मैथिलसाम्प्रदायिक श्री दुर्गासप्तशती-१: अर्गला, कीलक तथा कवच

मैथिलसाम्प्रदायिक

श्री दुर्गासप्तशती

(मैथिली भाषात्मक ‘सांगदुर्गाप्रकाशिका’ व्याख्या सहितं)

व्याख्याकारः महाकवि लालदास (१८५६ ई. – १९२१ ई.)
सम्पादकः पं. (डा.) शशिनाथ झा “विद्यावाचस्पति”

प्रकाशकः उर्वशी प्रकाशन

 
भूमिकाः
 
अपार-संसार-महोग्रसागरा-दुपैतिपारं जडबुद्धयोऽप्यहो।
पादारविन्दं मनसापि वन्दयन् यस्याश्शिवां तां प्रणतोऽस्मि सिद्धिदाम्॥
 
वीरयसं. तारालाही ग्राम निवासी, कर्णकुलोद्भव, देवभक्ति-परायण, शूर, औदार्य्य गुणसम्पन्न “बलभद्र” प्रसिद्ध वल्लीदास छलाह, जे श्रीमान् दिल्लीपति बादशाहक दरवार मे सम्मानित रहि तनिक प्रसन्नता सौँ समस्त “फर्रखपुर” नामक प्रगन्ना उपार्जन कयलनि। तनिकहि वंशमे “मायादत्त दास” होइत भेलाह, जे बहुतो कालधरि उक्त ग्राम तारालाहीमे निवास कय पूर्वपुरुषोपार्ज्जित भूमि सौं परिवारपालन तथा सत्यकर्म्माचरण दानादि क्रिया सम्पन्न करैत पश्चात्काल सिमरा ग्राम प्रगन्ना आलापुरमे निवास कय महोग्रप्रतापशाली-महाराजाधिराज मिथिलाधीश श्रीमान् प्रतापसिंह बहादुर जनिक राजधानी प्रतापनगर रानीगंज झंझारपुरक सन्निधिमे छलैन्ह, तनिक सेवामे प्राप्त छलाह। स्व-सेवा साधन द्वारा उक्त महाराजबहादुर सौं अनेक ग्राममे विस्तृत भूमि पारितोषिक पाबि सर्वदा सत्कीर्ति सम्पादन कय धर्म्मवर्गक पालन करैत अन्तकाल काशीलाभ करैत भेलाह, तनिक पुत्र धर्म्मनिष्ठ औदार्य्यगुणसम्पन्न सर्वविद्याधिकारी “जालपादत्त दास” होइत भेलाह, जे किंचित्कालपर्य्यन्त उक्त सिमरा ग्राममे निवास राखि पश्चात् खड़ौआ ग्राम प्रगन्ना आलापुरमे निश्चल निवास कय विविध विरुदावली विराजमान मानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलाधीश श्रीमान् माधवसिंह बहादुर तथा श्रीमान् महाराज छत्रसिंह बहादुर तथा श्रीमान् महाराज रुद्रसिंह बहादुरक सेवा सौं सम्मानित रहि अनेक सत्कीर्ति तड़ाग देवमन्दिर आदि प्रस्तुत कराय प्रतिष्ठा सहित नाना-धर्माचरण सौं कालव्यतीत कय अन्तसमय श्रीविश्वेश्वरादिक सेवन करैत काशीलाभ द्वारा क्षणभंगुर अनित्य शरीर केँ मणिकर्णिकामे विसर्ज्जन कय, मायापाशसौं मोक्ष पबैत भेलाह। तनिक पुत्र सद्विद्याधिकारी, यशस्वी, धर्म्मात्मा, बचकनदास होइत भेलाह, जे सतत शिवाशिव पूजन सौं नितान्त जीवनकेँ सफल करैत महाराजाधिराज मिथिलाधीश श्रीमान् महेश्वरसिंह बहादुरक सेवापरायण छलाह, तदुत्तर महोग्र-प्रतापशालि सर्वगुणोपेत विविध विरुदावली विराजमानमानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलाधीश श्री ५ रमेश्वर सिंह बहादुरक सेवापरायण भेलाह। राजसेवा सौं अनुक्षण सम्मानित रहि पश्चात् एहि संसारकेँ असार जानि मिथ्या प्रपंचसौं त्यक्तभय पूर्वपुरुषानुगमन करैत भेलाह।
 
तनिक पुत्र हम “श्रीलालदास” उक्त श्रीमान् महाराज श्रीमद् रमेश्वरसिंह बहादुर, जनिक अखण्ड प्रताप भारत महामण्डलमे देदीप्यमान तथा कीर्तिचन्द्रिका विराजमान छैन्ह, जनिक चित्त नित्य परमधर्म्ममे तत्पर तथा श्रीजगदम्बिकाक चरणारविन्दक आराधनामे सर्वदा एकाग्र अर्पण कयल रहैछैन्ह, हरिद्वार, कनखल तता नीलपर्वतक घोर कन्दरामे तथा शाकम्भरी, ज्वालामुखी, कामरूपपीठाधिष्ठात्री श्रीकामाख्यादेवीक पर्वतक अत्यन्त गहन वनमे तथा हिमालय प्रदेशस्थ गंगाश्रम, कालीमठ तथा गंगोत्तर यामुनोत्तर केदार बदरी सौम्य वाराणसी इत्यादि अनेक पुण्यस्थानमे जाय संयमपूर्वक नियम सहित अत्यन्त कठोर परिश्रम सौं पुरश्चरणादिक कयलैन्ह जे श्रीमान् पृथ्वी मण्डलमे सप्तपुरी पर्य्यटनपूर्वक द्वादश ज्योतिर्लिंग तथा विष्णुधाम चतुष्टय तथा परम पावन अनेक शक्तिपीठक दर्शन कय वारम्वार प्रयागराजादि अनेक तीर्थक स्नान दानादि यथाविधि समग्र सम्पन्न कय तथा परम उत्साह पूर्वक वारम्वार गया तीर्थमे प्राप्त भय नानाप्रकारक दानादि कर्म्म सम्पादन कय अत्यन्त व्ययसहित त्रिगयी पद लाभ कय साक्षात् जीवनमुक्त भेल विराजमान छथि, तनिक सेवाक आरूढ़तासौं अनेक दुर्लभ तीर्थ बदर्य्याश्रम, केदार, गंगोत्तर तथा अनेक गंगा, अनेक प्रयाग जे केदार मण्डलमे व्याप्त कयने छथि, ताहि सबहींक स्नान-दर्शनादि सौं हमहुँ जन्मसाफल्य कय हिमालय प्रदेशस्थ सर्वाधिका श्रीजगदम्बिकाक दुर्म्मददैत्यमर्दनस्थान, यथार्थ-मूर्त्ती कालीमठ तथा महिषमर्द्दिनी आदिमे दर्शन स्पर्शन करैत परमशक्ति-भक्तियुक्त उक्त नृपनायकक सहानुगमन करैत अनवरत विराजमान राजनगर नामक राजधानी आबि प्रभुसेवामे निरत भेलहुँ। ताही राजधानीमे स्थिति कयने एक समय चित्तमे ई भावना होइत भेल, जे जाहि मूल प्रकृति महामाया परमेश्वरीक आविर्भाव तथा युद्धक्रीड़ाक अनेक स्थान हिमालय प्रदेश मे दृष्टिगोचर भेल तनिके सएह चरित्र देवीमाहात्म्य मार्कण्डेयपुराणोक्त “सप्तशती चण्डी” नाम सौं प्रसिद्ध अछि। ताहि सप्तशतीक पाठ अथवा श्रवण कयला सन्ता मनुष्य शीघ्र सिद्धमनोरथ होइ छथि। अतएव विशेष एहि मिथिलादेश तथा बंगदेश तथा अन्यान्य अनेक देशमे ई देवी माहात्म्य प्रचलित अछि। परन्तु कतहु कतहु इहो दृष्टिगोचर होइत अछि ये मनुष्य एहि देवी माहात्म्यक पठन-पाठन कयलहु सन्ता लब्धकाम नहिं होइ छथि। तकर युक्ति स्पष्ट ई बूझि पड़ैछ जे अर्थ नहिं जनला सन्ता शुद्ध उच्चारणमे हानि होइछैन्ह। तैं हेतु एक टीका तेहन सुलभ रीति सौं कयल जाय जकर अवलोकनामात्रहि सौं सकल साधारणहु काँ मूल श्लोकक अर्थ लगयवामे परम साहित्यकारक भै जाइन्ह। जखन अर्थ अवगत होयतैन्ह तखन कदापि अशुद्ध उच्चारण नहिं होयतैन्ह। शुद्ध पदपाठ कयला सन्ता निस्सन्देह मनुष्य शीघ्रहिं सफलितकामना भय जयताह, इत्यादि मनन करैत परम पावन अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष प्रद जे महामायाक उत्तम चरित्र सप्तशती आख्यान तकरा परम पुनीत मिथिला भाषामे, जाहि भाषाकेँ विष्णुमाया महालक्ष्मी जानकी अवतीर्णा भय साक्षात् अपना श्रीमुखारविन्द सौं भाषण कयलैन्ह। तेँ संस्कृत वाणीक स्पर्द्धा कयनिहारि जे मैथिली भाषा ताहिमे अनुवाद करैछी। यद्यपि विद्वज्जन सबहिकाँ भाषापाद सौं अवहेलन करबाक योग्यता सम्भव, किन्तु जखन महामाया जानकीक शुद्ध मातृभाषामे अनुवाद अवगत करताह तखन अवश्य यथार्थ व्याख्यान युक्त एहि नवीन टीकाक अवलोकन करबामे दृष्टिपात करताह, एवं श्रद्धावान् होयताह। आशा होइअछि जे ताहि द्वारा निश्चय हमर ई परिश्रम सफलित होयत तथा परम कोमल माधुर्य्य सम्मिलित जे सुन्दर मैथिली भाषा तकर उन्नति होयतैक। ॥शुभम्॥
 
विद्वज्जनक कृपाकांक्षी
 
श्री लालदास
 
नोटः आइ सँ हम अपने सभक बीच श्री लालदास कृत् दुर्गासप्तशती व्याख्यान सहित रखबाक संकल्प लेल अछि, लेकिन एहि मे समय लागत। मास-दूमास लागत। तथापि, जिनका उर्वशी प्रकाशनक ई पुस्तक भेटि जाय से जरूर कीनिकय पाठ करी। बहुत पैघ उपलब्धि हासिल होयत जीवन मे। 🙂
 
हरिः हरः!!

श्रीदुर्गासप्तशती

ध्यानम्
विद्युद्दाम-समप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां,
कन्याभिः करवालखेट-विलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेट-विशिखाँश्चापं गुणं तर्जनीं,
विभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

श्रीदुर्गापाठ संकल्पः

ॐ अद्य अमुके मासे अमुके पक्षे अमुकतिथौ अमुकगोत्रस्य मम श्री अमुक शर्मणः सपरिवारस्य ससकलदुरित-संकट-दारुणग्रहपीड़ोपसर्गापच्छान्तिपूर्वक-सर्वबाधाविनिर्मुक्त्व-धनधान्यसुत-निर्भयत्व-कल्याणारोग्य-शुभमति-विजय-देवीप्रसादावाप्तिकामो मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत – “मार्कण्डेय उवाच सावर्णिः सूर्यतनय” इत्यारभ्य “सावर्णिर्भविता मनुः” इत्यन्तस्य देवीमाहात्म्यस्य पारायणमहं करिष्ये। (नवावृत्तिपाठपक्षेतु – “अद्यारभ्य यथाकालं नवावृत्ति परायणमहम्” इति योजनीयम्। अन्यार्थे पाठे तु ‘करिष्यामि’ इति कथनीयम्।)

अथ दुर्गा-शतनाम-स्तोत्रम्

दुर्ग्गायाः शतनामानि शृणु त्वं भवगेहिनि। दुर्ग्गा भवानी देवेशी विश्वनाथप्रिया शिवा॥
घोरदंष्ट्रा करालास्या मुण्डमालाविभूषणा। रुद्राणी तारिणी तारा माहेशी भववल्लभा॥
नारायणी जगद्धात्री महादेवप्रिया जया। विजया च जयाराध्या शर्व्वाणी हरवल्लभा॥
असिता चाणिमा देवी लघिमा गरिमा तथा। महेशशक्तिर्व्विश्वेशी गौरी पर्व्वतनन्दिनी॥
नित्या च निष्कलङ्का च निरीहा नित्यनूतना। रक्ता रक्तमुखी वाणी वसुयुक्ता वसुप्रदा॥
रामप्रिया रामरता रघुनाथवरप्रदा। राज्येश्वरी राज्यरता कृष्णा कृष्णवरप्रदा॥
यशोदा राधिका चण्डी द्रौपदी रूक्मिणी तथा। गुहप्रिया गुहरता गुहवंशविलासिनी॥
गणेशजननी माता विश्वरूपा च जाह्नवी। गङ्गा काली च काशी च भैरवी भुवनेश्वरी॥
निर्म्मला च सुगन्धा च देवकी देवपूजिता। दक्षजा दक्षिणा दक्षा दक्षयज्ञविनाशिनी॥
सुशीला सुन्दरी सौम्या मातङ्गी कमला कला। निशुम्भनाशिनी शुम्भनाशिनी चण्डनाशिनी॥
धूम्रलोचनसंहन्त्री महिषासुरमर्द्दिनी। मधुकैटभसंहन्त्री रक्तबीजहरामरा॥
जगदीशप्रिया जन्मनाशिनी भवनाशिनी। घोरवक्त्रा ललज्जिह्वा अट्टहासा दिगम्बरा॥
भारती स्वर्गदा रामा भोगमोक्षप्रदायिनी। उमा गौरी कराला च कामिनी विश्वमोहिनी॥
इत्येवं शतनामानि कथितानि वरानने। नास्मरणमात्रेण जीवनमुक्तो भवेन्नरः॥
य पठेत् प्रातरूत्थाय स्मृत्वा दुर्गापदद्वयम्। मुच्यते जन्मबन्धेभ्यो नात्र कार्या विचारणा॥
सन्ध्याकाले दिवाभागे निशायां वा निशामुखे। पठित्वा शतनामानि मन्त्रसिद्धिँल्लभेद् ध्रुवम्॥
अज्ञात्वा स्तवराजञ्च दश विद्या भजेद्यदि। तथाऽपि नैव सिद्धिः स्यात् सत्यं सत्यम्महेश्वरि॥
इति मुणडमालातन्त्रे द्वितीयपटले श्रीदुर्गादेव्याः शतनामस्तोत्रं समाप्तम्।

