रामचरितमानस मोतीः श्री सीताराम-धाम-परिकर वन्दना

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

 

९. श्री सीताराम-धाम-परिकर वन्दना

रामायणरूपी महाकाव्य केर रचना करबाक अगम-अथाह कार्य केँ शुरू करबा सँ पहिने महाकवि तुलसीदास द्वारा वन्दना करबाक क्रम जारी अछि। आइ श्रीसीताराम-धाम परिकर केर वन्दना प्रस्तुत अछि।

 
१. हम अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग केर पाप सब केँ नाश करयवाली श्री सरयू नदी केर वन्दना करैत छी। फेर अवधपुरीक ओहि नर-नारी लोकनि केँ प्रणाम करैत छी जिनका सबपर प्रभु श्री रामचन्द्रजीक ममता अत्यधिक छन्हि। ओ अपन पुरी मे रहनिहार सीताजीक निंदा करयवला धोबी और ओकर समर्थक पुरे-नर-नारी केर पाप समूह केँ नाश कय हुनका शोकरहित बनाकय अपनहि लोक (धाम) मे बसा देलाह।
 
२. हम कौशल्या रूपी पूर्व दिशा केर वन्दना करैत छी जिनकर कीर्ति समस्त संसार मे पसैर रहल अछि। जतय (कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) सँ विश्व केँ सुख दयवला और दुष्ट रूपी कमल वास्ता पाला (ओस) समान श्री रामचन्द्रजी रूपी सुन्दर चंद्रमा प्रकट भेलथि।
 
३. सब रानी सहित राजा दशरथजीक पुण्य और सुन्दर कल्याणक मूर्ति मानिकय हम मन, वचन और कर्म सँ प्रणाम करैत छी। अपन पुत्र केर सेवक जानिकय ओ हमरा पर कृपा करथि, जेकरा रचिकय ब्रह्माजी सेहो बड़ाई प्राप्त कयलनि तथा जे श्री रामजीक माता और पिता हेबाक कारण महिमाक सीमा छथि।
 
४. हम अवध केर राजा श्री दशरथजीक वन्दना करैत छी, जिनका श्री रामजीक चरण मे सत्य प्रेम छन्हि, जे दीनदयालु प्रभु केर बिछुड़िते अपन प्रिय शरीर केँ मामूली तिनका समान त्यागि देलनि।
 
५. हम परिवार सहित राजा जनकजी केँ प्रणाम करैत छी जिनकर श्री रामजीक चरण मे गूढ़ प्रेम छलन्हि, जेकरा ओ योग और भोग मे नुकाकय रखने रहथि, लेकिन श्री रामचन्द्रजी केँ देखिते देरी ओ प्रकट भ’ गेलैक।
 
६. भाइ लोकनि मे सबसँ पहिने हम श्री भरतजीक चरण केँ प्रणाम करैत छी, जिनकर नियम और व्रत केर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि तथा जिनकर मन श्री रामजीक चरणकमल मे भौंरा जेकाँ लोभायल रहैत अछि, कखनहुँ हुनकर सामीप्यता केँ नहि छोड़ैत अछि।
 
७. पुनः हम श्री लक्ष्मणजीक चरण कमल केँ प्रणाम करैत छी, जे शीतल सुंदर और भक्त लोकनि केँ सुख दयवला अछि। श्री रघुनाथजीक कीर्ति रूपी विमल पताका मे जिनकर यश पताका केँ ऊँच धरि फहराबयवला दंड केर समान बनल। जे हजार सिरवला और जगत केर कारण यानि हजार सिर पर जगत केँ धारण कय केँ राखयवला शेषजी छथि, जे पृथ्वीक भय दूर करबाक लेल अवतार लेलनि, ओ गुणक खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी हमरा पर सदिखन प्रसन्न रहथि।
 
८. तहिना हम श्री शत्रुघ्नजीक चरणकमल केँ प्रणाम करैत छी, जे अत्यन्त वीर, सुशील और श्री भरतजीक पाछू चलयवला छथि।
 
९. हम महावीर श्री हनुमानजी केर विनती करैत छी, जिनकर यश केँ श्री रामचन्द्रजी द्वारा स्वयं अपनहि श्रीमुख सँ वर्णन कयल गेल अछि। हम पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी केँ प्रणाम करैत छी, जे दुष्ट रूपी वन केँ भस्म करबाक लेल अग्निरूप छथि, जे ज्ञान केर घनमूर्ति छथि और जिनकर हृदय रूपी भवन मे धनुष-बाण धारण कयने श्री रामजी निवास करैत छथि।
 
१०. वानर केर राजा सुग्रीवजी, रीछ केर राजा जाम्बवानजी, राक्षस केर राजा विभीषणजी तथा अंगदजी आदि जतेक वानर केर समाज अछि, सभक सुन्दर चरण केर हम वन्दना करैत छी, जे अधम (पशु और राक्षस आदि) शरीर मे सेहो श्री रामचन्द्रजी केँ प्राप्त कय लेलाह।
 
११. पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जे सब श्री रामजीक चरण केर उपासक छथि, हम हुनका सभक चरणकमल केर वन्दना करैत छी जे श्री रामजीक निष्काम सेवक छथि।
 
१२. शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जतेक भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि छथि, हम धरती पर माथा रोपिकय हुनका सब केँ प्रणाम करैत छी। हे मुनीश्वर लोकनि! अपने सब हमरा अपन दास जानिकय कृपा करी।
 
१३. हम राजा जनक केर पुत्री, जगत केर माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजीक प्रियतमा श्री जानकीजी केर दुनू चरण कमल केँ मनबैत छी, जिनकर कृपा सँ निर्मल बुद्धि पाबी।
 
१४. फेर हम मन, वचन और कर्म सँ कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्त लोकनिक विपत्ति केँ नाश करय आर हुनका सुख दयवला भगवान्‌ श्री रघुनाथजी केर सर्व समर्थ चरणकमल केर वन्दना करैत छी।
 
१५. जे वाणी और ओकर अर्थ तथा जल और जल केर लहरि के समान कहय मे अलग-अलग छथि, मुदा वास्तव मे अभिन्न (एक्के) छथि, ताहि श्री सीतारामजीक चरणक हम वंदना करैत छी, जिनका दीन-दुःखी बहुते प्रिय छन्हि।
 
हरिः हरः!!