रामचरितमानस मोतीः शिव-पार्वती विवाह प्रसंग – विचित्र बरियाती व अन्य तैयारी

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

शिवजीक विचित्र बरियाती आ विवाहक तैयारी

शिवजीक सहमति उपरान्त सप्तर्षि लोकनिक हिमाचल राजाक घर जाय केँ पार्वती-शिव केर विवाह उत्सवक दिन ताकब आ सारा तैयारी आरम्भ होयबाक बात पूर्वक अध्याय मे पढ़ि लेलहुँ। आब आगू देखू जे शिवजीक बरियाती केना सजि रहल छथि।
१. सब देवता अपन भाँति-भाँति केर वाहन और विमान सजाबय लगलाह। कल्याणप्रद मंगल शकुन हुअय लागल आर अप्सरा सब गीत गाबय लगलीह। 
२. शिवजीक गण शिवजीक श्रृंगार करय लगलाह। जटा केर मुकुट बनाकय ओहिपर साँपक मौर सजायल गेल। शिवजी साँपहि केर कुंडल और कंकण पहिरलाह। शरीर पर विभूति रमौलनि आर वस्त्र के स्थानपर बाघम्बर लपेटि लेलाह। शिवजीक सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपहि केर जनेऊ, गला मे विष और छाती पर नरमुण्ड केर माला छल। एहि तरहें हुनकर वेष अशुभ भेलाक बादो ओ कल्याण केर धाम और कृपालु छथि। एक हाथ मे त्रिशूल और दोसर मे डमरू सुशोभित छन्हि।
३. शिवजी बसहा बरद पर चढ़िकय विदाह भेलाह। बाजा बाजि रहल अछि। शिवजी केँ देखिकय देवांगना लोकनि मुस्कुरा रहल छथि आर कहैत छथि जे एहि वर के योग्य दुलहिन संसार मे नहि भेटत।
४. विष्णु और ब्रह्मा आदि देवता लोकनिक समूह अपन-अपन वाहन (सवारी) पर चढ़िकय बरियाती मे चललाह। देवता लोकनिक समाज सब प्रकार सँ अनुपम (परम सुन्दर) छल, लेकिन दूल्हाक योग्य बरियाती नहि छल। तखन विष्णु भगवान सब दिक्पाल केँ बजाकय हँसिकय एना कहलखिन – सब कियो अपन-अपन दल समेत अलग-अलग भ’ कय चलू। हे भाई! हमरा लोकनिक ई बरियाती वर केर योग्य नहि अछि। कि दोसर नगर मे जाकय हँसी करबायब?
५. विष्णु भगवान केर बात सुनिकय देवता सब मुस्कुरेलाह आर ओ अपन-अपन सेना सहित अलग भ’ गेलाह। महादेवजी ई लीला देखिकय मने-मन मुस्कुरेलाह जे विष्णु भगवान केर व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) के आदति छुटैत नहि छन्हि। अपन प्यारा (विष्णु भगवान) केर एहि अति प्रिय वचन केँ सुनिकय शिवजी सेहो भृंगी केँ पठाकय अपन सारा गण सब केँ बजबा लेलनि। 
६. शिवजीक आज्ञा सुनिते देरी सब चलि अयलाह आर ओ स्वामीक चरण कमल मे सिर नमेलनि। तरह-तरह केर सवारी आ तरह-तरह के वेषवला अपन समाज केँ देखिकय शिवजी हँसलाह।
७. कियो बिना मुंहे के अछि, कियो बहुते रास मुंहवला, कियो बिना हाथ-पैर के अछि त केकरो कट टा हाथ-पैर छैक। केकरो बहुते आँखि छैक त केकरो एकहु टा आँखि नहि छैक। कियो बहुत मोटसोट अछि, कियो बहुत दुबर-पातर। 
छंद :
तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
कियो बहुत दुबर, कियो बहुत मोट, कियो पवित्र और कियो अपवित्र वेष धारण कयने अछि। भयंकर गहना पहिरने हाथ मे कपाल लेने अछि आर सब के सब शरीर मे ताजा खून लपेटने अछि। गधा, कुत्ता, सूअर और सियार जेहेन ओकर सभक मुखाकृति छैक। गण सभक अनगिनत वेष केँ के गानय? बहुतो प्रकारक प्रेत, पिशाच और योगिनि सभक जमाते अछि।। ओकर वर्णन करैत नहि बनैत अछि। 
८. भूत-प्रेत नाचैत और गाबैत अछि, ओ सब बड़ा मनमौजी अछि। देखय मे बहुते बेढंगा जेकाँ लगैछ आर बड़ा विचित्र ढंग सँ बजैत अछि। जेहेन दूल्हा छथि, आब ओहने बरियातियो बनि गेल अछि। बाट मे चलैत‍-चलैत भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशा) होइत जा रहल अछि। 