चण्डीशापविमोचनम्

अथ चण्डीशापविमोचनम्

ॐ दुर्गादेव्यैनमः। चण्डीशापविमोचनमन्त्रस्य वशिष्ठ-नारद-सामवेदाधिपति-ब्रह्माण ऋषयः, सर्व्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा-देवता अनुष्टुप्छन्दश्चरितत्रयं बीजं, ह्रीं शक्तिः, रूपिणी कीलकं, चण्डीशापविमोचने विनियोगः।
ॐ रीँ रेतःस्वरूपायै मधुकैटभमर्द्दिन्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ श्रीँ बुद्धिरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ रँ रक्तरूपिण्यै महिषासुरमर्द्दिन्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ क्षुँ क्षुधारूपिण्यै देववन्दित्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ छाँ छायारूपिण्यै दूतसँव्वादिन्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ श्रीँ शक्तिरूपिण्यै धूम्रलोचनवधकारिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ तृँ तृष्णारूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ क्षाँ क्षान्तिरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ जाँ जातिरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ लँ लज्जारूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ शाँ शान्तिरूपिण्यै देवस्तुत्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ श्रँ श्रद्धारूपिण्यै फलदात्र्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ काँ कान्तिरूपिण्यै राजवरदात्र्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ माँ मातृरूपिण्यै आर्गलसहितायै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ ह्रीँ श्रीँ हूँ दुर्गायै सर्वैश्वर्यकारिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ क्लीँ ह्रीँ ॐ नमः शिवायै अभेद्यकवचरूपिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
ॐ काल्यैकालि ह्रीँ फट्स्वाहायै ऋग्वेदरूपिण्यै, ब्रह्मशापविमुक्ता भव॥
इत्येवं हि महामन्त्रान् पठित्वा परमेश्वरि। चण्डीपाठन्दिवारात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥
एवम्मन्त्रन्न जानाति चण्डीपाठं करोति यः। आत्मनश्चैव दातृृणां क्षयं कुर्यान्न संशयः॥
इति रुद्रयामले चण्डीशापविमोचनं सम्पूर्णम्।

अर्गलास्तोत्रम्

अथ अर्गलास्तोत्रम्

अथ दुर्गापाठक्रमः

नमश्चण्डिकायै॥
॥मार्कण्डेय उवाच॥
ब्रह्मन्! केन प्रकारेण दुर्गामाहात्म्यमुत्तमम्। शीघ्रं सिद्धयति तत्सर्वं कथयस्व महामते॥
॥ब्रह्मोवाच॥
अर्गलं कीलकं चादौ जपित्वा कवचम्पठेत्। जपेत् सप्तशतीं पश्चात् क्रम एष शिवोदितः॥
अर्गलं दुरितं हन्ति कीलकम्फलदं भवेत्। कवचं रक्षते नित्यं चण्डिका त्रितयं तथा॥
अर्गलं हृदये यस्य तथानर्गलवागसौ। भविष्यतीति निश्चित्य शिवेन कथितं पुरा॥
कीलकं हृदये यस्य स कीलित-मनोरथः। भविष्यति न सन्देहो नान्यथा शिवभाषितम्॥
कवचं हृदये यस्य स वज्रकवचः खलु। भविष्यतीति निश्चित्य ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥
॥मार्कण्डेय उवाच॥
जय त्वन्देवि चामुण्डे जय भूतान्तकारिणी। जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥१॥
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वधा स्वाहा नमोऽस्तु ते॥२॥
टीकार्थेमङ्गलम् –
याम्प्रार्थयन्ति भक्ता, रूपजयादीन् पुनः पुनर्न्नत्वा।
नानारूपैस्साम्बा, वरदा भूयान्ममापि सदा॥
मार्कण्डेय बजलाह॥ हे देवि (प्राणी मात्रमे प्रकाश छैन्ह जनिक), हे चामुण्डे (काली रूपें चण्डमुण्ड दैत्यक वध कयलैन्ह जे तें चमुण्डा नाम भेलैन्ह), हे भूतान्तकारिणी (प्राणी मात्रक संहार कयनिहारि अर्थात् संहारशक्ति), हे सर्वगते (सभ प्राणीक घर मे निवास कयनिहारि), हे देवि, हे कालरात्रि (भय उत्पन्न कयनिहारि) – अपने केँ प्रणाम रहौ, अपने जययुक्त होउ॥१॥ जयन्ती नाम सर्वोत्कृष्टा, मङ्गला नाम मङ्गलस्वरूपा, अथवा मोक्षप्रदा, काली नाम सृष्टिकारिणी, भद्रकाली नाम कल्याणकारिणी, कपालिनी नाम कपाल धारण कयनिहारि, दुर्गा नाम भवसागर सौं पार कयनिहारि, क्षमा नाम सभक अपराधकैं सहन कयनिहारि, शिवा नाम कल्याण कयनिहारि, धात्री नाम पालन कयनिहारि, स्वाहा नाम देवपोषिणी, स्वधा नाम पितृपोषिणी। एतादृश गुणवती जे अहाँ ताहि अहाँकाँ प्रणाम रहौ॥२॥ (एतय नाम केर अर्थ ‘माने’ भेल।)
मधुकैटभ-विद्राव-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥३॥
महिषासुरसैन्यान्त-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥४॥
महिषासुरनिर्णाश-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥५॥
धूम्रलोचनदर्प्पान्त-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥६॥
हे मधुकैटभ कैं नाश कयनिहारि! हे ब्रह्माकाँ वर देनिहारि! अपने कैं प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलिजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥३॥ हे महिषासुरसैन्यक नाशक विधान कयनिहारि! हे वर देनिहारि! अपनेकाँ प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥४॥ हे महिषासुरक नाश कयनिहारि! हे वर देनिहारि! अपनेकाँ प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥५॥ हे धूम्रलोचनक दर्प नाश कयनिहारि! हे वर देनिहारि! अपनेकाँ प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥६॥
चण्डमुण्डप्रमथन-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥७॥
रक्तबीजकुलोच्छेद-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥८॥
निशुम्भप्राणसंहार-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥९॥
शुम्भराक्षस-संहार-विधातृवरदे नमः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥
हे चण्डमुण्ड विनाशनि! हे वर देनिहारि! अपनेकाँ प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥७॥ हे रक्तबीजक कुल नाश कयनिहारि! हे वर देनिहारि! अपनेकाँ प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥८॥ हे निशुम्भक प्राण संहारिणि! हे वर देनिहारि! अपनेकाँ प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥९॥ हे शुम्भराक्षसक वध कयनिहारि! हे वर देनिहारि! अपनेकाँ प्रणाम। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१०॥
वन्दिताङ्घ्रियुगे श्रीदे देवि सौभाग्यदायिनि। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥११॥
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रु-विनाशिनि। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१२॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम्। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१३॥
विधेहि द्विषतान्नाशं विधेहि बलमुच्चकैः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१४॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियम्। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१५॥
देवि प्रचण्डदोर्द्दण्ड-दैत्यदर्पविनाशिनि। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१६॥
देवि भक्तिजनोद्दाम-दत्तानन्दोदयेऽम्बिके। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१७॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१८॥
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वन्त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१९॥
चण्डिके सततं ये त्वा-मर्चयन्तीह भक्तितः। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२०॥

