स्वाध्याय लेख
– प्रवीण नारायण चौधरी
(गीताप्रेस सँ प्रकाशित कल्याण विशेषांक – दान महिमा अङ्क सँ संकलित-अनुवादित)
तिलदान
तिल ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न अछि। ई पितर लोकनिक सर्वश्रेष्ठ खाद्यपदार्थ थिक, ताहि लेल तिलदान कयला सँ पितर लोकनि केँ बड़ पैघ प्रसन्नता भेटैत छन्हि –
पितृृणां परमं भोज्यं तिलाः सृष्टाः स्वयम्भुवा।
तिलदानेन वै तस्मात् पितृपक्षः प्रमोदते॥
– महाभारत अनुशासनपर्व ६६/७
तिल पौष्टिक पदार्थ थिक, सेवन कयला सँ शक्ति, ऊर्जा एवं आरोग्य प्रदान करैत अछि, सुन्दर रूप दयवला थिक, पितर लोकनि तथा देव लोकनि केँ अतिप्रिय छन्हि। ताहि लेल तिल केर दान सब दान सँ बढिकय होइछ – ‘तिलदानं विशिष्यते’ (महाभारत अनुशासनपर्व ६६/११)। महाभारत मे आयल अछि जे आपस्तम्ब, शंख, लिखित तथा गौतम आदि ऋषि सदिखन तिल केर दान कयल करैत छलाह, एहि के प्रभाव सँ ओ दिव्यलोक केँ प्राप्त भेलाह।
तिल अत्यन्त पवित्र होइछ आ पवित्रहु केँ पवित्र करयवला थिक। ई अत्यन्त स्निग्ध होइत अछि, एहि मे जे स्निग्ध द्रव्य रहैत छैक ओ एहि सँ निर्गत भेलापर तैल या तेल कहाइत अछि। देवता लोकनिक निमित्त तिलतेलक दीपक प्रज्वलित कयल जाइत अछि। तिल मे पाप केँ शमन करबाक अद्भुत सामर्थ्य छैक। शुक्लपक्ष मे देवता लोकनिक निमित्त तथा पितृपक्ष मे पितर लोकनिक निमित्त तिलोदक केर दान करबाक चाही।
तिल केर आविर्भाव कोना भेल, एहि विषय मे आदित्यपुराण मे कहल गेल अछि कि एक बेर महर्षि दुर्वासाजी द्वारा भगवान् सूर्य सँ पूछल गेल – हे देव! तिल केर उत्पत्ति केना भेल, बतेबाक कृपा करू। एहि भगवान् सूर्य कहलखिन्ह – मुने! सत्ययुग केर बात छी, सब पितर लोकनि दिव्य सहस्र वर्ष धरि महान् तप कयलन्हि। तप सँ प्रसन्न भऽ प्रजापति ब्रह्माजी हुनका लोकनिक पास एलाह आर कहलाह – अपने लोकनि एहेन महान् तप कोन अभिलाषा सँ कय रहल छी, अहाँ सभक तप सँ हम प्रसन्न छी, वर माँगू। एहिपर पितर लोकनि बजलाह – हे महाभाग! तिल हमरा सब केँ बहुत प्रिय अछि, वैह हमरा सभक भोज्य थिक, स्वर्गलोक मे तिल केर बिना केकरहु स्थिति सम्भव नहि अछि आर तिल केर बिना हम सब जीवित नहि रहि सकब, तेँ हमरा लोकनि केँ तिल प्रदान करबाक कृपा करू –
तिलान् दद महाभाग कांक्षितान् वै न संशयः।
तिलैर्विना न जीवामो नातिलस्तिष्ठते दिवि॥
तखन पितामह कहलखिन्ह – अपने सब प्रसन्न होउ, अपने सब केँ तिल प्राप्त होयत।
एहि प्रकार सँ तिल केर प्रादुर्भाव प्रजापति ब्रह्माजी कयलनि।
मत्स्यपुराण केर एक आख्यान मे कहल गेल अछि जे मधु दैत्य केर वध करैत समय भगवान् विष्णु केर देह सँ उत्पन्न पसीनाक बूँद सँ तिल, कुश आ उड़ीद केर उत्पत्ति भेल।
यस्मान्मधुवधे विष्णोर्देहस्वेदसमुद्भवाः।
तिलाः कुशाश्च माषाश्च तस्माच्छान्त्यै भवत्विह॥
– मत्स्यपुराण ८७/४
