रामचरितमानस मोतीः कामदेवक देवकार्य लेल जायब आ भस्म होयब

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

कामदेवक देवकार्य लेल जायब आ भस्म होयब

ब्रह्माजी द्वारा निरूपित उपाय अनुसार देवता लोकनि कामदेव सँ अपन सब विपत्ति सुनेलनि। सुनिकय कामदेव मनहि मन विचार कयलथि आ हँसिकय देवता लोकनि सँ कहलखिन – यद्यपि शिवजीक समाधिस्थ अवस्था केँ भंग करब अर्थात हुनका सँ विरोध करय मे हमर कुशलता नहि अछि, तैयो हम अपने लोकनिक काज करब कियैक त’ वेद दोसरक उपकार केँ परम धर्म कहैत अछि।

१. जे दोसरक हित लेल अपन शरीर त्यागि दैत अछि, संत सदिखन ओकर बड़ाई करैत छथि। 

एतबा कहिकय सब केँ सिर नमबैत कामदेव अपन पुष्प केर धनुष हाथ मे लय कय (वसन्तादि) सहायक सभक संग चलि देलथि। चलैत समय कामदेव हृदय मे एना विचारलनि जे शिवजीक संग विरोध करय सँ हमर मरण निश्चित अछि। तैयो ओ अपन प्रभाव पसारलनि आर समस्त संसार केँ अपन वश मे कय लेलनि।
२. जाहि समय ओ माछक चिह्न वला ध्वजा रखनिहार कामदेव कोप कयलनि ताहि समय क्षणहि भरि मे वेद केर सब मर्यादा मेटा गेल। ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक केर सम्पूर्ण सेना डराकय भागि गेल। 
छंद :
भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
३. विवेक अपन सहायक लोकनिक संग भागि गेल। ओकर योद्धा रणभूमि सँ पीठ देखा गेल। ताहि समय ओ सब सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत केर कन्दरा मे जाय नुकायल। अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथ मे मात्र लिखल रहि गेल, ओकर आचरण छुटि गेल। पूरे जगत्‌ मे खलबली मचि गेल आर सब कहय लागल – हे विधाता! आब कि होइवला अछि? हमर रक्षा के करत? एहेन दुइ सिरवला के छथि जिनका लेल रति के पति कामदेव कोप कय केँ हाथ मे धनुष-बाण उठौलनि अछि?
४. जगत मे स्त्री-पुरुष संज्ञा वाला जतेक चर-अचर प्राणी छल ओ सब अपन-अपन मर्यादा छोड़िकय काम केर वश मे चलि गेल। सभक हृदय मे काम केर इच्छा आबि गेलैक। लता (बेल) केँ देखिकय वृक्ष केर डार्हि झुकय लागल। नदी सब उमड़ि-उमड़िकय समुद्र दिश दौड़य लागल आ ताल-तलैया सेहो आपस मे संगम करय लागल। 
५. जखन जड़ (वृक्ष, नदी आदि) केर एहेन दशा कहल गेल अछि तखन चेतन जीव केर करनी के कहि सकैत अछि? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरयवला सारा पशु-पक्षी (अपन संयोग केर) समय बिसरिकय काम केर वश मे भ’ गेल। सब लोक कामान्ध भ’ व्याकुल भ’ गेल। चकवा-चकवी राति-दिन नहि देखैछ। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल, ई त सदिखने काम केर गुलाम थिक, यैह बुझैत हम एकर दशाक वर्णन नहि कयलहुँ। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान्‌ योगी सेहो कामक वश भ’ कय योगरहित या स्त्रीक विरही भ’ गेलाह।
छंद :
भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
जखन योगीश्वर और तपस्वी सेहो काम केर वश भ’ गेलाह, तखन पामर मनुष्य केर के कहय? जे समस्त चराचर जगत केँ ब्रह्ममय देखैत छथि, ओ आब ओकरा स्त्रीमय देखय लगलाह। स्त्रिगण सब संसार केँ पुरुषमय देखय लगलीह आर पुरुष ओकरा स्त्रीमय देखय लगलाह। दुइ घड़ी धरि सारा ब्राह्मण्ड केर अंदर कामदेव केर रचल गेल ई कौतुक (तमाशा) रहल।
५. कियो कतहु हृदय मे धैर्य नहि धारण कय सकल, कामदेव सभक मोन हरि लेलनि। श्री रघुनाथजी जिनकर रक्षा कयलथि मात्र वैह टा ताहि समय बचल रहलाह। दुइ घड़ी तक एहेन तमाशा भेल जाबत धरि कामदेव शिवजीक पास पहुँचि गेलाह। शिवजी केँ देखिकय कामदेव डरा गेलाह। तखन फेर सारा संसार जहिनाक तहिना स्थिर भ’ गेल। तुरंते सब जीव ओहिना सुखी भ’ गेल जेना कोनो मतवाला (नशा पिने) लोकक मद (नशा) उतरि गेलापर सुखी होइत अछि।
६. दुराधर्ष (जेकरा पराजित करब अत्यन्तहि कठिन छैक) और दुर्गम (जेकर पार पायब कठिन छैक) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुण सँ युक्त) रुद्र (महाभयंकर) शिवजी केँ देखिकय कामदेव भयभीत भ’ गेलाह। वापस लौटि जाय मे लाजक अनुभूति भ’ रहल छन्हि आर करितो किछु नहि बनैत छन्हि। आखिरकार मन मे मरबाक निश्चय कय केँ ओ उपाय रचलनि। तुरंते सुन्दर ऋतुराज वसन्त केँ प्रकट कयलनि। फुलायल नव‍-नव गाछक कतार सुशोभित भ’ गेलैक। वन-उपवन, पोखैर-झाँखैर आ सब दिशा केर विभाग परम सुन्दर भ’ गेलैक। जतय-ततय मानू प्रेम उमड़ि रहल छल जे देखिकय मरलो मोन मे कामदेव जागि उठलाह। 
छंद :
जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
मरलो मोन मे कामदेव जागय लगलाह। वनक सुन्दरता कहल नहि जा सकैछ। कामरूपी अग्नि केर सुच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगंधित पवन चलय लागल। सरोवर मे अनेकों कमल फुला गेल जाहि पर सुन्दर भौंराक समूह गुंजार करय लागल। राजहंस, कोयल और तोता रस सँ भरल बोली बाजय लागल आर अप्सरा लोकनि गाबि-गाबिकय नाचय लगलीह।

