओतय बैसल एना शोभित भ’ रहल छलाह जेना शांतरस स्वयं शरीर धारण कएने बैसल हो। बढियाँ मौका पाबि शिवपत्नी माता पार्वतीजी हुनका लग अयलीह। अपन प्रिय पत्नी केँ शिवजी खूब आदर-सत्कार कयलनि आर अपन बाम भाग मे बैसय लेल आसन देलनि। पार्वतीजी प्रसन्न भ’ कय शिवजी लग बैसि रहलीह। हुनका पैछला जन्म केर कथाक स्मरण आबि गेलनि। स्वामीक हृदय मे अपना उपर पहिनेक अपेक्षा अधिक प्रेम बुझि पार्वतीजी हँसिकय प्रिय वचन बजलीह। याज्ञवल्क्यजी कहैत छथि – जे कथा सभक हित करयवला अछि, वैह पार्वतीजी पुछय चाहि रहल छथि। पार्वतीजी पुछलखिन, “हे संसार के स्वामी! हे हमर नाथ! हे त्रिपुरासुर केर वध करनिहार! अपनेक महिमा तीनू लोक मे विख्यात अछि। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सब अहाँक चरणकमल केर सेवा करैत अछि। हे प्रभो! अहाँ समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप छी। सब कला और गुण केर निधान छी और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार छी। अहाँक नाम शरणागतक लेल कल्पवृक्ष अछि। हे सुख के राशि ! यदि अहाँ हमरा उपर प्रसन्न छी और सचमुच हमरा अपन दासी मानैत छी, त हे प्रभो! अहाँ श्री रघुनाथजी की नाना प्रकारक कथा कहिकय हमर अज्ञानता केँ दूर करू। जेकर घर कल्पवृक्ष केर नीचा हो, ओ भला दरिद्रता सँ उत्पन्न दुःख केँ कियैक सहत? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय मे एना विचार कय हमर बुद्धि केर भारी भ्रम केँ दूर करू। हे प्रभो! जे परमार्थतत्व (ब्रह्म) केर ज्ञाता और वक्ता मुनि छथि, ओ श्री रामचन्द्रजी केँ अनादि ब्रह्म कहैत छथि और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सब कियो श्री रघुनाथजी केर गुण गबैत छथि। और हे कामदेव केर शत्रु! अपने सेहो दिन-राति आदरपूर्वक राम-राम जपल करैत छी – ई राम वैह अयोध्याक राजाक पुत्र छथि? या अजन्मा, निर्गुण और अगोचर कियो आर राम छथि? जँ ओ राजपुत्र छथि त ब्रह्म केना? और यदि ब्रह्म छथि त स्त्रीक विरह मे हुनकर मति बावली कोना भ’ गेलनि? एम्हर हुनकर एहेन देखिकय आर ओम्हर हुनकर महिमा सुनिकय हमर बुद्धि एकदम चकरा रहल अछि। यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कियो आर छथि त हे नाथ! हमरा ओ सब बुझाकय कहू। हमरा नादान बुझि मोन मे क्रोन नहि आनू। जाहि सँ हमर मोह दूर हुए, वैह करू। हम पिछला जन्म मे वन मे श्री रामचन्द्रजीक प्रभुता देखने रही, लेकिन बहुत भयभीत भ’ जेबाक हम ओ बात अहाँ केँ नहि सुनेलहुँ। तैयो हमर मलिन मोन केँ ई बोध नहि भेल। ओकर फल सेहो हम नीक जेकाँ पाबि गेलहुँ। एखनहुँ हमर मोन मे किछु सन्देह अछि। अहाँ कृपा करू, हम हाथ जोड़िकय विनती करैत छी। हे प्रभो! अपने ताहि समय हमरा बहुतो प्रकार सँ बुझेने रही, तैयो हमर सन्देह नहि गेल। हे नाथ! ई सोचिकय हमरा पर क्रोन नहि करू। हमरा आब पहिने जेकाँ मोह नहि अछि, आब त हमर मोन मे रामकथा सुनबाक रुचि जागि गेल अछि। हे शेषनाग केँ अलंकार रूप मे धारण करनिहार देवता सभक नाथ! अपने श्री रामचन्द्रजी के गुण केर पवित्र कथा कहू।हम पृथ्वी पर माथ टेकिकय अपनेक चरणक वन्दना करैत छी आर हाथ जोड़िकय विनती करैत छी। अहाँ वेदक सिद्धान्त केँ निचोड़िकय श्री रघुनाथजी केर निर्मल यश वर्णन करू। यद्यपि स्त्री होयबाक कारण हम ओ सब सुनबाक अधिकारिणी नहि छी, तैयो हम मन, वचन और कर्म सँ अपनेक दासी छी। संत लोक जतय आर्त अधिकारी पबैत छथि, ओतय गूढ़ तत्त्व सेहो ओकरा सँ नहि नुकबैत छथि। हे देवता लोकनिक स्वामी! हम अत्यन्त आर्तभाव (दीनता) सँ पुछैत छी, अपने हमरा पर दया कयकेँ श्री रघुनाथजीक कथा कहू। पहिने त ओ कारण विचारिकय बताउ जाहि सँ निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करैत छथि। फेर हे प्रभु! श्री रामचन्द्रजीक अवतार (जन्म) केर कथा कहू तथा हुनक उदार बाल चरित्र कहू। फेर जाहि प्रकार ओ श्री जानकीजी सँ विवाह कयलनि, ओहो कथा कहू आर फेर ई बताउ जे ओ जे राज्य छोड़लनि से कोन दोष सँ। हे नाथ! फेर ओ वन मे रहिकय जे अपार चरित्र कयलनि तथा जाहि तरहें रावण केँ मारलनि, से कहू। हे सुखस्वरूप शंकर! फेर अहाँ ओ सब लीला के बारे मे कहू जे ओ राज्य (सिंहासन) पर बैसिकय कएने रहथि। हे कृपाधाम! फेर ओ अद्भुत चरित्र कहू जे श्री रामचन्द्रजी कयलनि – ओ रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित कोन प्रकारे अपन धाम केँ गेलाह? हे प्रभु! फेर अपने ओ तत्त्व केँ बुझाकय कहू जेकर अनुभूति मे ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहैत छथि आर फेर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य केर विभाग सहित वर्णन करू। एकर अलावे श्री रामचन्द्रजी के औरो जे विभिन्न रहस्य (छिपल भाव अथवा चरित्र) सब अछि, सेहो कहू। हे नाथ! अपनेक ज्ञान अत्यन्त निर्मल अछि। हे प्रभो! जे बात हम नहियो पुछि पेलहुँ, हे दयालु! ओहो सब अपने नहि नुकायब। वेद अपने केँ तीनू लोकक गुरु कहलक अछि। दोसर पामर जीव एहि रहस्य केँ कि जानय गेल!