९. एम्हर हिमाचल एहेन विचित्र मण्डप बनेलनि जेकर वर्णन नहि भ’ सकैछ। जगत मे जतेक छोट-पैघ पर्वत छल, जिनकर वर्णन कयकेँ पार नहि लगैत अछि तथा जतेक वन, समुद्र, नदी आ तालाब छल, हिमाचल सबकेँ नोत-हकार पठौलनि। ओ सब अपन इच्छानुसार रूप धारण करयवला सुन्दर शरीर धारण कय सुन्दरी स्त्री और समाजक संग हिमाचलक घर पहुँचि गेल छथि। सब कियो स्नेह सहित मंगल गीत गबैत छथि।
१०. हिमाचल पहिनहि सँ बहुतो रास घर सजबौने रहथि। यथायोग्य ताहि स्थान पर सब कियो उतरि अयलाह। नगरक सुन्दर शोभा देखिकय ब्रह्माजीक रचना चातुर्य सेहो छोट बुझि पड़ैत अछि। 
छन्द :
लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
नगरक शोभा देखिकय ब्रह्माक निपुणता सचमुच तुच्छ लगैत अछि। वन, बगीचा, इनार, पोखरि, नदी सब सुन्दर अछि, ओकर वर्णन के कय सकैत अछि? घर-घर मे बहुतो तरहक मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताका सुशोभित भ’ रहल अछि। ओहिठामक सुन्दर आ चतुर स्त्री-पुरुष सभक छवि देखिकय मुनिगण लोकनिक मन पर्यन्त मोहित भ’ जाइत छन्हि। जाहि नगर मे स्वयं जगदम्बा अवतार लेलनि तेकर वर्णन भ’ सकैत अछि की? ओतय ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित्य-नया बढ़ैत जाइत अछि।
११. बरियाती नगरक नजदीक आबि गेल से सुनिते नगर मे चहल-पहल मचि गेल जाहि सँ ओकर शोभा बढ़ि गेल। अगवानी करबाक लेल लोक बनि-ठनिकय नाना प्रकारक सवारी सजाकय आदर सहित बरियाती केँ आनय विदाह भेलाह। देवता लोकनिक समाज केँ देखिकय सब मोनेमोन खूब प्रसन्न भेलाह और विष्णु भगवान केँ देखिकय त बहुते सुखी भेलाह, लेकिन जखन शिवजीक दल केँ देखय लगलाह तखन हुनका सभक वाहन (सवारी केर हाथी, घोड़ा, रथ केर बरद आदि) डराकय भागय लागल। 
१२. किछु बेसी उमेर केर समझदार लोक सब धीरज धयकय ओतय डटल रहलाह। धियापुता सब त अपन-अपन प्राण लय कय भागल। घर पहुँचिते माय-बाबू पुछलथि त ओ सब डरे थरथराइत बाजल – कि कहू, किछु कहल नहि जा रहल अछि। ई बरियाती छी या यमराजक सेना? दूल्हा पागल अछि और बरद पर सवार अछि। साँप, कपाल और भस्म (छाउर) ओकर गहना छैक। 
छन्द :
तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
दूल्हाक शरीर पर भस्म लपेटल अछि, साँप और मुण्डमालाक गहना अछि, ओ नंगटे, जटाधारी आ देखय मे भयंकर छथि। हुनका संग भयानक मुंहवला भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनी और राक्षस सब छन्हि, जे बरियाती देखिकय जियैत बचत तेकर सच्चे बड पैघ पुण्य छैक आर वैह सब पार्वतीक विवाहो देखत। धियापुता सब घरे-घर यैह बात कहलक। 
१३. महेश्वर (शिवजी) केर समाज बुझि सब बच्चाक माय-बाबू विहुँसैत छथि। ओ सब सेहो धियापुता केँ बुझबैत छथि जे निडर भ’ कय रहे, डरेबाक कोनो बात नहि छैक। 
१४. अगवान करनिहार बरियाती केँ आनि लेलनि, सब केँ नीक-नीक जनवासा मे ठहरा देलनि। मैना (पार्वतीक माय) शुभ आरती सजौलीह आर हुनका संग स्त्रिगण समाज उत्तम मंगलगीत गाबय लगलीह। सुन्दर हाथ मे सोनाक थार शोभित अछि, एहि तरहें मैना हर्षक संग शिवजी केँ परिछन करय चललीह। जखन महादेवजीक भयानक वेष मे देखलीह त सभ स्त्रिगणक मोन मे बड़ा भारी भय उत्पन्न भ’ गेलनि। बहुतो गोटे त डरक मारे भागिकय घर मे नुका गेलीह आर शिवजी जनवासा दिश चलि गेलाह। मैनाक हृदय मे बड़ा भारी दुःख भेलनि, ओ पार्वतीजी केँ अपना पास बजा लेलीह और अत्यन्त स्नेह सँ कोरा मे बैसाकर अपन नीलकमल समान आँखि मे नोर भरिकय कहलीह – जे विधाता तोरा एतेक सुन्दर रूप देलखुन ओ मूर्ख तोहर दूल्हा केँ बावला केना बनेलखुन?
