स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
बालकाण्ड मंगलाचरण एवं गुरुक महत्व
अपन स्वाध्याय केर क्रम मे तुलसीकृत रामचरितमानस रूपी सागर सँ हमरा जे सब मोती रूप मे प्राप्त भेल से विभिन्न शीर्षक मे बांटिकय अपने सभक बीच राखि रहल छी। आशा करैत छी जे मैथिली मे ई निचोड़ अहाँ सब केँ सेहो पसीन पड़त आ ई विश्वास अछि जे एकर पैघ लाभ मानव संसार केँ जरूर भेटत। हम स्वयं एहि बातक उदाहरण छी, अपन जीवनक संघर्ष मे रामचरितमानस केर स्वाध्याय आ एहि सँ प्राप्त गूढ़ ज्ञान हमरा अपन भविष्य निर्माणक संग जीवन संचालन मे बड पैघ मदति कएने अछि, कय रहल अछि।
प्रथम सोपान-मंगलाचरण
श्लोक :
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥
अक्षर, अर्थ समूह, रस, छन्द आ मंगल करयवाली सरस्वतीजी और गणेशजीक हम वन्दना करैता छी।
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
श्रद्धा आर विश्वास केर स्वरूप श्री पार्वतीजी आ श्री शंकरजीक हम वन्दना करैत छी, जिनका बिना सिद्धजन अपन अन्तःकरण मे स्थित ईश्वर केँ नहि देखि सकैत छथि।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥
ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरुक हम वन्दना करैत छी, जिनकर आश्रित भेला सँ मात्र टेढ़ चन्द्रमा सेहो सर्वत्र वन्दित होइत छथि।
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥
श्री सीतारामजीक गुणसमूह रूपी पवित्र वन मे विहार करयवला, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी आ कपीश्वर श्री हनुमानजीक हम वन्दना करैत छी।
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥
उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करयवाली, क्लेश सब हरयवाली तथा सम्पूर्ण कल्याण करयवाली श्री रामचन्द्रजीक प्रियतमा श्री सीताजी केँ हम नमस्कार करैत छी।
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥
जिनकर मायाक वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता आ असुर छथि, जिनकर सत्ता सँ रस्सी मे साँपक भ्रम जेकाँ ई सारा दृश्य जगत् सत्ये प्रतीत होइत अछि आर जिनकर केवल चरण टा भवसागर सँ तरबाक इच्छावला लेल एकमात्र नाव अछि, ओहि समस्त कारण सब सँ उपर (सब कारणहु केर कारण आ सब सँ श्रेष्ठ) राम कहायवला भगवान् हरि केर हम वन्दना करैत छी।
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥७॥
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥७॥
अनेक पुराण, वेद आर तंत्र शास्त्र सँ सम्मत तथा जे रामायण मे वर्णित अछि आर किछ-किछ आनहु ठाम सँ उपलब्ध श्री रघुनाथजीक कथा केँ तुलसीदास अपन अन्तःकरणक सुख वास्ते अत्यन्त मनोहर भाषा रचना मे विस्तृत करैत छथि।
सोरठा :
जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥१॥
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥१॥
जिनका स्मरण कयला सँ सब काज सिद्ध होइत अछि, जे गण केर स्वामी आ सुन्दर हाथीक मुंहवला छथि, वैह बुद्धिक राशि आ शुभ सभक धाम (श्री गणेशजी) हमरा उपर कृपा करथि।
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥२॥
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥२॥
जिनकर कृपा सँ गूँगा बहुते सुन्दर बाजयवला भ’ जाइत अछि आ लँगड़ा-लूल्हा दुर्गम पहाड़ पर चढ़ि जाइत अछि, ओ कलियुगक सब पाप केँ जरा दयवला दयालु (भगवान्) हमरा उपर द्रवित होइथ, दया करथि।