२. पार्वतीजीक सहज सुन्दर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनिकय शिवजी केँ बहुत नीक लगलन्हि। श्री महादेवजीक हृदय मे सारा रामचरित्र आबि गेलनि। प्रेम सँ हुनकर शरीर पुलकित भ’ गेलनि आर नेत्र मे जल भरि गेलनि। श्री रघुनाथजीक रूप हुनकर हृदय मे आबि गेलनि जाहि सँ स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी सेहो अपार सुख पेलनि। शिवजी दू घड़ी धरि ध्यान केर रस (आनंद) मे डूबल रहला, फेर ओ मोन केँ बाहर खींचलनि आर तखन ओ प्रसन्न भ’ कय श्री रघुनाथजीक चरित्र वर्णन करय लगलाह।
३. जिनका बिना चिन्हने झूठ सेहो सत्य बुझना जाइछ, जेना बिना चिन्हने रस्सी मे साँप के भ्रम भ’ जाइत अछि आर जेकरा जानि लेला पर संसारक ओहिना लोप भ’ जाइत अछि जेना गागि गेलापर सपनाक भ्रम भंग भ’ जाइत अछि, हम वैह श्री रामचन्द्रजीक बाल रूप केर वंदना करैत छी, जिनकर नाम जपला सँ सब सिद्धि सहजहि प्राप्त भ’ जाइत अछि। मंगल केर धाम, अमंगल केर हरयवला और श्री दशरथजी के आँगन मे खेलायवला (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी हमरा पर कृपा करथि।
४. त्रिपुरासुर केँ वध करयवला शिवजी श्री रामचन्द्रजी केँ प्रणाम कयकेँ आनंद मे भरिकय अमृत समान वाणी बजलाह – हे गिरिराजकुमारी पार्वती! अहाँ धन्य छी! धन्य छी!! अहाँ समान कियो उपकारी नहि अछि जे अहाँ श्री रघुनाथजीक कथाक प्रसंग पुछलहुँ अछि। जे कथा समस्त लोक लेल जगत केँ पवित्र करयवाली गंगाजीक समान अछि। अहाँ जगत केर कल्याणहि लेल प्रश्न पुछलहुँ अछि। अहाँ श्री रघुनाथजीक चरण मे प्रेम राखयवाली छी। हे पार्वती! हमरा विचार मे त श्री रामजीक कृपा सँ अहाँक दिमाग मे स्वप्नहुँ मे शोक, मोह, संदेह और भ्रम किछुओ नहि अछि। तैयो अहाँ एहि लेल वैह (पुरान) शंका प्रकट कयलहुँ जे एहि प्रसंग केँ कहला-सुनला सँ सभक कल्याण होयत।
५. जे अपना कान सँ भगवानक कथा नहि सुनलक ओकर कानक छिद्र साँप केर बिल के समान अछि। जे अपन नेत्र सँ संतों केर दर्शन नहि कयलक ओकर नेत्र मोर केर पाँखि मे देखायवला नकली आँखि केर गिनती मे अछि। ओ माथ कड़ू तुम्बीक समान अछि जे श्री हरि और गुरु केर चरणतल पर नहि झुकैत अछि। जे भगवानक भक्ति केँ अपन हृदय मे स्थान नहि देलक, ओ जीव जीते-जी मुर्दाक समान अछि। जे जिह्वा श्री रामचन्द्रजीक गुणक गान नहि करैछ, ओ बेंग केर जिह्वा समान अछि। ओ हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर अछि, जे भगवान केर चरित्र सुनिकर हर्षित नहि होइत अछि। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजीक लीला सुनू, ई देवता लोकनिक कल्याण करयवला आर दैत्य सब केँ विशेष रूप सँ मोहित करयवला अछि।
६. श्री रामचन्द्रजीक कथा कामधेनु समान सेवा करय सँ सब सुख दयवला अछि आर सत्पुरुष लोकनिक समाजे समस्त देवता सभक लोक थिक से बुझिकय ई के नहि सुनत। श्री रामचन्द्रजीक कथा हाथक सुंदर ताली थिक, जे संदेहरूपी चिड़ैइ केँ उड़ा दैत अछि। फेर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष केँ काटय लेल कुरहरि थिक। हे गिरिराजकुमारी! अहाँ ई आदरपूर्वक सुनू।