ई तिल हव्य-कव्य मे प्रतिष्ठित भऽ कय हव्य-कव्य केँ भूत-प्रेत सँ रक्षा करैत अछि आर ओकरा देवता तथा पितरलोक धरि पहुँचाबैत अछि।
पुनः यैह तिल महर्षि कश्यप केर अंग सँ प्रकट भऽ कय विस्तार केँ प्राप्त भेल अछि, ताहि लेल दानक निमित्त एहि मे दिव्यता आबि गेल अछि –
महर्षेः कश्पस्यैते गात्रेभ्यः प्रसृतास्तिलाः।
ततो दिव्यं गता भावं प्रदानेषु तिलाः प्रभो॥
– महाभारत अनुशासनपर्व ६६/१०
एहि तरहें तिल यथासमय देवता तथा ऋषि लोकनि सँ उत्पन्न भेला सँ अत्यन्त पवित्र अछि।
तिल कृष्ण (कारी) तथा श्वेत (उज्जर) दुइ तरहक होइत अछि। दान केर वास्ते तथा पितर लोकनिक श्राद्ध व तर्पण आदिक लेल कृष्ण तिल प्रशस्त अछि आर श्वेत तिल विष्णुपूजन आदि मे प्रयुक्त होइत अछि।
तिलदान केर बड़ा पैघ महिमा छैक। एकर दान करबाक, एकरा द्वारा हवन करबाक तथा एकर भक्षण आदिक सेहो महिमा कहल गेल अछि। षट्तिला एदादशी मे तिल केर छः प्रकार सँ उपयोग कयल जाइत अछि। ओहि दिन तिलकेर उबटन लगेनाय, जल मे तिल दय केँ स्नान करनाय, तिलकेर होम करनाय, तिलोदककेर पान करनाय, तिलकेर दान करनाय तथा तिलकेर भक्षण करनाय – एहि तरहक छः प्रकार सँ प्रयोग कयल जाइत अछि –
तिलोद्वर्ती तिलस्नायी तिलहोमी तिलोदकी।
तिलदाता तिलभोक्ता च षट्तिलाः पापनाशकाः॥
विष्णुधर्मोत्तरपुराण मे कहल गेल अछि जे तिल, गौ, सुवर्ण, अन्न, कन्या तथा भूमि केर दान महान् भय सँ रक्षा करैत अछि –
तिला गावो हिरण्यञ्च अन्नं कन्या वसुन्धरा।
दत्तान्येतानि विधिवत्तारयन्ति महाभयात्॥
तिलदान
(क्रमशः सँ आगू)
माघ मे मासो भरि तिलदान तथा तिल केर सेवनक बड़ पैघ महिमा अछि। माघ महीना मे प्रयागादि मे कुम्भपर्व रहैत छैक। श्रद्धालु आस्तिकजन कल्पवास करैत छथि आर तिल केर दान करैत छथि। तिल के लड्डू तथा तिलपिष्टी आदिक दान होइत छैक, संगहि सेवन सेहो कयल जाइत अछि। सेवन कयला सँ तिल शीत के निवारण कय उष्णता प्रदान करैत अछि। एहि तरहें वैशाख पूर्णिमा तथा ज्येष्ठ मासक पूर्णिमा दिन तिलदान कयला सँ सब पाप सँ मुक्ति भेटि जेबाक विधान कहल गेल अछि। तिल मे महान् पाप सभ केँ क्षय करबाक शक्ति छैक। तेँ मुनि लोकनि पापक्षय के वास्ते तिलदानक प्रशस्ति गेने छथि। पितर लोकनिक निमित्त तिलदान सँ अग्निष्टोमयज्ञक फल प्राप्त होइत अछि। जे माघमास मे ब्राह्मणक लेल तिलदान करैत अछि, ओ जीवजन्तु सब सँ परिपूर्ण नरकक दर्शन नहि करैत अछि –
माघमासे तिलान् यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति।
सर्वसत्त्वसमाकीर्णं नरकं स न पश्यति॥
– महाभारत अनुशासनपर्व ६६/८
कूर्मपुराण मे कहल गेल अछि जे कृष्णमृगचर्म केर ऊपर एक द्रोण (३२ सेर) तिल राखिकय संग मे सुवर्ण, मधु तथा घृत राखिकय ओकरा वस्त्र सँ आच्छादितकय दक्षिणाक संग मे ब्राह्मण केँ दान कयला सँ सब तरहक पाप सँ छुटकारा भेटि जाइत अछि – ‘सर्वं तरति दुष्कृतम्’।
