अमर साहित्यकार राजकमल चौधरी के पुण्यतिथि पर पुत्र नीलमाधव चौधरी द्वारा श्रद्धाञ्जलि संस्मरण

श्रद्धाञ्जलि संस्मरण

– नीलमाधव चौधरी

कोटिशः नमन ।
आज आपकी पुण्य तिथि है । वैसे तो मुझे पाप-पुण्य, जीवन-मरण जैसे शब्दो से ही चिढ है, फिर यह पुण्य दिवस क्यों ? क्या सुन्दर होता जो इसे मुक्ति दिवस कहा जाता । इस मृत्यु लोक से मुक्ति आसान नहीं और ना ही इसके नियम, कानून, कायदे से । फिर आप तो सदा से हरेक बंधन को तोड़ने को तैयार बैठे थे, मृत्यु में भला इतनी शक्ति कहाँ कि आपको मिटा सके, आप तो आज भी साहित्य प्रेमियों के दिलो में बैठ राज कर रहें हैं ।
कई लोगो से सुना, पढा कि आपके देहांत के बाद विशेषांक के रूप में जितनी पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई प्रेमचंद के बाद शायद ही किसी हिंदी लेखक को ये खुशनसीबी प्राप्त हो । हिन्दी-मैथिली के कई कवि-लेखकों ने आप के कृतित्व व व्यक्तित्व को लेकर काफी अच्छी रचनाएँ की हैं, जिन्हें अक्सर बहुत ही रुचि से पढ़ता रहा हूँ । उन्हीं में से दो कविता मुझे बेहद पसंद है, एक तो बाबा नागार्जुन की लिखी और दूसरी धूमिल की । जब भी आपकी, आपके रचनाओं की बात होगी, इन दोनो कविताओं की चर्चा लाजिमी है । धूमिल लिखते हैं –
उसे ज़िंदगी और ज़िंदगी के बीच
कम से कम फ़ासला
रखते हुए जीना था
यही वजह थी कि वह
एक की निगाह में हीरा आदमी था
तो दूसरी निगाह में
कमीना था
—एक बात साफ़ थी
उसकी हर आदत
दुनिया के व्याकरण के ख़िलाफ़ थी
—न वह किसी का पुत्र था
न भाई था
न पति था
न पिता था
न मित्र था
राख और जंगल से बना हुआ वह
एक ऐसा चरित्र था
जिसे किसी भी शर्त पर
राजमकल होना था
—वह सौ प्रतिशत सोना था
ऐसा मैं नहीं कहूँगा
मगर यह तय है कि उसकी शख़्सियत
घास थी
वह जलते हुए मकान के नीचे भी
हरा था ।
सचमुच आप जलते हुए मकान के बीच भी हरा थे । कितना आक्रोश भरा है आपकी रचनाओं में । कितनी बेचैनी थी आपके अंदर, जैसे एक धधकता ज्वालामुखी, जो फटने के लिए तैयार और बाहर बिल्कुल शांत तन्मयता से सृजन में तल्लीन । तभी तो बाबा नागार्जुन लिखते हैं –
बाहर बाहर छलनामय भीतर भीतर थे निश्छल
तुम तो अद्भुत व्यक्ति थे चौधरी राजकमल ।
सामाजिक, राजनीतिक, वाणिज्यिक विद्रूपताओं पर आपने अपनी रचना के माध्यम से जो कड़ा प्रहार किया है वो कहीं अन्यत्र मिलना दुर्लभ है । जरा इन पंक्तियों की बानगी देखिये ।
– कामुकता की कसकती जांघों से, और आम चुनाव जैसे जनतांत्रिक षडयंत्रों से लोगों को किस तरह मुक्त किया जाए ― यह निर्णय करने का समय आ गया है । अब मानव समुदाय पर किसी भी तरह की कोई सरकार, किसी भी विचारधारा का कोई धर्म, यहाँ तक कि कोई वैज्ञानिक अनुसंधान भी, शांति व्यवस्था कायम नहीं कर सकती । धार्मिक विश्वास उठ चुका है । यदि ‘ईश्वर’ की कोई सत्ता कभी थी, तो वह आज की तारीख में निश्चय ही समाप्त हो चुकी है । राजनेता, वैज्ञानिक और स्त्री अंगों के व्यापारी ― ये तीन ही जातियां ‘जन सामान्य’ को भूमंडलीय मुहिम से मिटा देने की हरकतों में लीन है । अब यहीं एक चीज ‘वसीयत’ की तरह मेरे कवि, मेरे लेखक के पास रह गई है, जनसामान्य को इन षडयंत्रो से रू- ब-रू कराने के लिए ।
सच आप क्या लिखोगे ? आज के लेखकों के सामने में दो ही विकल्प बचा है या तो अकादमी, या गैर अकादमी संस्थाओं, प्रकाशकों को खुश रखें चाहे जिंदा जमीर को मीठा जहर देना पड़े या फिर अपनी जमीर जिंदा रख व्यवस्था से विद्रोह कर अपना दुःखद अंत करे । दोनो ही स्थिति देश सामाज के लिए आत्मघाती है । कलम पकड़ना कोई खेल नही, सरस्वती से छल करने वाले किया दिशा निर्देश देंगे ।