७. वेद द्वारा श्री रामचन्द्रजीक सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सबटा अनगिनत कहल गेल अछि। जाहि तरहें भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त छथि, तहिना हुनकर कथा, कीर्ति और गुण सेहो अनन्त छन्हि। तैयो अहाँक अत्यन्त प्रीति देखिकय, जे किछु हम सुनने छी आर जेहेन हमर बुद्धि अछि, ताहि अनुसार हम कहब। हे पार्वती! अहाँक प्रश्न स्वाभाविके सुन्दर, सुखदायक और संतसम्मत अछि और हमरा त बहुते नीक लागल। लेकिन हे पार्वती! एक बात हमरा नीक नहि लागल, यद्यपि ओ अहाँ मोह केर वश भ’ कय कहलहुँ अछि जे कि ओ राम कियो आर छथि जिनका वेद गबैत अछि आर मुनिजन जिनकर ध्यान धरैत छथि।
८. जे मोह रूपी पिशाच द्वारा ग्रस्त अछि, पाखण्डी अछि, भगवान केर चरण सँ विमुख अछि आर जे झूठ-सच किछुओ नहि जनैत अछि, एहेन अधम मनुष्य एहि तरहक बात कहैत-सुनैत अछि।
९. जे अज्ञानी, मूर्ख, अंधा और भाग्यहीन अछि आर जेकर मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी गन्दगी जमल छैक, जे व्यभिचारी, छली और बड़ा कुटिल अछि आर जे कहियो सपनहुँ मे संत समाजक दर्शन नहि कयलक, आर जेकरा अपन लाभ-हानि नहि सुझाइत छैक, वैह एहेन वेदविरोधी बात कहल करैत अछि।
१०. जेकर हृदयरूपी दर्पण गन्दा छैक आर जे नेत्र सँ हीन अछि, ओ बेचारा श्री रामचन्द्रजीक रूप केना देखत!
११. जेकरा निर्गुण-सगुण केर कनिको विवेक नहि छैक, जे विभिन्न मनगढ़ंत बात बकबक करैत अछि, जे श्री हरि केर मायाक वश मे भ’ कय जगत मे (जन्म-मृत्यु के चक्र मे) भ्रमैत फिरैत अछि, ओकरा लेल किछुओ कहि देनाय असंभव नहि छैक।
१२. जेकरा वायुक रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) भ’ गेल होइ, जे भूत केर वश भ’ गेल अछि आर जे नशा मे चूर अछि, एहेन लोक विचारिकय नहि बजैत अछि।
१३. जे महामोहरूपी मदिरा पीने हो, ओकर कहल बात पर कान नहि देबाक चाही।
१४. अपन हृदय मे एना विचार करैत संदेह छोड़ि दिअ आर श्री रामचन्द्रजीक चरण केँ भजू। हे पार्वती! भ्रम रूपी अंधकार केँ नाश करबाक लेल सूर्य केर किरण के समान हमर वचन केँ सुनू!
१५. सगुण और निर्गुण मे किछुओ अन्तर नहि छैक। मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सब यैह कहैत अछि। जे निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा छथि, वैह भक्त लोकनिक प्रेमवश सगुण भ’ जाइत छथि। जे निर्गुण छथि वैह सगुण केना छथि? जेना जल और ओला मे भेद नहि। (दुनू जले थिक, तहिना निर्गुण और सगुण एक्के थिक।)
१६. जिनक नाम भ्रम रूपी अंधकार केँ मेटेबाक लेल सूर्य थिक, हुनका लेल मोह केर प्रसंग सेहो केना कहल जा सकैत छैक? श्री रामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य छथि। ओतय मोह रूपी रात्रि केर लवलेश तक नहि अछि। ओ स्वभावहि सँ प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान थिकाह। ओतय त विज्ञान रूपी प्रातःकाल सेहो नहि होइत छैक, अर्थात् अज्ञानरूपी रात्रि जखन हुए तखन न विज्ञानरूपी प्रातःकाल होयत, भगवान् त नित्य ज्ञान स्वरूप छथि।)