हे वन्दितांघ्रियुगे (ब्रह्मादिसौं वन्दित छैन्ह दुहूचरण)! हे देवि! हे देवसौभाग्यदायिनि (देवताकेँ शत्रुबाधा रहित राज्य वा सुख देनिहारि)! सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥११॥ हे अचिन्त्यरुपचरिते (नहि चिन्तना करबाक योग्य छैन्ह चरित्र जनिक)! हे सर्वशत्रु विनाशिनि! सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१२॥ हे देवि! सौभाग्य तथा आरोग्य देल जाय, तथा परमसुख नाम ब्रह्मानन्दक सुख देल जाय। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१३॥ शत्रुसबहीक नाश करबामे अत्यन्त पराक्रम देल जाय। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१४॥ हे देवि, कल्याणक विधान करू, विपुल सम्पत्तिक विधान करू। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१५॥ हे प्रबल दैत्यक दर्प नाश कयनिहारि, हे चण्डिके, प्रणत जे हम तकरा सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१६॥ हे देवि! हे भक्तजनकें निरन्तर आनन्द नाम मोक्ष देनिहारि, हे अम्बिके, सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१७॥ हे चण्डिके, जे केओ भक्तिपूर्वक सतत अहाँक पूजा करैछथि तनिकाँ सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१८॥ हे चण्डिके, हे व्याधिनाशिनि, भक्तिपूर्वक अहाँक स्तुति कयनिहारकैं सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥१९॥ हे चण्डिके सर्वदा भक्तिसौं प्रणत छथि जे जन तथा प्रणत जे हम तनिकाँ सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२०॥

सुरासुरशिरोरत्न-निघृष्टचरणाम्बुजे। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२१॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरू। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२२॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्नि चण्डिके प्रणता वयम्। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२३॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र-संस्तुते परमेश्वरि। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२४॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाऽम्बिके। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२५॥
हिमाचलसुतानाथ-संस्तुते परमेश्वरि। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२६॥
इन्द्राणीपतिसद्भाव-पूजिते परमेश्वरि। रूपन्देहि जयन्देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२७॥
पत्नीम्मनोरमान्देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसार-सागरस्य कुलोद्भवाम्॥२८॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रम्पठेन्नरः। स तु सप्तशतीसंख्या-वरमाप्नोति सम्पदः॥२९॥
अर्गलम्पापजातस्य दारिद्रयस्य तथाऽर्गलम्। इदमादौ पठित्वा तु पश्चाच्छ्रीचण्डिकाम्पठेत॥३०॥
इत्यर्गलास्तोत्रम्।
हे सुरासुर शिरोरत्न निघृष्टचरणे (देवता-दैत्यक मुकुटक रत्न सौं प्रणामकाल मे धँसल होइत छैन्ह चरण)! हे अम्बिके, सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२१॥ जन नाम जे हम ताहि हमराकें विद्यावन्तं नाम ब्रह्मविद्यामे निपुण, तथा यशयुक्त, तथा लक्ष्मीवान् कयल जाय। सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२२॥ हे देवि, हे प्रचण्ड भुजदण्ड सौं दैत्यक दर्प नाश कयनिहारि, सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२३॥ हे चतुर्भुजे (अर्थ, धर्म्म, काम, मोक्ष धारणार्थ छैन्ह चारिभुजा)! हे चतुर्वक्त्रसंस्तुते (ब्रह्मासौं स्तुता)! हे परमेश्वरी (परमेश्वरक प्रिया)! सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२४॥ हे कृष्णसौं सर्वदा भक्तिपूर्वक स्तुति कयलिगेलि, हे देवि, हे अम्बिके, सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२५॥ हे हिमाचलसुतानाथ (शिव) द्वारा सदिखन स्तुते-पूजिते, हे परमेश्वरी, सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२६॥ हे इन्द्राणीपति (इन्द्र) केर सद्भावना सहित पूजिते, हे परमेश्वरी, सुन्दर कान्ति देलजाय, जय देलजाय, यश देलजाय, शत्रुक नाश कयलजाय॥२७॥ मनकें आनन्द अथवा मोहन कयनिहारि, तथा मनोभिलाषित कार्य्य कयनिहारि, अथवा आज्ञानुसार गमन कयनिहारि दर्ग संसारसागर सौं पार कयनिहारि, अर्थात् सुधर्म्मा तथा कुलीना, एतादृश गुणवती पत्नी नाम भार्य्या देलजाय॥२८॥ ई अर्गला स्तोत्र पाठ कयकँ तखन महास्तोत्र (सप्तशती) पाठ करक थीक, से मनुष्य सप्तशती जप संख्याप्रमाण श्रेष्ठ फल प्राप्त करताह, तथा सम्पत्ति प्राप्त करताह॥२९॥ ई अर्गलास्तोत्र पापसमूहक अर्गला (रोक) थिक, दरिद्रताक सेहो अर्गला (रोक) थिक। एकरा आदि मे पढि पाछू चण्डी पाठ करी॥३०॥
इति श्री लालदासकृतः अर्गलास्तोत्रानुवादः।

