कथा
– ज्योति झा, जनकपुरधाम
हरियाक गन्दा मोजा
परिवर्तन अन्तःमन सँ होयब जरूरी! मानव मे कोनो परिवर्तन अन्तःमन सँ होयबाक जरूरत होइत छैक। नाटकीय परिवर्तन असलियत केँ एक न एक दिन देखार कय दैत छैक। एहि बातक एकटा छोटछिन उदाहरण कथाशैली मे प्रस्तुत करय चाहबः
एक विद्यालय के एक मास्टरजी बच्चा सबकेँ पढबैत छलाह। कक्षामे बच्चा सब कखनो नाक सिकुड़य त कखनो मन ओकियाइत देखबय छल। मास्टरजी पुछलैथ एना किया क’ रहल छेँ सबगोटे? त एकटा बच्चा टुप्प सँ बाजल जे केकरो मोजा गन्हाइत छैक। तहन मास्टरजी केँ सेहो रहल नै गेलैन। ओ कहलखिन, “हे! सबगोटे काइल सँ सफा मोजा पहिरिकय आबिहें।” सब कियो हँ मे मुरी डोलेलक। काइलभेने सब कक्षा मे आयल। पढाई शुरू भेल। फेर सब बच्चा, कियो नाक सिकुड़ाबय, कियो उल्टी करब से कहय लागल। मास्टरजी कहलैथ, “सब कियो अपन-अपन जुत्ता खोल आ मोजा देखो। काइल कहलियौ से केकरो दिमागमे नै घुसलौ?” सब डरे मोजा देखाबय लागल। मुदा केकरो मोजा गन्दा नै छल।
मास्टर जी चिन्तित भेला आ पुछला, “सबके सफे छौक त गन्ध कतय सँ आबैत छैक?” तहने एकटा बच्चा कहलक, “मास्टरजी, हरियाके जेबीमे सँ।” मास्टरजी हरिया के कहलैथ, “रे! जेबी मे कि छौक?” हरिया कहलक, “गन्दा मोजा!”, मास्टरजी कहलैथ, “रे पपियहवा! सफा मोजा पहिरने छेँ तहन किया गन्दा अनलिहिन?” हरिया कहलक, “अहाँ गन्दा मोजा पहिरय नै कहलियैक, से हम त सफा पहिरनहिये छी। मुदा जेबीमे इहो (गन्दा मोजा) गलती सँ रखा गेल।”