१७. हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान – ई सब जीव केर धर्म थिक। श्री रामचन्द्रजी तँ व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष छथि। ई बात केँ सम्पूर्ण संसार जनैत अछि।
१८. जे (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध छथि, प्रकाश केर भंडार छथि, सब रूप मे प्रकट छथि, जीव, माया और जगत सभक स्वामी छथि, वैह रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी हमर स्वामी थिकाह – एतेक कहिकय शिवजी हुनका मस्तक नमेलनि।
१९. अज्ञानी मनुष्य अपन भ्रम केँ त बुझैत नहि अछि ओ मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर तेकर आरोप करैत अछि, जेना आकाश मे बादलक परदा देखिकय कुविचारी (अज्ञानी) लोक कहैत अछि जे बादल सूर्य केँ झाँपि देलक।
२०. जे मनुष्य आँखि मे आँगुर लगाकय देखैत अछि ओकरा लेल त दू टा चन्द्रमा प्रकट छथि। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजीक विषय मे एहि तरहक मोह केर कल्पना करब ओहिना अछि जेना आकाश मे अंधकार, धुआँ आर धूरा केर सोहाओन भेनाय। (आकाश जेना निर्मल और निर्लेप अछि, ओकरा कियो मलिन या स्पर्श नहि कय सकैछ, ठीक तहिना भगवान श्री रामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप छथि।)
२१. विषय, इन्द्रिय, इन्द्रिय केर देवता और जीवात्मा – ई सब एक-दोसराक सहायता चेतन बनैत अछि। (अर्थात विषय केर प्रकाश इन्द्रिय सँ, इन्द्रिय केर इन्द्रियक देवता सबसँ आर इन्द्रिय देवता सभक चेतन जीवात्मा सँ प्रकाश होइत अछि।) एहि सभक जे परम प्रकाशक छथि (अर्थात जाहि सँ एहि सब केँ प्रकाश भेटैत छैक), ओ अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी छथि।
२२. ई जगत प्रकाश्य अछि और श्री रामचन्द्रजी एकर प्रकाशक छथि। ओ मायाक स्वामी और ज्ञान तथा गुण केर धाम छथि। जेकर सत्ता सँ, मोह केर सहायता पाबिकय जड़ माया सेहो सत्य जेकाँ भासित होइत अछि। जेना सीप मे चाँदी केर और सूर्य केर किरण मे पानि केर (बिना भेनहियो) आभास (प्रतीति) भेल करैत अछि। जखन कि ई प्रतीति तीनू काल मे झूठ अछि, तथापि एहि भ्रम केँ कियो नहि हंटा सकैत अछि।
२३. एहि तरहें ई संसार भगवानक आश्रित रहैत अछि। हलांकि ई असत्य अछि, तैयो दुःख तऽ दिते टा अछि, जेना सपना मे कियो सिर काटि लियए त जगलो पर ओ दुःख दूर नहि होइत छैक।
२४. हे पार्वती! जिनकर कृपा सँ एहि तरहक भ्रम मेटा जाइत अछि, से कृपालु श्री रघुनाथजी छथि। जिनकर आदि और अंत कियो नहि जानि सकल। वेद अपन बुद्धि सँ अनुमान कय केँ एहि तरहें (निम्न लेख मुताबिक) गायन कयलक अछि –
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥३॥
ओ (ब्रह्म) बिना पैरहि केँ चलैत छथि, बिना कानहि केँ सुनैत छथि, बिना हाथहि केँ नाना प्रकार केर काज करैत छथि, बिना मुँहहि (जीहहि) के समस्त (छहो) रस केर आनंद लैत छथि आर बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता छथि।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥४॥