कीलकम्

अथ कीलकम्

नमश्चण्डिकायै॥
विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे। श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्द्धधारिणे॥१॥
सर्वदैव पठेद्यस्तु मन्त्राणामपि कीलकम्। सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जपतत्परः॥२॥
सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि। एतेन स्तुवतान्देवी स्तोत्रवृन्देन सिद्ध्यति॥३॥
टीकार्थे मङ्गलम् –
निःकीलं भवति सदा यत्प्रणतिघटितमंत्रत इह देव्याः।
माहात्म्यं सफलमपि तस्मै नमश्शिवाय शान्ताय॥
विघ्नशान्ति निमित्ति तथा भुक्ति मुक्ति फल प्राप्त्यर्थ, (कीलक दोष शान्ति हेतु, कीलनकर्त्ता शिवक प्रथम प्रणाम करैछथि।) विशुद्ध नाम निर्म्मल ज्ञान रूप शरीर छैन्ह जनिकाँ अथवा निर्म्मल नाम राग-द्वेषादि दोषरहित ज्ञान तथा योनि सम्भवादि दोष रहित छैन्ह शरीर जनिक, वेद त्रय रूप दिव्य चक्षु छैन्ह जनिकाँ, ताहि अर्द्धचन्द्र धारण कर्त्ता शिवकेँ कल्याण प्राप्त निमित्त प्रणाम रहौ॥१॥ सभ-मन्त्रक कीलक रूप एहि ई कीलकस्तोत्र केँ जे जनैछथि, से सतत जाप्य तत्पर नाम सप्तशती सौं अतिरिक्त अन्य नाना मन्त्रक जपमे तत्परो छथि, तनिकहु क्षेम नाम कल्याण प्राप्त होयतैन्ह॥२॥ उच्चाटनादि (मारण मोहन वशीकरण उच्चाटन) तथा सकल अलभ्य वस्तुक सिद्धि अन्य मन्त्र सौं होइछैक। किन्तु एहि कीलक स्तोत्र सहित सप्तशती स्तोत्रक पाठ मात्रहिं सौं, स्तुवतां नाम स्तोत्र कयनिहार काँ देवी नाम सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवती सिद्धि भय जाइ छथीन्ह॥३॥
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते। विना जप्येन सिध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम्॥४॥
समग्राण्यपि सेत्स्यन्ति लोके शङ्कामिमां हरः। कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्॥५॥
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुह्यञ्चकार सः। समाप्नोति सुपुण्येन तां यथावन्नियन्त्रणाम्॥६॥
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेतन्न संशयः। कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः॥७॥
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसिद्ध्यति। इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्॥८॥
स एव क्षेममवाप्नोति सदा जप्त्वा न संशयः। यो निःकीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्पुटम्॥९॥
स सिद्धस्सगणस्सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः। न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापि हि जायते॥१०॥
सप्तशतीक पाठ कयनिहार काँ अन्य मन्त्र वा औषध वा किछु अन्य साधनादि सौं प्रयोजन नहिं। ताहि सभक बिना केवल सप्तशतीक जाप्य नाम पाठहि सौं सम्पूर्ण उच्चाटनादि तथा अलभ्य वस्तु सब सिद्धि भय जेतैन्ह॥४॥ अन्य मन्त्रहु सौं तथा सप्तशतीक प्रयोगहु सौं कार्य्यसिद्धि होइ छैक। ई दुहू पक्षक लोकशङ्का कें निवृत्ति कयकँ, महादेव एहिपक्ष कें स्थिर कयलैन्ह जे सबसौं “ई” अर्थात् सप्तशतीक साधन सैह शुभकारक थीक॥५॥ तेंहेतु चण्डिकाक एहि स्तोत्रकें, अर्थात् सप्तशती स्तोत्रकें महादेव तंत्र मे गोप्य करैत भेलाह, यथार्थ प्रकारें सप्तशती पाठ कयलापर, ताहि पाठकक पुण्यसमाप्ति नाम क्षय नहिं होइछैन्ह। अर्थात् अन्य मन्त्र जपक पुण्यक्षय होइतहुँ छैन्ह, किन्तु सप्तशती पाठ जन्य पुण्य क्षय नहि होइ छैन्ह॥६॥ एहि कीलक स्तोत्र सहित जप कयला सन्ता, सेहो अर्थात् अन्य मन्त्र जप कयनिहारो, कल्याण प्राप्त करैछथि एहिमे संशय नहि। एहि स्तोत्रसँ सभकें अचिन्त्य फल प्राप्त होयतैन्ह, ई जानि महादेव सौं एहि रूपें कीलित कयलगेल कृष्णपक्षक चतुर्द्दशी वा अष्टमीमे एकाग्र मनसौं ‘ददाति” नाम उपासक अपन समस्त धनकें देवीमे अर्पण कयदेथि, पश्चात् संसार मे निर्वाह निमित्त “प्रतिगृह्णाति’, नाम ताहि धनकें देवीक प्रसादवत् ज्ञान कय ग्रहण कयलेथि, तकरा नीतिमार्गे व्यय करैत परमेश्वरीक अधीन भेलरहथि, एहन व्यक्ति जे छथि तनिकाँमे, एषा नाम ई सप्तशती प्रसन्ना होइ छथीन्ह, अन्यथा प्रसन्ना नहि॥७-८॥ जे पुरुष एना नाम एहि सप्तशतीकें पूर्वोक्त दान-प्रतिग्रह प्रकारें निःकील विधान कय नित्य जप करताह, से सिद्ध होयताह, सैह देवीक गण होयताह, सैह अवने नाम संसारक रक्षा करबामे, गन्धर्व होयताह॥९॥ ताहि जापक कें यत्रकुत्र भ्रमण करितहुँ कोनो भय नहि होयतैन्ह॥१०॥
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्। ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणो विनश्यति॥११॥
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते जनैः। सौभाग्यादि च यत्‌किञ्चिद् दृश्यते ललनाजनै॥१२॥
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्। शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे संपत्तिरुच्चकैः॥१३॥
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्। ऐश्वर्यन्तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः॥१४॥
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः। प्रथमम्पठते देव्या ह्यग्रे भूत्वा शुचिस्तथा॥१५॥
कीलकेयं समाख्याता पश्चात् सप्तशती स्तुतिः। निष्कीलकन्ततः कृत्वा ख्याता निष्कीलकारणात्॥१६॥
देव्याश्चैव महाभक्त्या तेनाभीष्टफला भवेत्॥१७॥
इति कीलकस्तोत्रम्॥
ज्ञात्वा नाम पूर्वप्रकारें विधि जानिकैं प्रारभ्य कुर्वीत नाम पाठ करय, तद्विपरीत पाठ कैनिहार नाश होइ छथि। (उपायान्तर कहै छथि) ज्ञात्वैव नाम ई विधान जनलहु सन्ता तनिकाँ सम्पन्न नाम निर्द्दुष्टपाठक फल होइछैन्ह॥११॥ जेकिछु सौभाग्यादि फल सौभागिनी स्त्रीसभकाँ देखैछी, से सभ तनिके प्रसादें होइ छैन्ह, तेंहेतु ई शुभदायक स्तोत्र जाप्य नाम पाठ करबाक थीक॥१२॥ शनैः नाम अति मन्द शब्द सौं, एहि स्तोत्रक जाप्यमाने नाम पाठ कयलासन्ता किछु सम्पत्ति, तथा उच्चैः नाम उच्च शब्द सौं पाठ कयलासन्ता, समस्त सम्पत्ति प्राप्ति होयतैन्ह। अतएव उच्चस्वर सौं पाठ करबाक थीक॥१३॥ यादि परमेश्वरीक प्रसादसौं मनुष्यकाँ ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्यादि, सम्पत्ति, शत्रुनाश, तथा परामोक्ष नाम केवल मोक्ष प्राप्ति होइ छैन्ह से कियैक, ताहि परमेश्वरीक स्तुति नहि करैछथि अर्थात् कल्याणप्राप्ति निमित्ति सर्वथा तनिके आराधना कर्तव्य थीक॥१४-१७॥
इति श्री लालदासकृतः कीलकस्तोत्रानुवादः॥

कवचम्

अथ कवचम्

ॐ नमश्चण्डिकायै॥ मार्कण्डेय उवाच॥

यद् गुह्यम्परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

॥ब्रह्मोवाच॥

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्। देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्री च महागौरीति चाष्टम्॥४॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। विषमे दुर्गमे वाऽपि भयार्ताश्शरणं गताः॥६॥

न तेषां जायते किञ्चि-दशुभं रणसंकटे। नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयन्नहि॥७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां सिद्धिः प्रजायते। प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना॥८॥

