स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
५. रामरूप सँ जीवमात्र केर वंदना
रामचरितमानस मोती अन्तर्गत मंगल आचरण माने कोनो कार्यारम्भ पूर्व विनीत स्वर (वचन) सँ अपन इष्टदेव, गुरुदेव, श्रेष्ठजन आदि केँ प्रणाम करबाक क्रम मे छी। तुलसीदासजी सर्वप्रथम परमपिता परमात्मा केँ विनय करैत गुरुजन, ब्राह्मण, संत, असंत आदि केँ प्रणाम कयलनि अछि। आर आजुक जे शीर्षक अछि ‘रामरूप सँ जीवमात्र केर वंदना’, ई स्वयं कहि रहल अछि जे सम्पूर्ण जगत आ जतेक दृश्य-अदृश्य स्थिति-प्रकृति देखि रहल छी ई सबटा स्वयं परमपिताक स्वरूप थिकन्हि, यानि रामरूप अछि। जनता केँ जनार्दन बुझबाक बात हो, कण-कण मे भगवान केँ देखबाक बात हो, हर जीव मे ईश्वर मात्र केर दर्शन हो, एहि सब लोकप्रचलित सिद्धान्त अनुसार सेहो प्रस्तुत विषय सभक लेल मननीय अछि।
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥
१. जगत मे जतेक जड़ और चेतन जीव अछि, सब केँ राममय जानिकय सभक चरणकमल केँ सदिखन दुनू हाथ जोड़िकय वन्दना करबाक चाही।
२. देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सब केँ राममय बुझि प्रणाम करबाक चाही, सभक कृपा हमरा सब केँ चाही।
३. चौरासी लाख योनि मे चारि प्रकार केर – स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज – सब जीव जल, पृथ्वी आ आकाश मे रहैत अछि, ताहि सब सँ भरल एहि सम्पूर्ण जगत केँ श्रीसीताराममय जानिकय प्रणाम करबाक चाही।
एतय जहिना तुलसीदासजीक पवित्र भाव छन्हि यैह भाव मे जँ हम विवेकवान मनुष्य सेहो अपन दिनचर्या राखब त एकर बड पैघ लाभ अपन-अपन जीवन मे जरूर प्राप्त करब।
हरिः हरः!!