रामचरितमानस मोतीः दुष्टक वन्दना

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

 

३. दुष्ट लोकक वन्दना

 
महाकवि तुलसीदास जखन रामचरितमानस जेहेन महाकाव्यक रचना करब आरम्भ कयलनि त ओ सर्वप्रथम देवता लोकनि केँ निहोरा-पाती करैत गुरु केँ निहोरा कयलनि, पुनः ब्राह्मण आ संत सब केँ निहोरा कयलनि आ आब नम्बर अछि शत्रु प्रवृत्तिक दुष्ट सभक। आउ देखी महाकविक भाव केहेन छन्हि, हम ई सब मोती चुनिकय राखि रहल छीः
 
महाकवि कहैत छथि जे आब हम सत्य भाव सँ दुष्ट लोकनि केँ प्रणाम करैत छी जे बिना प्रयोजनहु केँ अपने हित करनिहारक पर्यन्त प्रतिकूल आचरण करैत छथि। दोसरक हित केर हानिये जेकर दृष्टि मे लाभ हो, जेकरा दोसर केँ उजाड़य मे हर्ष और बसाबय मे विषाद होइत हो, जे हरि और हर केर यशरूपी पूर्णिमाक चन्द्रमा लेल राहु केर समान अछि (अर्थात् जतय कतहु भगवान विष्णु या शंकर केर यश केर वर्णन होइत अछि ताहि मे बाधा दैत अछि) आर दोसर लोकक बुराई करय मे सहस्रबाहुक समान वीर अछि, जे दोसरक दोख केँ हजार आँखि सँ देखैत अछि और दोसरक हितरूपी घी केर लेल जेकर मन ‘माछी’ केर समान अछि (अर्थात्‌ जेना माछी घी मे खसिकय ओकरा खराब कय दैत छैक आर स्वयं अपने सेहो मरि जाइत अछि, तहिना दुष्ट लोक दोसरक बनल-बनायल काज केँ अपनो हानि कय केँ बिगाड़ो दैत छैक), जे तेज (दोसर केँ जरबयवला ताप) मे अग्नि और क्रोध मे यमराज केर समान अछि, पाप और अवगुण रूपी धन मे कुबेर केर समान धनी अछि, जेकर वृद्धि सभक हित केर नाश करबाक लेल केतु (पुच्छल तारा) केर समान छैक और जेकर कुम्भकर्ण जेकाँ सुतले रहय मे मात्र भलाई छैक, जे ओला (बर्फ) खेती केर नाश कय केँ अपने सेहो गलि जाइत अछि, तहिना ओ दोसरक काज बिगाड़बाक लेल अपन शरीर तक छोड़ि दैत अछि, हम ओहि दुष्ट सब केँ (हजार मुख वाला) शेषजी केर समान बुझिकय प्रणाम करैत छी।
 
उपरोक्त प्रार्थना मे दुष्टक जे सब रूप, स्वरूप, परिभाषा भेटल तेकर अतिरिक्त दुष्टक पहिचान लेल महाकवि जी कहलनि अछिः
 
१. दुष्ट पराया दोष केँ हजारों मुंह सँ बड़ा रोष केर संग वर्णन करैत अछि।
 
२. दुष्ट केँ राजा पृथु (जे भगवान केर यश सुनबाक लेल दस हजार कान मंगने रहथि) केर समान प्रणाम करैत छी जे दस हजार कान सँ दोसरक पाप सब केँ सुनैत अछि।
 
३. दुष्ट इन्द्र केर समान मानिकय विनय करय योग्य अछि जिनका सुरा (मदिरा) नीक और हितकारी बुझि पड़ैत छैक, इन्द्र केर लेल सेहो सुरा नीक अर्थात्‌ देवता लोकनिक सेनाक हितकारी बुझल जाइत छन्हि आ हुनका कठोर वचन रूपी वज्र सदिखन प्रिय लगैत छन्हि आर ओ हजारों आँखि सँ दोसरक दोख केँ देखल करैत छथि।
 
४. दुष्ट लोकनिक यैह रीति छैक जे ओ उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, केकरो हित सुनिकय जरैत अछि। से जानिकय दुनू हाथ जोड़िकय प्रेमपूर्वक ओकर विनय करैत छी।
 
५. हम सब अपना दिश सँ विनती कयलहुँ मुदा तैयो ओ सब अपना दिश सँ कहियो बिगाड़य के काज करय सँ नहि चूक करत। कौआ केँ बड़ा प्रेम सँ पोसू मुदा ओ कि कहियो मांस केर त्यागी भऽ सकैत अछि?
 
हरिः हरः!!