रामचरितमानस मोतीः शिवजीक विवाह

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

शिवजीक विवाह

शिव-पार्वती विवाह प्रसंग निरन्तरता मे अछि। पूर्व के अध्याय मे शिवजीक विचित्र बरियातीक सम्बन्ध मे पढ़लहुँ, पार्वतीक माय मैना देवी कोना अपन बावला जमाय केँ देखि चिन्तातुर भ’ पार्वती केर विवाह नहि करबाक जिद्द करय लगलीह, केना फेर स्वयं पार्वती हुनका बुझेलीह, राजा हिमवान् नारद मुनिक संग आबिकय हुनका पार्वतीक पूर्वजन्मक कथा सुनाकय शिवजी व हुनकर सम्बन्ध सदा-सनातन होयबाक रहस्य केँ उजागर कयलनि आ तेकर बाद फेर सब कियो केना खुशी-खुशी बरियाती सब केँ भोजन करौलनि, विवाहक लग्न देखि मुनि लोकनि विवाह मंडप मे विवाह करेबाक आज्ञा देलनि… तेकर बाद के प्रसंग देखू।
१. मुनि लोकनिक आज्ञा सँ शिवजी और पार्वतीजी गणेशजीक पूजन कयलनि। मोन मे देवता केँ अनादि बुझिकय कियो ई बात सुनिकय शंका नहि करब जे गणेशजी त शिव पार्वतीक संतान छथि, फेर विवाह सँ पहिनहि कतय सँ आबि गेलाह। 
२. वेद मे विवाहक जेहेन रीति कहल गेल अछि, महामुनि सब वैह सबटा रीति करबेलनि। पर्वतराज हिमाचल हाथ मे कुश लय कय कन्याक हाथ पकड़ि हुनका भवानी (शिवपत्नी) बुझैत शिवजी केँ समर्पित कयलनि। 
३. जखनहि महेश्वर (शिवजी) पार्वतीक पाणिग्रहण कयलनि तखनहि इन्द्रादि सब देवता हृदय मे अत्यन्ते हर्षित भेलथि। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रक उच्चारण करय लगलाह आर देवगण शिवजी केर जय-जयकार करय लगलाह। अनेकों प्रकारक बाजा सब बाजय लागल। आकाश सँ नाना प्रकारक फूल केर वर्षा भेल। शिव-पार्वतीक विवाह भ’ गेल। सारा ब्रह्माण्ड मे आनंद भरि गेल। 
४. दासी, दास, रथ, घोड़ा, हाथी, गाय, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकारक चीज सब, अन्न तथा सोनाक बर्तन गाड़ी मे लादिकय दहेज मे देल गेल जेकर वर्णन नहि भ’ सकैत अछि। 
छन्द :
दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
बहुतो प्रकारक दहेज दय कय, फेर हाथ जोड़िकय हिमाचल कहलखिन – हे शंकर! अपने पूर्णकाम छी, हम अहाँ केँ कि दय सकैत छी? एतेक कहिकय ओ शिवजीक चरणकमल पकड़िकय रहि गेलाह। तखन कृपाक सागर शिवजी अपन ससुर केँ खूब नीक सँ बुझेलनि, हुनक समस्त जिज्ञासाक समाधान कयलनि। फेर प्रेम सँ परिपूर्ण हृदय मैनाजी सेहो शिवजीक चरणकमल पकड़िकय कहलीह – 
दोहा :
नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥
हे नाथ! ई उमा हमरा अपन प्राणक समान प्रिय अछि। अहाँ एकरा अपन घरक टहलनी बनायब आ एकर सब अपराध केँ क्षमा करैत रहब। आब प्रसन्न भ’ हमरा यैह वर दिअ। शिवजी हुनको खूब नीक जेकाँ बुझबैत सन्तोष देलनि। तखन ओ शिवजीक चरण मे माथ नमाकय घर गेलीह। पार्वती केँ बजाकय अपन कोरा मे बैसाकय हुनका सुन्दर सीख दियए लगलीह –
हे पार्वती! अहाँ सदाशिवजीक चरणक पूजा करब, नारी केर यैह धर्म थिक। नारी लेल पतिए देवता छथि आर कोनो देवता नहि होइछ। एहि तरहक बात कहिते-कहिते हुनकर आँखि मे नोर भरि गेलनि आर ओ पार्वती केँ अपन छाती सँ सटा लेलीह।
