जानकी स्तोत्र
नीलनीरज-दलायतेक्षणां लक्ष्मणाग्रज भुजावलम्बिनीम्।
शुद्धिमिद्धदहने प्रदित्सतीं भावये मनसि रामवल्लभाम्॥१॥
नीलकमल दल केर सदृश जिनक नेत्र छन्हि, जे लक्ष्मण जीक अग्रज (जेठ भाइ) श्रीराम केर भुजाक अवलम्बन थिकीह, जे प्रज्वलित अग्नि मे अपन पवित्रताक परीक्षा दियए चाहैत छथि, ओहि रामप्रिया श्रीसीता माता केर हम मनहि-मन मे भावना (ध्यान) करैत छी॥१॥
रामपाद-विनिवेशितेक्षणामङ्ग-कान्तिपरिभूत-हाटकाम्।
ताटकारि-परुषोक्ति-विक्लवां भावये मनसि रामवल्लभाम्॥२॥
जिनकर नेत्र श्रीराम जीक चरण दिश निश्चल रूप सँ टिकल रहैत अछि, जे अपन अङ्गकान्ति सँ सुवर्ण केँ मात कय देने छथि तथा ताटकाक वैरी श्रीरामजीक (दुष्ट सभक प्रति कहल गेल) कटु वचन सँ विकल भेल छथि, ताहि श्रीरामजीक प्रेयसी श्रीसीता माँ केर हम मनहि मे भावना (ध्यान) करैत छी॥२॥
कुन्तलाकुल-कपोलमाननं राहुवक्त्रग-सुधाकरद्युतिम्।
वाससा पिदधतीं हियाकुलां भावये मनसि रामवल्लभाम्॥३॥
जे लाज सँ आकुल भेल अपन ओहि मुंह केँ, जेकर कपोल हुनकर बिखरल केश सँ आवृत अछि, मानू जेना चन्द्रमा राहु द्वारा ग्रसल गेला पर अंधकार सँ आवृत्त भेल हो, तेकरा अपन आँचर (वस्त्र) सँ झाँपि रहल छथि, ताहि राम-पत्नी सीताजीक हम मनहि मे भावना (ध्यान) करैत छी॥३॥
कायवाङ्मनसगं यदि व्यधां स्वप्नजागृतिषु राघवेतरम्।
तद्दहाङ्गमिति पावकं यतीं भावये मनसि रामवल्लभाम्॥४॥
जे मोने-मोन ई कहैत जे जँ हम श्रीरघुनाथ जीक अतिरिक्त कियो दोसर केँ अपन शरीर, वाणी अथवा मोनहु मे कहियो स्थान देने होइ त हे अग्ने! हमर शरीर केँ जरा दी कहिकय अग्नि मे प्रवेश कय गेलीह, ताहि श्रीरामजीक प्राणप्रिया सीताजी केँ हम मनहि मे भावना (ध्यान) करैत छी॥४॥
इन्द्ररुद्र-धनदाम्बुपालकैः सद्विमान-गणमास्थितैर्दिवि।
पुष्पवर्ष-मनुसंस्तुताङ्घ्रिकां भावये मनसि रामवल्लभाम्॥५॥
उत्तम विमान मे बैसल इंद्र, रुद्र, कुबेर और वरुण द्वारा पुष्पवृष्टि केर अनंतर जिनकर चरणक खूब नीक सँ (भलीभाँति) स्तुति कयल गेल अछि, ताहि श्रीरामक प्यारी पत्नी श्रीसीता माता केँ हम मनहि मे भावना (ध्यान) करैत छी॥५॥
संचयैर्दिविषदां विमानगैर्विस्मयाकुल-मनोऽभिवीक्षिताम्।
तेजसा पिदधतीं सदा दिशो भावये मनसि रामवल्लभाम्॥६॥
(अग्नि-शुद्धिक समय) विमान मे बैसल रहल देवगण विस्मयविष्ट चित्त सँ जिनका दिश देख रहल छल और जे अपन तेज सँ दसो दिशा केँ आच्छादित कय रहल छल, ओहि रामवल्लभा श्रीसीता माँ केर हम मनहि मे भावना (ध्यान) करैत छी॥६॥
इति जानकीस्तोत्रं समाप्तम्॥