तिल के देवता सोम छथि, तेँ जखन कखनहुँ तिलदान करबाक हुए त संकल्प मे ‘सोमदैवतं तिलम्’ एहि प्रकार सँ कहबाक चाही।
तिलपात्रदान – ब्रह्मपुराण मे नित्य तिलपात्रदानक महिमा आयल अछि आर कहल गेल अछि जे ताँबाक पात्र मे प्रस्थभरि (एक सेर) तिल भरिकय सुवर्णक संग श्रद्धापूर्वक जे प्रतिदिन ब्राह्मण केँ दान करैत अछि, ओ सब पाप सँ मुक्त भऽ कय पवित्र भऽ जाइत अछि आर अन्त मे परम गति प्राप्त करैत अछि –
ताम्रपात्रं तिलैः पूर्णं प्रस्थमात्रं द्विजाय च।
सहिरण्यं च यो दद्यात् प्रत्यहं श्रद्धयान्वितः॥
सर्वपापविशुद्धात्मा लभते परमां गतिम्॥
तिलपात्रक दान करैत समय निम्न मंत्र पढक चाही –
तिलाः स्वर्णयुक्तास्तुभ्यं प्रदत्ता ह्यघनाशनाः।
विष्णुप्रीतिकरा नित्यमतः शान्तिं प्रयच्छ मे॥
माघमास मे त प्रतिदिन तिलदान, तिलपात्रदान करबाक विधि अछि। दुःस्वप्ननिवारणक लेल तथा विभिन्न रोग सभक शमन लेल सेहो तिलदान कयल जाइत अछि।
तिल के दान अनेक प्रकार सँ होइछ, जे तिलपात्रदान (ताम्रपात्र या कांस्यपात्रपर), तिलपीठदान, तिलादर्शदान, तिलकुम्भदान, तिलगर्भदान, तिलमृगदान, तिलराशिदान, तिलकरकदान, तिलपद्मदान, तिलपर्वतदान तथा तिलधेनुदान आदिक रूप मे होइत अछि।
दस धेनु मे तिलधेनुदान सेहो एक दान थिक। तिलधेनुदान मे कहल गेल अछि जे गोबर सँ अनुलिप्त भूमिपर कुशक ऊपर वस्त्र बिछाकय ओहि ऊपर तिल सँ धेनुक आकार बनाउ। ओकरा सब रत्न सँ अलंकृत करू। एक द्रोण (३२ सेर) तिल सँ धेनु तथा आढ़कभरि (चारि सेर) तिल सँ गोवत्स बनाउ। ओ सुवर्णश्रृंगी, रौप्यखुरी हुए। ओकर जिह्वाक स्थान पर शर्करा (गूड़) राखू, पैरक स्थान पर ईख (कुशियार) राखू, स्तनक स्थान पर नवनीत राखू। एहि तरहें अन्य पदार्थ सँ गाय तथा वत्स केर तत्तद् अंगक कल्पना करू। एहि तरहें सवत्सा धेनुक निर्माण कय ओकरा श्वेतवस्त्र सँ आच्छादित कय दियौक। कांस्यदोहनी सेहो राखि दियौक। तखन पूजा कय भगवान् केशव केँ निवेदित करैत ब्राह्मण केँ दान करू। ताहि समय निम्न मंत्र पढू –
या लक्ष्मीः सर्वदेवानां या च देवेष्ववस्थिता।
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु॥
देहस्था या च रुद्राणी शंकरस्य सदा प्रिया।
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु॥
वह्निपुराण मे तिलधेनुदान केर निम्न मंत्र आयल अछि –
तिलाश्च पितृदैवत्या निर्मिताश्चेह गोसवे।
ब्राह्मणा तन्मयी धेनुर्दत्ता प्रीणातु केशवम्॥
एहिना तिल केर पर्वत बनाकय तिलांचल या तिलशैलक दान सेहो कयल जाइत अछि।
तिलदान
(दोसर क्रमशः सँ आगाँ)
मातृऋण सँ मुक्तिक लेल तिलदान