५. मैना फेरो स्वयं केँ सम्हारैत बेटीक विदाई सँ पहिने हुनका नारीधर्म बुझबैत बजलीह – विधाता जगत मे स्त्री जाति केँ कियैक जन्म देलनि? पराधीन केँ सपनहु मे सुख नहि भेटैछ। एतेक कहिते माता प्रेम मे अत्यन्त विकल भ’ गेलीह, मुदा कुसमय जानिकय दुःख करबाक अवसर नहि बुझि अपना केँ धीरज देलीह। ओ बेर-बेर बेटी सँ गला मिलबैत छथि आ फेर हुनकर पैर पकड़य लेल नीचाँ झुकि जाइत छथि। अद्भुत प्रेम अछि जेकर किछुओ वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। भवानी सब स्त्रिलोकनि सँ भेटिकय फेर अपन माय केर हृदय सँ लिपटि गेलीह। 
छन्द :
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
पार्वतीजी माता सँ मिलिकय आगू बढ़लीह, सब कियो हुनका योग्य आशीर्वाद देलकनि। ओ घुरि-घुरिकय माय दिश देखैत छथि। सब सखी हुनका शिवजी लग लय गेलखिन। महादेवजी सब याचक लोकनि केँ संतुष्ट कय पार्वती केँ संग लय घर (कैलाश) दिश विदाह भेलाह। सब देवता प्रसन्न भ’ कय फूलक वर्षा करय लगलाह आर आकाश मे सुन्दर नगाड़ा बाजय लागल। 
६. हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम सँ शिवजी केँ अरियातय लेल संगे चललाह। वृषकेतु (शिवजी) हुनका बहुतो तरह सँ संतोष दयकय वापस कयलथि। पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आबि गेलाह आर ओ सब पर्वत ओ सरोवर सब केँ बजौलनि। हिमवान आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सभक विदाई कयलथि। 
७. जखन शिवजी कैलाश पर्वत पर पहुँचलाह, त सब देवता अपन-अपन लोक केँ चलि गेलाह। तुलसीदासजी कहैत छथि जे पार्वतीजी और शिवजी जगत केर माता-पिता थिकाह, ताहि लेल हम हुनकर श्रृंगारक वर्णन नहि करैत छी। 
८. शिव-पार्वती विविध प्रकारक भोग-विलास करैत अपन गण लोकनिक संग कैलाश पर रहय लगलाह। ओ नित्य नव विहार करथि, एहि प्रकारे बहुत समय बीति गेल। तखन छ: मुखवाला पुत्र (स्वामिकार्तिक) केर जन्म भेलनि जे पैघ भेला पर युद्ध मे तारकासुर केर वध कयलथि। वेद, शास्त्र और पुराण मे स्वामिकार्तिक केर जन्मक कथा प्रसिद्ध अछि और सारा जगत एहि बात केँ जनैत अछि। 
छन्द :
जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
षडानन (स्वामिकार्तिक) केर जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ केँ समस्त संसार जनैत अछि, ताहि लेल हम वृषकेतु (शिवजी)क पुत्र केर चरित्र संक्षेपहि मे कहलहुँ। शिव-पार्वतीक विवाह केर एहि कथा केँ जे स्त्री-पुरुष कहत आ गायत से कल्याण केर कार्य और विवाहादि मंगल मे सदा सुख पाओत।
९. गिरिजापति महादेवजीक चरित्र समुद्र केर समान (अपार) अछि, ओकर पार वेदो नहि पबैत अछि। तखन अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास एकर वर्णन केना कय सकता – एहि उच्चभाव मे स्वयं तुलसीदास उपरोक्त शिव-विवाह प्रसंग केर वर्णन कयलनि अछि। 
