अहुँ केँ चाही सोना?

नैतिक कथा

– उपनिषद्

(अनुवाद: प्रवीण नारायण चौधरी)

कोनो जंगल मे एकटा स्वर्णशिला पड़ल छल। दुइ गोट घुड़सवार ओतय आबि गेल। चूंकि दुनू गोटा एक्के समय पहुंचल छल, ताहि हेतु दुनू ओहि स्वर्णशिला पर अपन-अपन अधिकार जतौलक। पहिले वाक् युद्ध भेलैक और अंततः तलवार खिंचा गेलैक। क्षणे भरि पहिल तक दुनू एक-दोसर केँ जानितो तक नहि छल। दुनू गोटाक मन निर्द्वंद्व छलैक। मुदा स्वर्णशिलाक लोभ दुनू केँ एक-दोसराक दुश्मन बना देलक। कनियेकाल मे तलवारो एक-दोसराक आर-पार भऽ गेल। दुनू नौजवान ओतहि ढेर भऽ गेल।

कनीकालक बाद ओहि राह पर एकटा महात्मा एला। ओहो स्वर्णशिला देखिकय चमत्कृत भऽ गेला। बिसैर गेल कि ओ त्यागी-तपस्वी छथि। स्वर्ण केर चमक मे हुनका नौजवानक शव तक नहि देखौलनि। ओ युक्ति लगाबय लगला जे कोना ओहि शिला केँ उठाकय अपन झोपड़ी मे पहुंचाबथि। तखनहि ओतय छह टा चोर आबि गेल। महात्मा ओहि चोर सब सँ कहलनि कि ओ सब शिला केँ हुनकर झोंपड़ी तक पहुंचा देत तऽ ओ ओकरा सबकेँ पर्याप्त धन देता। चोर हँसलक आ बाजल – हम सब अहीं केँ ऊपर पहुंचा दैत छी, फेर तऽ सबटा धन हमरे सबहक भऽ जायत। चोर सब ओहिना केबो केलक।

चोर सब आपस मे निर्णय केलक जे ओ सब ओहि शिला केर छह खंड करैत बांटि लेत, मुदा समस्या भेलैक जे शिला केर छह खंड करय कोना? अंत मे ओ सब एकटा सोनार लंग पहुंचल। सोनार सँ ओ सब कहलक जे ओ ओहि शिलाक छह खंड कय दियऽ, ओकरा यथोचित पारिश्रमिक देल जायत। चोरक बात सुनिकय सोनारो केँ लोभ आबि गेल। ओ पूरा शिला अपने हजम करबाक लेल ललचा उठल। ओ चोर संग चलबा सँ पूर्व छह टा लड्डू तैयार केकज और ओहिमे विष मिला देकज। तेकर बाद ओहि लड्डू केँ संग मे राखि ओ ओहि चोरबा सबहक संग जंगल मे पहुंचि गेल।

ओ कहलकैक – भाइ! पहिले किछु खा ले, बाद मे काज करब। चोर सब कहलकैक जे पहिले काज भऽ जाय। आखिर सोनार ओहि स्वर्ण शिला केर छह खंड कय देलक। छहो चोर एक-एक टा स्वर्ण खंड लऽ लेलक। सोनार अपन पारिश्रमिक मांगलक तऽ चोर ओकरो वध कय देलक। फेर चोर सब सोचलक जे प्रस्थान सँ पूर्व किछु खा लेल जाय। ओ सब सोनार द्वारा लायल ओहि लड्डू केँ खा गेल। लड्डू खाइते देरी ओकरो सबहक वैह दशा भेलैक जे पहिले दुनू युवक, महात्मा और सोनारक भेल छलैक। स्वर्णशिला लोभ केर प्रतीक छल। जे कियो ओकरा अपन बनेबाक लेल सोचलक, वैह चलि बसल। जतय लोभ पैदा होइत छैक ओतहि विनाश जागि जाइत छैक।