छन्द :
कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
जे विधाता तोरा सुन्दरता देलाह, से तोरा लेल वर बावला केना बनौलनि? जे फल कल्पवृक्ष मे लगबाक चाही, ओ जबर्दस्ती बबूल मे लागि रहल अछि। हम तोरा लय कय पहाड़ सँ कूदि जायब, आगि मे जरि जायब या समुद्र मे कूदि जायब। चाहे घर उजड़ि जाय आ संसार भरि मे अपकीर्ति पसरि जाय, मुदा जीते जी हम एहि बावला वर सँ तोहर विवाह नहि करब। 
१५. हिमाचलक स्त्री (मैना) केँ दुःखी देखिकय सारा स्त्रिगण समाज व्याकुल भ’ गेलीह। मैना अपन कन्याक स्नेह केँ याद कयकेँ विलाप करैत कनैत छथि आर कहैत छथि – हम नारदक कि बिगाड़ने रहियनि, जे हमर बसल घर उजाड़ि देलनि आर जे पार्वती केँ एहेन उपदेश देलनि कि ओ एहि बावला वर लेल एतेक तपस्या कयलक। सचमुच हुनका न केकरो मोह छन्हि, न माया, न हुनका धन छन्हि, न घरे छन्हि आर न स्त्री छन्हि, ओ सबसँ उदासीन छथि। ताहि सँ ओ दोसरक घर उजाड़यवला बनि गेल छथि। हुनका न केकरो लाज आ न डर छन्हि। भले, बाँझ स्त्री प्रसव केर पीड़ा केँ कि जानत!
१६. माता केँ विकल देखिकय पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बजलीह – हे माता! जे विधाता रचि दैत छथि से टारला सँ नहि टरैत अछि, एना विचारिकय अहाँ चिन्ता मे जुनि पड़ू। जँ हमर भाग्य मे बावले पति लिखल छथि त किनको दोख कियैक लगायल जाय? कि विधाताक अंक अहाँ सँ मेटा सकैत अछि? वृथा कलंक केर टीका नहि लिअ।
छन्द :
जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
हे माता! कलंक जुनि लिअ, कननाय छोड़ू, ई अवसर विषाद करबाक नहि थिक। हमर भाग्य मे जे दुःख-सुख लिखल अछि, से हम जतय जायब, ओतय पायब! पार्वतीजीक एहेन विनय भरल कोमल वचन सुनिकय सब स्त्रिगण सोचय लगलीह आ भाँति-भाँति सँ विधाता केँ दोख दयकय आँखि सँ नोर बहबय लगलीह।
१७. ई सब समाचार सुनिते देरी हिमाचल नारदजी और सप्त ऋषि लोकनि केँ संग लय कय अपन घर गेलाह। तखन नारदजी पूर्वजन्म केर कथा सुनाकय सबकेँ बुझेलनि आ कहलखिन जे हे मैना! अहाँ हमर सत्य बात सुनू, अहाँक ई बेटी साक्षात जगज्जनी भवानी छथि। ई अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति थिकीह। सदा शिवजीक अर्द्धांग मे रहैत छथि। ई जगत केर उत्पत्ति, पालन और संहार करयवाली छथि और अपनहि इच्छा सँ लीला शरीर धारण करैत छथि। पहिने ई दक्ष ओतय जन्म लेलीह, तखन हिनकर नाम सती रहनि। बहुत सुन्दर शरीर पेने रहथि। तहियो सती शंकरजी सँ ब्याहल गेल छलीह। ई कथा समूचा संसार मे प्रसिद्ध अछि। एक बेर ई शिवजीक संग अबैत काल रघुकुल रूपी कमल केर सूर्य श्री रामचन्द्रजी केँ देखलीह, तखन हिनका मोह भ’ गेल छलन्हि आर ई शिवजीक कहब नहि मानि भ्रमवश सीताजीक वेष धारण कय लेलीह। 
छन्द :
सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥
सतीजी जे सीताक वेष धारण कयलीह ताहि अपराधक कारण शंकरजी हिनका त्यागि देलनि। फेर शिवजीक वियोग मे ई अपन पिताक यज्ञ मे जाकय ओतहि योगाग्नि सँ भस्म भ’ गेलीह। आ ई अहाँक घर मे जन्म लय कय अपन पति वास्ते कठिन तपस्या कयलीह अछि, ई सब बुझिकय अहाँ सन्देह छोड़ि दिअ, पार्वती जी त सदिखन शिवजीक प्रिया (अर्द्धांगिनी) छथि।