१०. शिवजीक रसीला और सुहाओन चरित्र केँ सुनिकय मुनि भरद्वाजजी सेहो खूब प्रसन्न भेलाह, सुख प्राप्त कयलथि। कथा सुनबाक हुनकर लालसा आर बेसी बढ़ि गेलनि। आँखि मे नोर भरि गेलनि आ रोमावली पुलकित (रोइयाँ ठाढ़) भ’ गेलनि। ओ प्रेम मे मुग्ध भ’ गेलाह। मुंह सँ बोल नहि निकलैत अछि। हुनकर ई दशा देखिकय ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न भेलाह आ कहलखिन – हे मुनीश! अहा हा! अहाँक जन्म धन्य अछि, अहाँ केँ गौरीपति शिवजी प्राणक समान प्रिय छथि। शिवजीक चरण कमल मे जिनकर प्रीति नहि अछि ओ श्री रामचन्द्रजी केँ सपनो मे नीक नहि लगैत अछि। विश्वनाथ श्री शिवजी केर चरण मे निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होयब यैह रामभक्त केर लक्षण थिक। शिवजीक समान रघुनाथजी (केर भक्ति) केर व्रत धारण करयवला के अछि? जे बिना कोनो पाप के सती जेहेन स्त्री केँ त्यागि देलाह आर प्रतिज्ञा कयकेँ श्री रघुनाथजीक भक्ति केँ देखा देलनि (सिद्ध कय देलनि)। हे भाई! श्री रामचन्द्रजी केँ शिवजीक समान आर के प्रिय भ’ सकैत अछि? हम पहिने शिवजीक चरित्र कहिकय अहाँक भेद बुझि लेलहुँ। अहाँ श्री रामचन्द्रजीक पवित्र सेवक छी आर सब दोष सँ रहित छी। हम अहाँक गुण और शील जानि लेलहुँ। आब हम श्री रघुनाथजीक लीला कहैत छी, सुनू। हे मुनि! सुनू, आइ अहाँक भेटला सँ हमर मोन मे जे आनंद भेल अछि ओ कहल नहि जा सकैत अछि। हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार अछि। सौ करोड़ शेषजी सेहो ओकरा पूरा नहि कहि सकैत छथि। तथापि हम जेहेन सुनलहुँ अछि, ओहेन वाणीक स्वामी (प्रेरक) और हाथ मे धनुष लेने प्रभु श्री रामचन्द्रजी केँ स्मरण कयकेँ कहैत छी। सरस्वतीजी कठपुतली समान छथि आर अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी (ताग पकड़िकय कठपुतली केँ नचबयवला) सूत्रधार छथि। अपन भक्त जानिकय जाहि कवि पर ओ कृपा करैत छथि ओकर हृदय रूपी आँगन मे सरस्वती केँ ओ नचायल करैत छथि। वैह कृपालु श्री रघुनाथजी केँ हम प्रणाम करैत छी आर हुनकहि निर्मल गुण सभक कथा कहैत छी।
११. कैलाश पर्वत मे श्रेष्ठ और बहुते रमणीय अछि, जतय शिव-पार्वतीजी सदा निवास करैत छथि। सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनि सभक समूह ओहि पर्वत पर रहैत छथि। ओ सब बड़ा पुण्यात्मा छथि और आनंदकन्द श्री महादेवजीक सेवा करैत छथि। जे भगवान विष्णु और महादेवजी सँ विमुख अछि आर जेकरा धर्म मे प्रीति नहि छैक ओ लोक सपनहुँ मे ओतय नहि जा सकैत अछि। ओहि पर्वत पर एक विशाल बरगद केर पेड़ अछि, जे नित्य नवीन और सब काल (छहो ऋतु) मे सुन्दर रहैत अछि। ओतय तीनू प्रकारक (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहैत रहैत अछि और ओकर छाहरि बड़ा ठंढा रहैत अछि। ओ शिवजीक विश्राम करबाक वृक्ष थिक, जेकरा वेद गान कएने अछि।
१२. एक बेर प्रभु श्री शिवजी ओहि वृक्ष केर नीचाँ गेलाह आर ओ देखिकय हुनकर हृदय मे बहुत आनंद भेलनि। अपना हाथ सँ बाघम्बर बिछाकय कृपालु शिवजी स्वभावहि सँ बिना कोनो खास प्रयोजनक ओतय बैसि गेलाह। कुंद केर पुष्प, चन्द्रमा और शंख केर समान हुनकर गौर शरीर छलन्हि। बड़का टा के हाथ आर ओ मुनि सब जेकाँ वल्कल वस्त्र धारण कएने रहथि। हुनकर चरण नब (पूर्ण रूप सँ फुलायल) लाल कमल केर समान छल, नहक ज्योति भक्त केर हृदयक अंधकार हरण करयवला छल। साँप और भस्म – यैह हुनकर भूषण छल आर ओहि त्रिपुरासुर केर शत्रु शिवजीक मुख शरद (पूर्णिमा) केर चन्द्रमा वला शोभा केँ सेहो हरयवला (फीका करयवला) छल।