टीकार्थे मङ्गलम् –

या सर्व्वाङ्गं सर्व्वैरूपै रक्षत्यखिलजीवानाम्।

तां सर्व्वाम्बां बन्दे यदीच्छया ततमिदं विश्वम्॥

मार्कण्डेय बजलाह – हे पिताम (ब्रह्मन्)! परम नाम उत्कृष्ट रहस्य जे लोकमे गोप्य कयलगेल अछि, याहिसौं सभ मनुष्यक अर्थात् पामरहौक रक्षा होइक। जे अपने ककरहुसौं नहि कहनेछी, अर्थात् सारवस्तु जानि अपना मनहिमे रखने छी, से हमरा प्रति कथन करू॥१॥ ब्रह्मा बजलाह – हे विप्र! अतिगोप्य, पुण्यप्रद, सभ प्राणीक उपकारक, अर्थात् अभीष्टकें देनिहार, देवीक एक कवच अछि, से अहाँ श्रवण करू॥२॥ (ताहि कवचक अधिष्ठात्री देवी नवमूर्त्यात्मिका जे छथि तनिक ध्यानक अभिप्राय सौं नाम कथन करै छथि।) १ – प्रथम शैलपुत्री नाम हिमाचलक कन्या, २ – ब्रह्मचारिणी नाम ब्रह्मस्वरूपा, ३ – चन्द्रघण्टा नाम चन्द्रमाक तुल्य छैन्ह हस्तमे घण्टा जनिका, ४ – कूष्माण्डा नाम कुत्सित तापकें भक्षण कयनिहारि, अर्थात् सांसारी त्रिविधताप आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिककें नाश कयनिहारि॥३॥ ५ – स्कन्द माता नाम कार्तिकेयक उत्पन्न कयनिहारि, ६ – कात्यायनी नाम कात्यायन मुनिक कन्या, ७ – कालरात्रि नाम प्रलय कयनिहारि, ८ – महागौरी नाम महागौरवर्णा, अर्थात् कालीक स्वरूपकें जखन शिव निन्दा कयलथीन्ह तखन काली परम तपस्या कय महा गौरवर्णा भेलि छलीह, ई कथा कालिका पुराणमे स्पष्ट अछि॥४॥ ९ – सिद्धिदा नाम मोक्षप्रदा, प्रोक्ता नाम ये शास्त्रमे कथन भेलअछि, से नवदुर्गाक प्रभेद हम कहल। ई नामसभ महात्मना नाम सर्वान्तर्य्यामी ब्रह्मासौं (हमरहिसौं) कहल गेलअछि अर्थात् वेदमे निरूपण कयलगेल अछि॥५॥ (आब फलश्रुति कहैछथि) अग्निमे दग्ध होइत, शत्रुक संग्राम मे प्राप्त भेलासन्ता, परम संकट मे भयसौं पीड़ित भय नवदुर्गाक कोनो मूर्तिक शरण मे जे क्यो प्राप्त होयताह॥६॥ ताहि आश्रिती मनुष्यकाँ संग्राम तथा संकट स्थानमे किञ्चितो अशुभ नाम अमङ्गल नहि होयतैन्ह अर्थात् मङ्गल सैह होयतैन्ह, से दुर्गा हुनक आपदकें नहि देखिसकै छथि, तनिक सम्पूर्ण दुःखकें क्षय करथीन्ह॥७॥ जनिकाँसौं भक्तिभावें स्मरण कयलि जाइछथि, तनिकाँ ऋद्धि नाम अर्थ, धर्म्म, काम आ मोक्ष, ई चारू पदार्थ दैछथीन्ह। आब सप्तमातृकाक स्वरूप कहैछथि, चामुण्डा प्रेतपर चढलि (१) वाराही महिषपर (२)॥८॥

ऐन्द्री गजसमारूढ़ा वैष्णवी गरुड़ासना। माहेश्वरी वृषारूढ़ा कौमारी शिखिवाहना॥९॥

ब्राह्मी हंससमारूढ़ा सर्वाभरणभूषिता। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना। इत्येता मातरस्सर्वाः सर्वयोग-समन्विताः॥११॥

श्रेष्ठैश्च मौक्तिकैस्सर्वा दिव्यहारप्रलम्विभिः। इन्द्रानीलैर्महानीलैः पद्मरागैः सुशोभितैः॥१२॥

नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः। दृश्यन्ते रथमारूढ़ा देव्यः क्रोधसमाकुलाः॥१३॥

शंखं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्। खेटकं तोमरं चैव परशुम्पाशमेव च॥१४॥

कुन्तायुधं च खड्गं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्। कुलिशञ्च त्रिशूलं च पट्टिशं मुद्गरन्तथा॥१५॥

दैत्यानान्देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां तु हिताय वै॥१६॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे। महाबले महोत्साहे* महाभयविनाशिनि॥१७॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणाम्भयवर्द्धिनि। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१८॥

*प्रकाशित मूल पोथीमे ‘महाकाये’ केर प्रयोग कयल गेल अछि, जखन कि टीका-अनुवाद मे ‘महोत्साहे’ शब्द प्रयुक्त अछि।

ऐन्द्री ऐरावतपर (३), वैष्णवी गरुड़पर (४), माहेश्वरी वृषभपर (५), कौमारी मयूरपर (६), ब्राह्मी हंसपर (७) आरूढ़ भेलि सम्पूर्ण आभरणसौं विभूषिता। (एहि सप्तमातृका गण सौं भिन्न जे देवी सेहो सबहि) नाना प्रकारक आभरण धारण कयने नानारत्नसौं शोभायमान। भक्तक रक्षा निमित्त क्रोधसौं आकुलिभेल रथपर चढ़लि देखलि जाइछथि॥९-१३॥ शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल, मुसलायुध, खेटक, तोमर, परशु, पाश, कुन्तायुध, उत्तम, धनुष – दैत्य सबहीक शरीरनाश करबाक हेतु तथा भक्त सबहीक अभय तथा देवता सबहीक हित करबाक हेतु ई आयुध सभ धारण कयने छथि॥१४-१६॥ (कवचपाठ सौं पूर्व्व देवीक प्रार्थना करबाक थीक, ताहि आशयसौं कहैछथि) हे महाबले! (महती माया शक्ति रूप बल छैन्ह जनिकाँ), हे महोत्साहे! (संसारक रक्षार्थ महाउत्साह छैन्ह जनिकाँ), हे महाभयविनाशिनि! (महाभय नाम मृत्यु, तकरा नाशार्थ तत्त्वज्ञान दैछथि जे), हे देवि! (सभप्राणीमे प्रकाश छैन्ह जनिकाँ), हे दुःप्रेक्ष्ये! (बहुतदुःखें नाम तपस्यें देखलि जाइछथि जे), हे शत्रुणांभयवर्द्धिनी! (कामक्रोधादिक जे शत्रु अथवा विपक्षी, तनिकाँ बहुतभय देनिहारि त्राहि-मां नाम), हमर पालन (रक्षा) करू॥१७-१८॥

याम्यां रक्षतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्याम्मृगवाहिनी॥१९॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। ऊर्द्ध्वम्ब्राह्मी च मे रक्षेदधस्ताद्‌वैष्णवी तथा॥२०॥

एवं दशदिशो रक्षे-च्चामुण्डा शववाहना। जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२१॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता। शिखामुद्योतिनी रक्षे-दुमा मूर्द्धिन व्यवस्थिता॥२२॥

मालाधरी ललाटे तु भ्रुवोर्मध्ये यशस्विनी। त्रिनेत्रा च भ्रुवौ रक्षेद् यमघण्टा च नासिके॥२३॥

शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शाङ्करी॥२४॥

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्च्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायान्तु सरस्वती॥२५॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठमध्ये तु चण्डिका। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२६॥

कामाख्या चिबुकं रक्षेद् वाचम्मे सर्वमङ्गला। ग्रीवायाम्भद्रकाली च पृष्ठदेशे धनुर्द्धरी॥२७॥