१८. तखन नारदजीक वचन सुनिकय सभक विषाद मेटा गेलनि आर क्षणहि भरि मे ई समाचार सारा नगर मे घरे-घर पसरि गेल। तखन मैना और हिमवान आनंद मे मग्न भ’ गेलाह आर बेर-बेर पार्वतीक चरण केर वंदना कयलथि। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर केर सब लोक बहुत प्रसन्न भेलाह। नगर मे मंगल गीत गायल जाय लागल आर सब कियो तरह-तरह के सुवर्ण कलश सजौलक। पाक शास्त्र मे जे सब रीति अछि ताहि मुताबिक अनेक तरहक भोजन बनायल गेल। 
१९. जाहि घर मे स्वयं माता भवानी रहैत होइथ, ओहि घरक भोजन सामग्रीक वर्णन केना कयल जा सकैत अछि? हिमाचल आदरपूर्वक सब बरियाती लोकनि, विष्णु, ब्रह्मा और सब जातिक देवता लोकनि केँ बजौलनि। भोजन कयनिहारक बहुतो पंक्ति बैसि गेल। बारिक सब भोजन परिकार परसय लगलथि। स्त्रिगणक मंडली सब देवता लोकनिक भोजन करैत समय मनोरंजनार्थ कोमल वाणी (गीत गाबिकय) गारि पढ़य लगलीह। 
छन्द :
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
सब सुन्दरी स्त्रिगण मीठ स्वर मे गारि दियए लगलीह आर व्यंग्य भरल वचन सुनबय लगलीह। देवगण विनोद सुनिकय बहुते सुखक अनुभव करैत छथि, एहि द्वारे भोजन करय मे खूब समय लगा रहल छथि। भोजनक समय जे आनंद बढ़ल से करोड़ों मुँह सँ पर्यन्त नहि कहल जा सकैत अछि। भोजन कय लेलाक बाद सब केँ हाथ-मुँह धुआकय पान देल गेलनि। फेर सब कियो, जे जतय ठहरल छलाह, ओतय चलि गेलाह। 
२०. मुनि लोकनि पुनः वापस आबि हिमवान्‌ केँ लगन (लग्न पत्रिका) सुनौलनि आर विवाहक समय देखिकय देवता सब केँ बजाहटि पठौलनि। सब देवता लोकनि केँ आदर सहित बजौलनि आर सब केँ यथायोग्य आसन देलनि। वेद केर रीति सँ वेदी सजायल गेल आर स्त्रिगण सुन्दर श्रेष्ठ मंगल गीत गाबय लगलीह। वेदिका पर एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन छल जेकर सुन्दरताक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि कियैक त ओ स्वयं ब्रह्माजी केर बनायल सिंहासन छल। ब्राह्मण लोकनि केँ सिर नमाकय आर हृदय मे अपन स्वामी श्री रघुनाथजी केँ स्मरण कय केँ शिवजी ओहि सिंहासन पर बैसि गेलाह। तखन मुनीश्वर लोकनि पार्वतीजी केँ बजेलनि। सखी सब श्रृंगार कय केँ हुनका लय एलीह। पार्वतीजीक रूप केँ देखिते देरी सब देवता मोहित भ’ गेलाह। संसार मे एहेन कवि के अछि जे ओहि सुन्दरता के वर्णन कय सकय?
२१. पार्वतीजी केँ जगदम्बा और शिवजीक पत्नी बुझिकय देवता लोकनि मनहि-मन प्रणाम कयलथि। भवानीजी सुन्दरताक सीमा छथि। करोड़ों मुँह सँ हुनक शोभाक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। 
छन्द :
कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
जगज्जननी पार्वतीजीक महान शोभाक वर्णन करोड़ों मुख सँ करैत नहि बनैछ। वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक ओ कहैत सकुचा जाइत छथि, तखन मंदबुद्धि तुलसी कोन गिनती मे छथि? सुन्दरता और शोभाक खान माता भवानी मंडप के बीच मे, जतय शिवजी छलाह, ओतय गेलीह। ओ संकोचक मारे पति (शिवजी) केर चरणकमल केँ देखि नहि सकथि, लेकिन हुनकर मनरूपी भौंरा त ओतहि (रसपान कय रहल) छल।