आज के जीवन में भैतिक सुख भले ही बढ़ गया हो पर बौद्धिक एवम् चारित्रिक स्तर काफी गिर गया है । साहित्य समाज भला कैसे अछूता रहता । साहित्य का स्तर बहुत ही गिर गया फलतः समाज ने इसे पूरी तरह नकार दिया । वो तो भला हो ईश्वर का जिसने सोशल मीडिया जैसा प्लेटफार्म दे दिया, जिसने लोगों को सच को सच कहने की हिम्मत दी और लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया । वैसे तो इस सोशल मीडिया से कई फायदे हुए पर सबसे बड़ी बात जो हुई वो ये कि कई बड़े लेखकों, साहित्यकारों, नामचीन लेखकों के मुखौटे उतर गए । कई बड़े और चर्चित नामों में कितनी प्रतिभा और दम्भ था खुलकर सामने आ गया । सच इन सरकारी पुरस्कार प्राप्त कथित महान साहित्यकारों ने काफी निराश किया । अगर आप में मौलिकता नहीं है, आप विभिन्न लेखकों की रचना चोरी-चकारी कर महान बन बैठे हैं तो वो भला कैसे दीर्घकालीन होगा ? इस छद्म को इस सोशल मीडिया ने ध्वस्त कर दिया । अमूमन इनका हाल ये था कि कुछ रटे रटाये शब्द इनके पास होते हैं जो ये हर मंच हर सभा, हरेक रचना में फिट कर देते थे । पर आज आदमी दोहरापन चाहता कहाँ । अगर आप में प्रतिभा है तो गढ़िए ना रोज नए शब्द, नई साहित्य, कहिए ना नई-नई महत्वपूर्ण बातें ।
आज के साहित्यकार प्रसिद्ध होते हैं, उनकी रचनाएँ नहीं । कुछ कवि, लेखक जरूर हैं जो अपनी प्रतिभा, लेखनी के बल पर अलख जगाए हुए हैं । पर वो पाठक तक कहाँ पहुंच पाते और जो पहुंच रहा है उसे कब का पाठक नकार चुका है ।
साहित्य सृजन के लिए सबसे अधिक जरूरी है पढ़ना । आज के लेखक बस यही नहीं चाहते । साहित्य का सबसे बड़ा नुकसान इसी वर्ग के साहित्यकारों ने किया है ऊपर से तुर्रा ये कि मैं जो पढ रहा हूँ, वही तो लिख रहा हूँ । अस्सी प्रतिशत रचनाएँ ऐसी होती जिसे पढ़ते ही लगता अरे ये तो सरासर चोरी है पर उसकी चर्चा और प्रशंसनीय शब्दों की बरसात देख चुप हो जाता हूँ । फिर भला इन बदजात साहित्यकारों से बहस से कुछ फायदा तो नहीं, पर निश्चिततः अगर इसमे सुधार ना हुआ तो साहित्य अपना अर्थ खो देगा ।
आपकी लिखी कहानी हो, कविता हो कि नाटक । बहुत ही कम शब्दों का प्रयोग कर आपने उत्कृष्ट रचना की है । शीर्षक से लेकर कथ्य तक सब बहुत ही समुचित ढंग से सजाया गया, फिर आपके शिल्प का क्या कहना ।
आपकी एक मैथिली कहानी है “साँझक गाछ” जो मुझे बहुत ही प्रिय है, कितनी ही बार इस कहानी को पढ़ चुका हूं, हर बार वही रुचि, वही तन्मयता, वही उत्सुकता । “साँझक गाछ” क्या सटीक शीर्षक है, पूरी कहानी का निचोर जैसे दो शब्दों में बयां कर दिया गया हो ।
आपकी कुछ रचनाएं गुम हो गयी । कई कहानियां जो कभी मैंने खुद भी पढी थी जैसे बस स्टॉप, सामुद्रिक, बारह आँखों का सूरज, खरगोश का बच्चा, आज कहीं नहीं मिल रही हैं । कई लोग तो कहते हैं आपकी कुछ कहानियां कुछ लेखकों ने अपने नाम से छपवा ली । हालाँकि आपके लेखनी की जो विशिष्ट शैली है भला वो पाठकों के समक्ष कहाँ छुपने वाली । और रचना किया कुछ बेईमान निर्माता निर्देशक ने आपकी कहानी पर फिल्म बनाकर कोई और नाम दे दिया । भगवान भला करें इन बदजात कला प्रेमियों का ।
पर इस सबसे आपके कृतित्व पर कोई फर्क नही पड़ने वाला । आपकी एक भी रचना जिसने तन्मयता से पढी हो वो सोचने को, लिखने को विवश न हो जाय फिर राजकमल चौधरी की लेखनीय का कमाल क्या |
वैसे ही पचास पचपन साल बाद भी आपकी रचनाएँ यूं ही विशिष्ट नहीं बनी हुई है ।
अब अंत में आपकी ही एक कविता का कुछ अंश जो मुझे बार बार झकझोरती है ।
खामोश शव की बारीकी मेरी आँखों मे जमी रही
-स्याह बर्फ
तूफ़ान में टूटे हुए दरख्तों की हरी टहनियाँ
मेरे सीने पर लगीं
-सामने सपाट मैदान ही मैदान !
मैं सन्नाटे में लावारिस सोया रहा |
मेरी देह से चिपकी हुई काली तितलियाँ
मेरे पेट में दुबकी हुई भूखी बिल्ली
मेरी बांहों मे साँप-
कहाँ है रूह ? कब तक है ?
बर्फ का रंग बदलेगा
चिमनियाँ उगलेगी धुआँ
रूह लौटेगी
-जब बजेगा सायरन | आओ,
मेरे साथ चले आओ
मैं नींद में भी रास्ते तय करता हूँ …
अवाम हूँ मैं |
-राजकमल चौधरी
कोटिशः नमन ।