७. कामदेव अपन सेना समेत करोड़ों प्रकारक सब कला (उपाय) कय केँ हारि गेलथि, धरि शिवजीक अचल समाधि नहि डिगल। तखन कामदेव क्रोधित भ’ उठलाह। आमक गाछ केर एक सुन्दर ठार्हि देखिकय मोन मे क्रोध सँ भरल कामदेव ओहिपर चढ़ि गेलाह। ओ पुष्प धनुष पर अपन (पाँचो) बाण चढ़ेलनि आर अत्यन्त क्रोध सँ (लक्ष्य दिश) ताकिकय ओ कान तक खींचि लेलनि। कामदेव ओ तीक्ष्ण पाँचो बाण छोड़लनि जे शिवजी केँ हृदय मे लगलनि। तखन हुनकर समाधि टुटि गेलनि आर ओ जागि गेलाह।
८. ईश्वर (शिवजी) केर मन मे बड़ा क्षोभ भेलनि। ओ आँखि खोलिकय चारूकात तकलाह। जखन आमक पत्ता मे नुकायल कामदेव केँ देखलनि त हुनका बड़ा भारी क्रोध भेलनि जाहि सँ तीनू लोक काँपि उठल। तखन शिवजी तेसर नेत्र खोलि देलनि, हुनका देखिते देरी कामदेव जरिकय भस्म भ’ गेलाह। 
९. जगत भरि मे बड़ा हाहाकर मचि गेल। देवता डरा गेलाह। दैत्य सुखी भेल। भोगी लोक कामसुख केँ याद कय केँ चिन्ता करय लागल आर साधक योगी निष्कंटक भ’ गेलाह। 
छंद :
जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
योगी निष्कंटक भ’ गेलाह। कामदेव केर स्त्री रति अपन पतिक ई दशा सुनितहि मूर्च्छित भ’ गेलीह। कानैत-खिझैत और भाँति-भाँति सँ करुणा करिते ओ शिवजी लग गेलीह। अत्यन्त प्रेमक संग अनेकों प्रकार सँ विनती कय केँ हाथ जोड़िकय सामने ठाढ़ भ’ गेलीह। शीघ्रहि प्रसन्न भेनिहार कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्री) केँ देखिकय सुन्दर (ओकरा सान्त्वना दयवला) वचन बजलाह।