नीलग्रीवा बहिष्कण्ठे नलिकां नलकूबरी। खड्गधारिण्युभौ स्कन्धौ बाहू मे वज्रधारिणी॥२८॥

(दिशाक रक्षा लेल कहैछथि) पूर्व दिशा मे इन्द्रसम्बन्धी शक्ति हमर रक्षा करथु, आग्नेयमे अग्निदेवता, दक्षिणमे वाराही, नर्ऋत्यमे खड्गधारिणी रक्षा करथु, पश्चिम दिशामे वरुण सम्बन्धी शक्ति, वायव्य मे मृगवाहिनी नाम वायुशक्ति, उत्तरदिशा मे कुबेरशक्ति, ईशान कोण मे शूलधारिणी नाम ईशान शक्ति रक्षा करथु। ब्रह्माणी उर्ध्व भागमे हमर रक्षा करथु, अधः नाम नीचा मे वैष्णवी शक्ति रक्षा करथु, एवम्प्रकार दशोदिशामे शववाहिनी चामुण्डा रक्षा करथु॥१९-२१॥ (आब अपना समीप चतुर्भाग मे रक्षार्थ प्रार्थना करै छथि) जया शक्ति हमर रक्षार्थ हमरा अग्र भाग मे निवास करथु, विजया शक्ति हम पृष्ठ देश मे स्थिर रहथु, अजिता शक्ति वाम पार्श्व मे, अपराजिता दक्षिण पार्श्व मे निवास करथु॥२२॥ (आब सर्वाङ्ग रक्षार्थ प्रार्थना करै छथि) उद्योतिनी देवी (प्रकाश कयनिहारि) शिखामे स्थितिकय रक्षा करथु, उमा देवी मस्तक मे निवास कय रक्षा करथु, मालाधरी अर्थात् मुण्डमाला धारण छैन्ह जनिका से देवी ललाट मे, यशस्विनी देवी दुहू भौंह मे रक्षा करथु॥२३॥ त्रिनेत्रा देवी दुहू भौंहक मध्य मे, यमघंटा देवी नासिका मे, शंखिनी देवी (शंख धारण छैन्ह जनिका) से देवी दुहू नेत्र मे, (द्वारवासिनी द्वार नाम नाम छिद्र ताहिमे वायुरूपसौं निवास छैन्ह जनिका) दुहू कर्ण मे रक्षा करथु। कालिका दुहू कपोल मे रक्षा करथु, शाङ्करी नाम शङ्करशक्ति दुहू कर्णमूल मे॥२४॥ सुगन्धा देवी नासिका मे, चर्चिका देवी (पूज्या) ऊर्ध्व भागक ओष्ठ मे रक्षा करथु, अमृतकला देवी निचला ओष्ठ मे, सरस्वती जिह्वा मे, कौमारी दन्त सबहि मे, चण्डिका कण्ठदेश मे रक्षा करथु। चित्रघंटा नाम अद्भुत घंटा धारण छैन्ह जनिका, से देवी घंटिका नाम गलदेश लवलवी मे, महामाया नाम विस्तार छैन्ह माया प्रपंच जनिक से देवी तालुस्थान मे, कामाक्षी नाम कामरूप पीठाधिष्ठात्री देवी चिबुक मे, सर्वमङ्गला वाणी मे रक्षा करथु। भद्रकाली ग्रीवादेश मे, धनुर्द्धरी पृष्ठदेश मे अर्थात् पृष्ठभाग मे जे मेरुदंड ताहिमे, नीलग्रीवा कंठभाग मे, नलकूबरी कंठनाल मे रक्षा करथु। खड्गधारिणी दुहू स्कन्ध मे, वज्रधारिणी दुहू बाहु मे रक्षा करथु॥२५-२८॥

हस्तयोर्द्दण्डिनी रक्षे-दम्बिका चाङ्गुलीषु च। नखाञ्छुलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेन्नलेश्वरी॥२९॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनश्शोकविनाशिनी। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥३०॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। पूतना कामिका मेढ्रे गुदे महिषवाहिनी॥३१॥

कट्यां भगवती रक्षे-ज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। जङ्घे महाबला रक्षेत् सर्वकामप्रदायिनी॥३२॥

गुल्फयोर्न्नारसिंही च पादपृष्ठे च तैजसी। पादाङ्गुलीः श्रीधरी रक्षेत् पादाधस्तलवासिनी॥३३॥

नखान् दंष्ट्राकराली च केशाँश्चैवोर्ध्वकेशिनी। रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३४॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्री च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३५॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूड़ामणिस्तथा। ज्वालामुखी नखज्वाला-मभेद्या सर्वसन्धिषु॥३६॥

शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षे-च्छायां छत्रेश्वरी तथा। अहङ्कारम्मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३७॥

प्राणापानौ तथा व्यान-मुदानञ्च समानकम्। वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणं कल्याणदायिनी॥३८॥

दण्डिनी दुहू हाथ मे, अम्बिका अंगुली सबहिं मे रक्षा करथु। शूलेश्वरी नाम शूलिनी देवी नख सबहिं मे रक्षा करथु, अनलेश्वरी अग्निशक्ति कच्छस्थान मे रक्षा करथु, महादेवी दुहू स्तन मे, शोक विनाशिनी देवी मनक करथु। ललितादेवी हृदय मे, शूलधारिणी उदरमे, कामिनी देवी नाभि मे, महिषवाहिनी गुद स्थान मे, भगवती कटिभागमे, विन्ध्यवासिनी जानुदेश मे रक्षा करथु। महाबलादेवी जंघा मे, विनायकादेवी घुट्ठीमे, नारसिंही गुल्फदेश मे, अमितौजसी नाम नहि छैन्ह परिमाण तेजक जनिका से देवी पैरक पृष्ठभाग मे रक्षा करथु। श्रीधरी (शोभाधारण कयनिहारि) पैरक आङ्गुरसभ मे, तलवासिनी (पातालवासिनी) पैरक तरवा मे, दन्तकराली देवी नख सबहि मे, ऊर्ध्वकेशिनी देवी केश सबहि मे रक्षा करथु। कुबेरशक्ति रोम कूप सबहि मे, वागीश्वरी देवी त्वचा मे, पार्वतीदेवी शोणित, मज्जा, वसा, मांस-अस्थि, मेद एहि सभस्थान मे रक्षा करथु। कालरात्रि अँतरी मे, मुकटेश्वरी पित्त मे, पद्मावती पद्मकोश मे, (मूलाधार सौं सहस्रार पर्यन्त) चूड़ामणि देवी कफस्थान मे रक्षा करथु। ज्वालामुखी नखज्योति, अभेद्यादेवी सम्पूर्णसन्धिस्थान सबहि मे रक्षा करथु। हे ब्रह्माणि! अहाँ हमर शुक्रक रक्षाकरू, छत्रेश्वरी छाया नाम देहक प्रतिविम्बक रक्षा करथु। हे धर्म-चारिणी, अहाँ अहङ्कार, मन, बुद्धि तथा हमर पंचप्राणक रक्षा करू। चक्रधारिणी अर्थात् चक्र धारण कयने छथि जे से देवी सदा हमर यश, कीर्ति, तथा ऐश्वर्यादिक रक्षा करथु॥२९-३८॥