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥३॥
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥३॥
जे नीलकमलक समान श्यामवर्ण छथि, पूर्ण खिलल लाल कमलक समान जिनकर नेत्र छन्हि आ जे सदैव क्षीरसागर पर शयन करैत छथि, से भगवान् (नारायण) हमर हृदय मे निवास करथि।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥४॥
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥४॥
जिनकर कुन्द केर पुष्प आर चन्द्रमाक समान (गौर) शरीर छन्हि, जे पार्वतीजीक प्रियतम आर दयाक धाम छथि आ जिनकर दीन सब पर स्नेह अछि, से कामदेव केर मर्दन करयवला (शंकरजी) हमरा पर कृपा करथि।
१. गुरुक महत्व
जहिना मंगलाचरण रूपी प्रारम्भिक भाग मे श्रीतुलसीदासजी सरस्वती आ गणेशजीक वन्दना करैत भगवान् नारायण आ शंकर केँ, भगवती सीता आ पार्वती केँ स्मरण करैत सिद्ध कयलनि अछि जे कोनो महत्वपूर्ण कार्य केँ आरम्भ करबाक समय मे परमाधिपति परमेश्वर केँ आत्मसात करैत शुरू करू त सिद्धि भेटत, तहिना आब गुरुक महत्ता केँ नीक सँ बुझैत ओ हमरा सब केँ गुरु प्रति कोन भाव मे समर्पित रहब से बतेलनि अछि। देखू विलक्षणता एहि सुन्दर मोती केरः
१. गुरु बिना ज्ञान नहि – एहि सूत्र केँ प्रत्येक मनुष्य केँ बुझबाक चाही।
२. गुरु महाराजक चरणकमलक रज अर्थात् चरणधुलि केर वन्दना करैत तुलसीदास रामचरितमानस जेहेन महान कार्य केँ आरम्भ कयलनि अछि। ओ लिखलनि अछि –
“हम गुरुक चरणकमलक रजकण केर वन्दना करैत छी, जे सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस सँ पूर्ण अछि। ओ अमर मूल (संजीवनी जड़ी) केर सुंदर चूर्ण थिक, जे सम्पूर्ण भव रोग (सांसारिक बीमारी) सभक परिवार केँ नाश करयवला अछि। ओ रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी केर शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति थिक और सुंदर कल्याण तथा आनन्द केर जननी थिक, भक्त केर मन रूपी सुंदर दर्पण केर मैल केँ दूर करयवला और तिलक कयला सँ गुणक समूह केँ वश मे करयवला होइछ।”
३. श्री गुरु महाराज केर चरण-नख केर ज्योति मणि केर प्रकाशक समान होइछ, जेकर स्मरण करिते हृदय मे दिव्य दृष्टि उत्पन्न भ’ जाइत अछि। ओ प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार केँ नाश करयवला होइत अछि, ओ जेकर हृदय मे आबि जाइता अछि, ओकर बड पैघ भाग्य छैक। ओ हृदय मे अबिते हृदयक निर्मल नेत्र खुलि जाइत छैक और संसाररूपी रात्रिक दोष-दुःख मेटा जाइत छैक एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जतय जे कोनो खान मे छैक, सबटा देखाय लगैत छैक। जेना सिद्धांजन केँ आँखि मे लगाकय साधक, सिद्ध और सुजान पर्वत, वन और पृथ्वीक अंदर खेलहि खेल मे बहुतो तरहक खान सब देखैत अछि, ठीक तहिना गुरुक चरण-नखकेर ज्योति केँ हृदय मे अनला सँ अदृश्य वस्तु स्वतः आ सहजहि दृष्टिगोचर होमय लगैत अछि।
४. “श्री गुरु महाराज केर चरणक रजकण कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन थिक, जे नेत्रक दोख सब केँ नाश करयवला होइछ। ओहि अंजन सँ विवेक रूपी आँखि केँ निर्मल कय केँ हम संसाररूपी बंधन सँ छोड़ेनिहार श्री रामचरित्र केर वर्णन करैत छी।” तुलसीदासजीक ई भाव स्वतःस्फूर्त गुरुक महत्ता केँ स्थापित कय रहल अछि।
ई बुझय योग्य विषय थिक जे हमहुँ सब बिना गुरुक कृपा सँ जीवनरूपी भवसागर केँ सहजता सँ नहि पार पायब। गुरुजन प्रति हमेशा श्रद्धा आ आस्था राखू।
हरिः हरः!!