पुराण मे कहल गेल अछि जे माता केर पुत्र पर महान ऋण होइत छैक। ओहि ऋण केर निवृत्ति तँ कोनो तरहें संभव नहि छैक, तैयो अपन कर्तव्य केर दृष्टि सँ मात्र मातृऋण सँ उऋण हेबाक लेल कांस्यपात्र मे तिल भरिकय दक्षिणा सहित दान कयल जाइत अछि। एहि मे हवन, मातृश्राद्ध आदि करबाक सेहो विधान अछि। सौभाग्यवती स्त्री लोकनि केँ वस्त्र, आभूषण, आदि सेहो देल जाइत छैक। ब्राह्मण भोजन होइत छैक। एकर विधि मे कहल गेल अछि जे माघी पूर्णिमा, सुर्य चन्द्र ग्रहण, संक्रान्ति तिथि, युगादि तिथि अथवा निर्दिष्ट पुण्यकालक दिन नित्यक्रिया सम्पन्न कय द्वादशकमलदल केर ऊपर तिलपूर्ण कांस्यपात्र केँ स्थापित कय विष्णु भगवान् केर पूजन कय अग्नि मे विष्णुमंत्र सँ अष्टोत्तरशताहुति घृताक तिल सँ दी और दानग्रहीता ब्राह्मण केँ उत्तरमुख बैसाकय पादप्रक्षालन आदि कय केँ मातृश्राद्ध सम्पन्न करी; तदनन्तर पवित्र भऽ कय संकल्पपूर्वक सुवर्ण सहित तिलपूर्ण कांस्यपात्र ब्राह्मण केँ दान करी। ओहि समय ब्राह्मण केँ उद्देश्य कय निम्न मंत्र केँ पढी –
कांस्यपात्रं मया दत्तं मातुरानृण्यकाम्यया।
भगवन् वचनातुभ्यं यथाशक्ति तथा वद॥
दशमासाश्च उदरे जनन्याः संस्थितस्य मे।
क्लेशिता बालभावेन स्तनपानाद्द्विजोत्तम॥
मलमूत्रादिमल्लेपलिप्ता या च कृता मया।
भवतो वचनादद्य मम मुक्तिर्भवेदृणात्॥
तिलसंख्याकृतं दुःखं जनन्या मम सेवितम्।
कांस्यपात्रप्रदानेन कृतकृत्यो भवाम्यहम्॥
मंत्र केेर भाव ई अछि जे हे भगवान्! माताक ऋण सँ मुक्त हेबाक अभिलाषा सँ हम यथाशक्ति ई तिलपूर्ण कांस्यपात्र अपने केँ प्रदान कयलहुँ अछि। एकर जे फल हुए से बतेबाक कृपा करू। हम दस मास धरि माय केर गर्भ मे रहलहुँ, ताहि समय हम माय केँ महान् कष्ट पहुँचेलहुँ, हे द्विजोत्तम, फेर जन्मक समय तथा बालकपन मे स्तनपान आदि सँ हुनका दुःखे देलहुँ। हम हुनका अपन मल-मूत्रादि सँ लिप्त कयलहुँ। हम जे माय केँ कष्ट देलहुँ ताहि सँ हमर मुक्ति अपने ब्राह्मणक वचन सँ भऽ जाय। हम जे ई तिल देलहुँ अछि ताहि संख्या मे बल्कि ताहू सँ बेसी दुःख माय केँ देने छी, आर माय एहि तिल संख्या सँ सेहो बेसी दुःख हमरा लेल सहन कयलीह अछि। अतः एहि तिलपूरित कांस्यपात्रक दान सँ हम कृतकृत्य भऽ जाय – एहेन अपने हमरा ऊपर कृपा करी। एना कहिकय संकल्पसहित ओ सोपस्कर तिलपूर्ण कांस्यपात्र ब्राह्मण केँ दान कय दी। दान लय केँ दानग्रहीता ब्राह्मण कहथि – ‘त्वयैतत्कृततिलपूर्णकांस्यपात्रदानेन जननी-संभवादृणात्त्वं मुक्तो भवेत्’ अर्थात् एहि तिलपूर्ण कांस्यपात्र केर दान सँ अहाँ मातृऋण सँ उऋण भऽ जाउ।
तदनन्तर व्याहृति सब सँ आज्यहोम कय केँ विसर्जन करी तथा ब्राह्मणभोजन कराबी।
एहि तरहें माघमास केर पूर्णिमा केँ माताक निमित्त जे किछुओ देल जाइत अछि से अक्षय भऽ जाइत अछि – एहेन बात भगवान् शंकर केर कहब छन्हि।
तथान्यदपि यद्दतं माघ्यामुद्दिश्य मातरम्।
तदक्षय्यफलं सर्वं पुरा प्राह महेश्वरः॥
एहि तरहें तिल केर दानक बड पैघ महिमा छैक। जप, तप, अनुष्ठानादि सत्कर्म मे विकलता आदि दोष सभक निवृत्तिक लेल सेहो कर्मसमाप्तिक अनन्तर अच्छिद्रदान होइत छैक जाहि मे तिल केर दान कयल जाइछ, जाहि सँ कर्मक वैकल्य पूर्ण भऽ जाइत छैक।
ॐ तत्सत्!
हरिः हरः!!