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३९॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी। यशः कीर्तिञ्च लक्ष्मीञ्च सदा रक्षन्तु मातरः॥४०॥

रस, रूप, गन्ध, शब्द तथा स्पर्श कें योगिनी, सत्त्व, रज आ तम केर रक्षा सदा नारायणी करथु। वाराही आयु केर रक्षा, वैष्णवी धर्मक रक्षा, यश आ कीर्ति केर रक्षा लक्ष्मी तथा माता स्वयं सदिखन हमर रक्षा करथु॥४०॥

गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत् पशून् रक्षतु चण्डिका। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४१॥

धनं धनेश्वरी रक्षेत् कौमारी कन्यकान्तया। पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा॥४२॥

राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता। रक्षेन्मे सर्वगात्राणि दुर्गा दुर्गापहारिणी॥४३॥

रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन च। सर्वं रक्षतु मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥४४॥

इन्द्राणी हमर गोत्रक रक्षा करथु। हे चण्डिके! अपने हमर चतुःपद सबहीक रक्षा करू। महालक्ष्मी पुत्र सबहीक रक्षा करथु, भैरवी देवी भार्याक रक्षा करथु। क्षेमकारी मार्गक रक्षा करथु, विजयादेवी सम्पूर्ण स्थानमे निवास कय सभ ठाम रक्षा करथु। हे देवि! एहि कवच मे जेस्थान रक्षाहीन भयगेल हो अर्थात् छूटिगेल हो ताहि सभ स्थान मे अहाँ रक्षा करू। कियैकतौं अपने जयन्ती नाम सर्वोत्कृष्टा, तथा पापनाशिनी थिकहुँ॥४१-४४॥

पदमेकन्न गच्छेतु यदीच्छेच्छुममात्मनः। कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४५॥

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः। यं यं चिन्तयते कामं तन्तंप्राप्नोति मानवः॥४६॥

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्नोत्यविकलः पुमान्। इदन्तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्॥४७॥

य इदं कवचं धृत्वा संग्रामम्प्रविशेन्नरः। जित्वा च स रिपून्सर्वान् कल्याणीगृहमाप्नुयात्॥४८॥

यः पठेत् प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्ध्यान्वितः। दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्ये चापराजितः॥४९॥

जीवेद्‌वर्षशतं साग्र-मपमृत्युविवर्जितः। नश्यन्ति व्याधयस्सर्वे लूताविस्फोटकादयः॥५०॥

स्थावरं जङ्गमं चापि कृत्रिमं चापि यद्विषम्। अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले॥५१॥

भूचराः खेचराश्चैव सर्वजाश्चोपदेशिकाः। सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनीति च॥५२॥

अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः। ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः॥५३॥

ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः। नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते॥५४॥

मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञ-स्तेजोवृद्धिः परा भवेत्। यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले॥५५॥

तस्माज्जपेत्सदा भक्त्या कवचं कामदम्मुने। जपेत्सप्तशतीञ्चण्डीं कृत्वा कवचमाग्रतः॥५६॥

अविघ्नेन भवेत्सिद्धिश्चण्डीजपसमुद्भवा। यावद् भूमंडलं धत्ते सशैलवनकाननम्॥५७॥

तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी। देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्॥५८॥

प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामाया प्रसादतः॥५९॥

इति वराहपुराणे हरिहरब्रह्मकृतं श्रीदेव्याः कवचं सम्पूर्णम्॥

(आब उपदेश करैछथि) जौं मनुष्य अपन कल्याणक इच्छा करथि, तौं कवचसौं रहित एकपद मात्र प्रस्थान नहि करथि। अर्थात् एक क्षणमात्रो देवीक स्मरण व्यतिरेक कालक्षेपण नहि करयक थीक। (आब फल कहैछथि) कवचक पाठ नित्य कयकें जतय जतय गमन करथि, ताहि ताहि स्थानमे अर्थलाभ (अभिलाषापूर्ति) तथा सब कामना कयनिहार कें विजय प्राप्त होयतैन्ह। कवचपाठ कयनिहार जे-जे कामना करताह, से सभ निश्चय प्राप्त होयतैन्ह, से मनुष्य शत्रुसौं निर्भय संग्राममे अजय होयताह। कवच पाठ कयनिहार मनुष्यसभ तीनू लोकमे पूजित होयताह, ई देवीक कवच देवतहुँकाँ दुर्लभ छैन्ह। नियत भय जे एहि कवच कें नित्य अथवा त्रिसन्ध्या मे श्रद्धापूर्वक पाठ करताह, तनिहाँ दैवीकला नाम देवसम्बन्धी ऐश्वर्य्य प्राप्त होयतैन्ह, तीनूलोकमे जय पौताह। कवचसौं रक्षित जे होयताह से मनुष्य अग्र सहित शय वर्ष अर्थात् एकशय वीश वर्ष पूर्णायु भय जीवताह, तनिकाँ अपमृत्यु नहि होयतैन्ह। लूता विस्फोटकादि समस्त व्याधि नाश भय जैथीन्ह। जनिकाँ हृदय मे एहि कवचक निवास होयतैन्ह, अर्थात् अभ्यास रहतैन्ह, तनिकाँ देखितँहि स्थावर विष (वृक्षादि सौं उत्पन्न विष), जङ्गम विष (सर्पादिक विष) तथा कृत्रिम नाम बनाओल विष एवं पृथ्वी मे प्रयोगादि मंत्र यंत्रादि सौं जे बाधा तथा भूचरा नाम ग्राम देवता, खेचरा नाम आकाशगामी देव विशेष, जलजा नाम वरुणक गण सब, उपदेशिका नाम उपदेश मात्रहिं जे सिद्ध होइछथि, सहजा नाम भूतादि जे सङ्गहि उत्पन्न होइछथि, कुलजा नाम कुलमे जे उत्पन्न भूतादि देवता, माला नाम मार्ग मे संग लगनिहार भूतादि, तथा डाकिनी शाकिनी इत्यादि, अन्तरिक्षचराः नाम आकाशगामी, घोरा नाम भय देनिहार, डाकिनी नाम मंत्रसिद्धा स्त्रीगण (डाइनि), महाबल सभ, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस सभ, ब्रह्मराक्षस, बेताल, भयदायक, भैरवादि, सम्पूर्ण भयदायकसभक कवच धारण कयनिहारक दर्शन मात्रहिसौं नाश भय जयथीन्ह। ताहि साधक केँ राजाक समीप मानक उन्नति, पराक्रमक परम उन्नति होयतैन्ह, तनिकाँ यशक वृद्धि होयतैन्ह, पृथ्वीमे कीर्ति प्रख्यात होयतैन्ह। प्रथम एहि कवचक पाठ कयकेँ पश्चात् सप्तशती चण्डीक जप अर्थात् चण्डी पाठ जे करताह, से महामायाक प्रसादात् यावत् शैल वन सागर सहित पृथ्वी धारण करतीह तावत् पृथ्वीमे से अविच्छिन्न-सन्तति भयकें रहताह, अर्थात् वंशक्षीण नहि होयतैन्ह, देहान्त भेला पर परमस्थान जे देवतहु काँ दुर्लभ छैन्ह, से स्थानकें ओ मनुष्य नित्य प्राप्त करताह॥४५-५९॥

इति श्रीलालदासकृतो देव्याः कवचस्यानुवादः॥