ओ बिना शरीर (त्वचा) केर स्पर्श करैत छथि, बिना आँखि के देखैत छथि आर बिना नाक के सब गंध केँ ग्रहण (सूँघि लैत) छथि। ओहि ब्रह्म केर करनी सब तरहें एहेन अलौकिक अछि जे एकर महिमा कहल नहि जा सकैत अछि।
२५. जिनका वेद और पंडित एहि तरहें वर्णन करैत छथि आर मुनि जिनकर ध्यान धरैत छथि, वैह दशरथनंदन, भक्त केर हितकारी, अयोध्याक स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी छथि।
२६. हे पार्वती! जिनकर नाम के बल सँ काशी मे मरैतो प्राणी केँ देखिकय हम ओकरा (राम मंत्र दयकय) शोकरहित कय दैत छी (मुक्त कय दैत छी), वैह हमर प्रभु रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी जड़-चेतन केर स्वामी और सभक हृदय केर भीतर केँ जननिहार छथि।
२७. विवश भ’ कय (बिना इच्छा के) सेहो जिनकर लेला सँ मनुष्यों केर अनेक जन्म मे कयल गेल पाप जरि जाइत अछि, फेर जे मनुष्य आदरपूर्वक हुनकर स्मरण करैत अछि से त संसार रूपी (दुस्तर) समुद्र केँ गाय केर खुर सँ बनल खधहा (गड्ढा) के समान (अर्थात बिना कोनो परिश्रम के) पार कय जाइत अछि।
२८. हे पार्वती! वैह परमात्मा श्री रामचन्द्रजी छथि। हुनका मे भ्रम (देखय मे अबैत) अछि, अहाँक एना कहनाय अत्यन्त अनुचित अछि। एहि तरहक सन्देह मोन मे अनिते देरी मनुष्य केर ज्ञान, वैराग्य आदि सारा सद्गुण नष्ट भ’ जाइत छैक।
२९. शिवजीक भ्रमनाशक वचन केँ सुनिकय पार्वतीजी केर सब कुतर्कक रचना मेटा गेलनि। श्री रघुनाथजी केर चरण मे हुनकर प्रेम और विश्वास भ’ गेलनि आर कठिन असम्भावना (जेकर होयब सम्भव नहि, एहेन मिथ्या कल्पना) भागि गेलनि। बेर-बेर स्वामी (शिवजी)क चरणकमल केँ पकड़िकय और अपन कमल समान हाथ केँ जोड़िकय पार्वतीजी मानू प्रेमरस मे सराबोर सुन्दर वचन बजलीह – अपनेक चन्द्रमाक किरणक समान शीतल वाणी सुनिकय हमर अज्ञान रूपी शरद-ऋतु केर रौउदक भारी ताप मेटा गेल। हे कृपालु! अपने हमर सारा सन्देह केँ हरि लेलहुँ, आब श्री रामचन्द्रजीक यथार्थ स्वरूप हमरा बुझय मे आबि गेल। हे नाथ! अहाँक कृपा सँ आब हमर विषाद चलि गेल आर अहाँक चरणक अनुग्रह सँ हम सुखी भ’ गेलहुँ। हालांकि हम स्त्री होयबाक कारण स्वभावहि सँ मूर्ख आर ज्ञानहीन छी, तैयो आब अहाँ हमरा अपन दासी जानिकय, हे प्रभो! जँ अहाँ हमरा पर प्रसन्न छी त जे बात हम पहिने अहाँ सँ पुछने रही सेहो कहू। ई सत्य छैक जे श्री रामचन्द्र जी ब्रह्म थिकाह, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) छथि, अविनाशी छथि, सबसँ रहित और सबके हृदय रूपी नगरी मे निवास करनिहार छथि, तखन हे नाथ! ओ मनुष्य केर शरीर कोन कारण सँ धारण कयलनि? हे धर्म केर ध्वजा धारण करनिहार प्रभो! ई हमरा बुझाकय कहू।
३०. पार्वतीक अत्यन्त नम्र वचन सुनिकय और श्री रामचन्द्रजी केर कथा मे हुनकर विशुद्ध प्रेम देखिकय कामदेव केर शत्रु, स्वाभाविकहि सुजान, कृपा निधान शिवजी मन मे बहुत हर्षित भेलाह और बहुतो प्रकार से पार्वतीक बड़ाई कयकेँ फेर बजलाह –
क्रमशः….
हरिः हरः!!